खुदीराम बोस

 



 


 


भरे बाजार में एक अंग्रेज अफसर एक हलवाई को पीट रहा था ।  एक बहुत छोटा अबोध बालक यह सब देख रहा था ।  उस बालक के पिता की मृत्यु हो चुकी थी । कुछ बड़ा हुआ तो माता भी चल बसी । घर में केवल बड़ी बहन अपरूपा थी जो उसका  पालन-पौषण करती थी ।


हलवाई की पिटाई होते देखकर बालक का कोमल ह्रदय द्रवित हो उठा । साँसों में तेजी आ गई । वह हैरान हो उठा कि दादा सदृश्य इस आदमी को यह गोरे रंग का आदमी क्यों पीट रहा है । दौड़ा-दौड़ा वह घर गया और  माँ जैसी बड़ी बहन को सारी बात बताई । बहन अपरूपा बोली - " हम अंग्रेजों के गुलाम हैं , कोई क्या कर सकता है , बाबा ने उनके खिलाफ कुछ कह दिया होगा ।"  यह कहते हुए उसने अपने भाई को सीने से चिपका लिया ।


 नन्ही मुठ्ठियों में खिंचाव आ गया । चंचल नेत्रों में ठहराव आ गया । बालक के मन में अंग्रेजों के लिए नफरत पैदा हो गई , और फिर - भाग फिरंगी भाग ।।।।।।।।


 यह नन्हा बालक बड़ा होकर
 
खुदीराम बोस


बना जो फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र   ( मात्र 18 वर्ष )  का क्रांतिकारी था )  



धनाढ्य परिवार के इकलौते वारिस खुदीराम बोस की बहन की जब शादी हुई तो वे चाचा-ताऊ के पास रहने की बजाय बहन की प्रथम विदाई पर उनके साथ जाने की जिद पर अड़ गए ।  चार-पांच वर्ष के खुदीराम को हर कोई गोदी में उठाकर समझा रहा था और उनके आंसुओं से खुद को भिगो रहा था ।  घण्टों बाद निर्णय लिया गया कि यह बहन की ससुराल में ही रहकर पढ़ लेगा हालांकि उन दिनों माँ जीवित थी । जैसे बच्चा माँ से लिपटा रहता है , खुदीराम एक पल भी बहन से अलग न होते थे ।  थोड़े किशोर हुए तो एक दिन गांव के पास ही जंगल में स्थित मंदिर में भूखे-प्यासे लेट गए कि हे  प्रभु ! जब तक मेरा देश स्वतंत्र नहीं करोगे तब तक न उठूंगा । बहुत समझाने पर भी न माने तो उनके तेजस्वी गुरु ( अभी नाम याद नहीं ) बुलाया गया । उन्होंने समझाया कि स्वतंत्रता खून पर तैरकर आती है । खड़े हो जाओ ।  मेरे साथ चलो , मैं दिलवाऊंगा स्वतंत्रता । गुरु का दबाव काम कर गया और तब जाकर पानी पिया और घर आए ।


जबरदस्त विद्रोही स्वभाव वाले खुदीराम को कक्षा 8 में एक विद्यार्थी ने नकल देने से मना किया तो खुदीराम ने शपथ ले ली कि अब किसी के मुंह की तरह न देखकर खुद पढूंगा । खेल की हर गतिविधि , पढ़ाई और विशेष प्रतिभा को देखकर कक्षा 9 में उनके स्कूल में अंग्रेज ऑफिसर मुख्य अतिथि के रूप में आया तो पूछा कि खुदीराम से मिलवाओ । अंग्रेज अफसर ने उसकी प्रतिभा का लोहा माना और न केवल पुरस्कृत किया बल्कि वजीफा भी रख दिया और बोला कि कुछ भी चाहिए तो बता देना ।


कक्षा 9वीं में पढ़ाई ,दण्ड-बैठक के अलावा खुदीराम अपने गुरु के पास जाता । क्रांतिकारियों की बातें सुनता । दोपहर में ही व्यायाम करना शुरू कर देता । सुबह-सुबह अपनी उम्र के मामा संग जंगल में चला जाता और घण्टों व्यायाम करता । कक्षा 9 में ही जब एक दिन वह बाजार की दीवारों पर इस्तेहार ( पर्चे ) चिपका रहा था तो एक पुलिस वाले ने रोकना चाहा तो व्यायाम से फौलादी शरीर वाले खुदीराम ने  पुलिस वाले को ही पीट दिया । 


खुदीराम इतना प्रतिभावान था कि उनकी जीवनी में लिखा है कि वह चाहता तो उसके लिए अंग्रेजी सरकार की अफसर वाली नोकरी चुटकियों में तैयार थी । 


खुदीराम की जीवनी  पढ़ते हुए शरीर में बिजली सी दौड़ती है । आजादी बस आजादी की रट । देश के लिए रोज नए संकल्प । मुझे बस एक पिस्तौल दिलवा दो । क्रांतिकारियों की गुप्त समिति का सदस्य , जूते न पहनने की प्रतिज्ञा , नफरत का उबाल , बड़ी बहन चाहती थी कि यह विवाह कर ले तो पिता का वंश चल पड़े ,  अपनों का त्याग , संगठन को कैसे मजबूत करूँ , धन कहाँ से आएगा , लूट का निर्णय , दोस्तों ने जबरदस्ती जूते पहनाए और प्रतिज्ञा तुड़वाई कि नंगे पैर यह लड़ाई नहीं लड़ पाओगे , पहली लूट , बहन का आशीर्वाद , किंग्सफोर्ड को मारने की योजना , लेकिन वह बच गया , पुलिस की गिरफ्त में , अदालत में पेशी , अपने किए की स्वीकृति , सच बोलने की सजा फांसी । 



अंतिम इच्छा में माँ जैसी बड़ी बहन अपरूपा से मिलना चाहता था मगर अंग्रेजों ने अनुमति नहीं दी ।  मात्र 103 पेज की उनकी जीवनी को पढ़कर आश्चर्य होता है कि यह सब करके मात्र 18 साल की उम्र में अपना बलिदान देने वाला यह भारत माँ का सुपुत्र कैसा महान वीर था । उनके बारे में क्या-क्या लिखूं , जितना मर्जी लिख लो , कम है । नमन है ।


(  हे खुदीराम !  कोई विचार तो नहीं था बस जाने कहाँ से प्रेरणा मिली और थोड़ा लिख दिया , वरना हमारे पास समय ही कहाँ है अपने बलिदानी वीरों के लिए  चार लाइनें लिखने का )



-  ईश्वर वैदिक ।



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