महर्षि दयानंद जी के मुंबई के अंतिम प्रवास में दिए गए 21वें व्याख्यान की झांकी •


 



 


 


 


 महर्षि दयानंद जी के मुंबई के अंतिम प्रवास में दिए गए 21वें व्याख्यान की झांकी •


• अनावश्यक रूप से लोगों को चिढ़ाना महर्षि दयानंद जी की नीति के विरुद्ध था •


21वां व्याख्यान : 


ज्येष्ठ शुक्ला 11, 1938 वि. रविवार 26 मई 1882। 


इस दिन आर्यसमाज का अधिवेशन 'एस्प्लेनेड थियेटर' में सायं साढ़े चार बजे हुआ। उपस्थिति ने अब तक के सारे कीर्त्तिमान तोड़ दिये थे।


वेद मंत्रों से प्रार्थना करने के अनन्तर स्वामीजी ने देशोन्नति पर अत्यन्त गम्भीर तथा विशद व्याख्यान दिया। 


इस प्रसंग में उन्होंने बाल विवाह, देशाटन, क्रय विक्रय में प्रामाणिकता, विद्याभ्यास, सत्यभाषण आदि विषयों की विवेचना की।


भारतवासी देशान्तरों में जाकर विभिन्न प्रकार के कला कौशल सीखें और पुनः स्वदेश में आकर यहाँ के उद्योगों को प्रगति दें, यह उनकी एकान्त कामना थी। 


शताब्दियों तक कूपमण्डूक रह कर देशवासियों ने अपनी सर्वतोमुखी अधोगति का जिस प्रकार स्वतः ही वरण कर लिया है, स्वामीजी की दृष्टि में इसका एक मुख्य कारण दीर्घकाल तक अन्य देशस्थ जनों से सम्पर्क का न रहना भी था। इसी त्रुटि को दूर करने के लिये स्वामीजी ने विदेशयात्रा पर बल दिया। 


भारत के धर्मगुरुओं ने अब तक धर्म, अध्यात्म और परलोक की तो बहुविध चर्चा की थी, किन्तु दयानन्द की वाणी में देशवासियों ने उस समय एक अभिनव स्वर सुना, जब उन्होंने विदेशी सम्पर्क के अनेक ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत कर देशवासियों को पश्चिम के विज्ञान एवं कला कौशल के नवीन आलोक को ग्रहण करने की प्रेरणा दी।


विदेश पर्यटन को उचित मानते हुए भी उन्होंने वहाँ जाकर अभक्ष्य वस्तुओं के भक्षण को निन्दनीय बताया। उन्होंने इस प्रसंग में कहा कि यदि विदेशों में रह कर कोई व्यक्ति अपने आहार विहार तथा आचार विचार को शुद्ध न रख सके तो स्वदेश लौट कर उसे प्रचलित पद्धति के अनुसार देह शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त भी कर लेना चाहिए। 


अनेक दृष्टियों से अत्यन्त कान्तिकारी होते हुए भी स्वामी दयानन्द व्यर्थ में ही सामान्य जनों में बुद्धि भेद उत्पन्न करने को उचित नहीं समझते थे। वे ब्रह्मसमाज के उन तथाकथित प्रगतिशील नेताओं के विरुद्ध थे, जो समाज में प्रचलित निर्दोष प्रथाओं का विरोध केवल इसीलिये करना चाहते थे कि लोग उन्हें पुरातन परम्पराओं को तोड़ने वाले उग्रवादी समझ लें। अनावश्यक रूप से लोगों को चिढ़ाना उनको नीति के विरुद्ध था।


इस व्याख्यान में क्रय विक्रय के विषय को जिस ढंग से वक्ता ने निरूपित किया, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी दयानन्द वाणिज्य, व्यवसाय में नैतिकता और ईमानदारी बरतने के कट्टर पक्षपाती थे। 


संन्यासी होने और लौकिक व्यवहार तथा सांसारिक समस्यानों के प्रति अत्यन्त निस्संग भाव रखने पर भी स्वामीजी ने अपनी सर्वग्रासी दृष्टि से व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र में प्रचलित अनैतिक तथा बेईमानी को चिन्तातुर दृष्टि से देखा था।


उन्होंने व्यापार में अप्रामाणिक व्यवहार को घृणित बताया। साथ ही यह भी कहा कि इस देश के सेठ साहूकार व्यापारार्थ आये हुए विदेशियों को तो करोड़ों का ऋण दे देते हैं। किन्तु अपने स्वदेशी भाइयों का अप्रामाणिक वर्तन देख कर उन्हें एक फूटी कौड़ी भी ऋण नहीं देते। 


उन्होंने भाव ताव में मिथ्या व्यवहार करने, विक्रय होने वाली वस्तुओं में मिलावट करने, अपना घर भर कर व्यावसायिक प्रतिष्ठान का दीवाला निकाल देने, परस्पर धोखाधड़ी, षड्यंत्र तथा आपस के विवादों को कचहरी तक ले जाने जैसे दुष्कृत्यों की तीखी आलोचना की। 


विद्याभ्यास की चर्चा करते हुए उन्होंने पारमार्थिक तथा व्यावहारिक भेद से विद्याओं को दो प्रकार का बताया तथा आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ राजकीय तथा पदार्थ विद्याओं का सम्यक् ज्ञान संपादित करने की प्रेरणा की। 


अपनी व्यापक एवं उदार दृष्टि का परिचय देते हुए उन्होंने संसार के विभिन्न भागों की भाषाओं को यथा सुविधा सीखने के लिए कहा। 


स्वामी जी का यह भाषण साढ़े छह बजे समाप्त हुआ।


[स्रोत :  डॉ. भवानीलाल भारतीय रचित
"नवजागरण के पुरोधा दयानंद सरस्वती", प्रथम संस्करण 1983, पृ. 451-452, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]  




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