◆ अयोध्या विमर्श हिन्दू-विरोधी क्यों

 



 


 


 अयोध्या विमर्श हिन्दू-विरोधी क्यों

अयोध्या में राम-जन्मभूमि स्थल के नीचे मंदिर के नए भग्नावशेष मिलना आश्चर्य की बात नहीं। दशकों पहले प्रसिद्ध पुरातत्वविद प्रो. बी. बी. लाल, एस. पी. गुप्ता, जैसे लोगों ने अनेक प्रमाण दिखाए थे। पर वामपंथियों और इस्लामियों ने वह सब नजरअंदाज करते हुए राजनीतिबाजी की जिद ठानी। दरअसल ये ‘सबूत’ माँगने, खोजने की बातें पिछले तीस साल का खेल है। पहले तो सदियों से हिन्दू और मुसलमान दोनों जानते थे कि बाहरी मुस्लिम हमलावरों ने अयोध्या जैसे असंख्य हिन्दू तीर्थों के भव्य मंदिर तोड़े थे। वहीं पर मस्जिदें या दूसरे अड्डे बनाए। यह सब खुद मुस्लिम तारीखनवीसों की ही किताबों में विस्तार से दर्ज है।


यह तो जब राम-जन्मभूमि पर आंदोलन फिर शुरू हुआ, तब सबूतों की राजनीति शुरू हुई। 1988-89 ई. में कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने अयोध्या में मंदिर-विध्वंस के सबूत माँगने का पैंतरा खेला। उन्हें संघ-परिवार के बौद्धिक खालीपन पर भरोसा था। उन्होंने सोचा कि संघ संगठन तो भावनाओं से अधिक की पूँजी नहीं रखते। इसलिए अकादमिक दृष्टि से ‘हिस्टोरिकल एविडेंस’ देने में विफल रहेंगे। लेकिन इस बीच स्वतंत्र हिन्दू बौद्धिक मैदान में आ गए। सब से पहले, अरूण शौरी ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में खुद लेख लिखकर मंदिर विध्वंस के प्रमाण दिए। फिर, सीताराम गोयल, राम स्वरूप, हर्ष नारायण, आभास कुमार चटर्जी, जैसे कई विद्वानों, जानकारों के लेख प्रकाशित किए। बेल्जियन विद्वान कूनराड एल्स्ट ने अयोध्या विवाद पर पूरी पुस्तक लिखी। अंततः सीताराम गोयल की क्लासिक कृति ‘‘हिन्दू टेंपल्सः ह्वाट हैपेन्ड टु देम’’ आई।


इस तरह सबूतों की भरमार हो गई। मगर नीयत सही हो, तब सबूत काम करे! इसीलिए सुप्रीम कोर्ट से फैसला आ जाने पर भी कई लोगों ने अगर-मगर बंद नहीं हुई है। यह दिखाता है कि मंदिर-विध्वंस के सबूत माँगने वालों का मन साफ नहीं था। आखिर, मथुरा, काशी, भोजशाला जैसे तीर्थों में हुए विध्वंस का प्रमाण तो वहीं सामने मौजूद है। तब वह क्यों नहीं हिन्दुओं को वापस किया जाता? दुर्भाग्यवश, हिन्दू संगठनों ने कभी भी पूरे मामले को गंभीरता से उठाने की चिंता नहीं की। वे हल्के, शॉर्ट-कट राजनीति के फेर में रहे। इसीलिए, अयोध्या विध्वंस के प्रमाण मिलने पर जिन वामपंथियों को शर्मिंदा होना चाहिए थे, वे आज भी वैसे ही उच्छृंखल, उद्दंड व्यवहार कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें बुनियादी चुनौती नहीं दी गई। बस अपील, मनुहार, आदि से काम निकालने की कोशिश रही।


ऐसे बचकाने, दीन रुख से चतुर शत्रु ने समझ लिया कि सामने वाला तैयारी में नहीं है। वही स्थिति आज तक है! कितने भी नए प्रमाण मिलें, उलटे हिन्दुओं को ही कटघरे में खड़ा करने, मजाक उड़ाने की कोशिशें चलती हैं। वह भी तब जब सत्ता पर हिन्दूवादी लोग काबिज हैं! जाहिर है कि वे आज भी हेल्पलेस, क्लूलेस हैं। उन्हें एक ढंग का बयान तक देने की फिक्र नहीं होती। यह विचित्र स्थिति हिन्दूवादियों की मूल कमजोरी की वजह से हैं। वे असली बौद्धिक, नैतिक लड़ाई से बचते हैं। इसीलिए हिन्दू-विरोधी लोग आक्रामक रहते हैं। अपने अत्याचार का हिसाब देने के बजाए नए-नए उल्टे-सीधे सवाल उठाते रहते हैं। हिन्दूवादियों ने अयोध्या में एक मंदिर भर बनाने में लक्ष्य सीमित न कर लिया होता तो ऐसी स्थिति नहीं होती। यदि इस्लामी इतिहास को बहस का केंद्र बनाया जाता और मुसलमानों व उन के सहयोगियों से हिसाब माँगा जाता, तो हिन्दू-विरोधियों को बचाव की मुद्रा अपनानी पड़ती।


लेकिन हिन्दूवादियों ने मंदिरों के पुनर्स्थापन का आंदोलन राम-जन्मभूमि में समेट कर रख दिया। उन्होंने बुनियादी प्रश्न छोड़ दिया कि इस्लामी हमलावरों के हाथों मंदिरों का वह हश्र क्यों हुआ था? हिन्दूवादी नेता दूसरों की सुनी-सुनाई लफ्फाजी दुहराने लगे कि इस्लाम में दूसरों के पूजा-स्थलों पर मस्जिद बनाने की मनाही है। उन्होंने खुद सच्चाई से मुँह चुरा लिया, मानो जिस के घर में डाका पड़ा, वह डाकू को जानते हुए भी अदालत में पहचानने से इंकार कर दे! ऐसे मुकदमे का क्या होगा?  जैसा सीताराम गोयल ने बहुत पहले कहा था, ‘‘आत्म-छलना पर बनी रणनीति शुरू में ही ध्वस्त हो जाती है।’’


आज नहीं तो कल, हिन्दुओं को अपने सभी प्रश्न खुलकर सामने रखने होंगे। तभी मुसलमानों में भी विवेकशील लोगों को बल मिलेगा, जब उन पर सचाई और न्याय का दबाव पड़ेगा। हिन्दूवादियों द्वारा की जाती लल्लो-चप्पो उलटे कट्टरपंथी इस्लामियों को बल पहुँचाती है। वे मुसलमानों को समझाते हैं कि हिन्दू नेता डर के कारण मनुहार करते हैं, इसलिए इनके साथ तैश और शिकायत वाला व्यवहार ही ठीक है।जब हिन्दू खुल कर अपना पक्ष रखेंगे, तथा पिछली और आज के इस्लामी जुल्मों, मनमानियों का हिसाब माँगेंगे, तभी सुधारवादी मुस्लिमों को उभरने का मौका मिलेगा। इसलिए, मथुरा, काशी जैसे सभी महान हिन्दू तीर्थों पर इस्लामी अतिक्रमण खत्म करने की माँग करनी चाहिए।


इस पर जिम्मी और अंसार किस्म के सेक्यूलर, वामपंथी पैंतरा बाँधते हैं कि अतीत के घाव कुरेदना ठीक नहीं; उसे ‘जो हो गया सो हो गया’ वाली भावना में छोड़ देना चाहिए। मगर यह झूठा तर्क है। पहले तो, इस्लामी दावा पिछले चौदह सौ सालों में नहीं बदला गया। वे आज भी दिन में बीस बार उसे दुहराते हुए दूसरे धर्म वालों को नीच बताते हैं। ऐसे रुख से सभ्यतागत घाव भरने के बदले रोज हरे होते हैं। यह हिन्दू अपने ही देश में महसूस करते हैं। मुस्लिम देशों में तो हिन्दुओं को और भी अपमान झेलने पड़ते हैं। यह भी ध्यान दें कि कैथोलिक चर्च के प्रमुख पोप ने चर्च द्वारा सैकड़ों वर्ष पुराने किए अपराधों की माफियाँ दुनिया भर में जा-जाकर माँगी हैं। यह भी सभ्यतागत घावों का ही उदाहरण है, जिस की मरहमपट्टी की जरूरत महसूस होती है। अयोध्या भी गहरा सभ्यतागत घाव था। अयोध्या, काशी, मथुरा, जैसे महान तीर्थ तब से हैं, जब इस्लाम पैदा भी नहीं हुआ था। उन स्थानों की पुनर्स्थापना बिलकुल उचित है। चाहे कितना भी समय बीते। स्पेन से लेकर रूस तक कई देशों में ऐसी पुनर्स्थापनाएं हुई हैं। महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ सदियों पहले भी चुराई गई तो आज उसे लौटाना पड़ता है। मथुरा, काशी के पवित्र स्थल प्राचीन कलाकृतियों से अतुलनीय रूप से अधिक मूल्यवान हैं।


इसलिए, भारतीय मुसलमानों को सोचना चाहिए कि राजनीतिक इस्लाम ने हिन्दू सभ्यता को कितने घाव दिए हैं। वे बाहरी, इस्लामी हमलावरों ने दिए थे। वह कोई गर्व की बात नहीं है। राम-जन्मभूमि, कृष्ण-जन्मभूमि, काशी-विश्वनाथ जैसे महान स्थलों के ऊपर ही मस्जिद बनाने के पीछे कोई ईश्वरीय भावना नहीं थी। वह हिन्दू धर्म का अपमान करने, और इस्लाम का राजनीतिक वर्चस्व दिखाने की भावना थी।


अतः विभिन्न समुदायों के लिए आस्था या सम्मान-अपमान के मुद्दे पर समान मानदंड रखना होगा। अपने मत को खुदाई समझना, और दूसरे मतों को खुले आम झूठा, नीचा कहना अनुचित है। पहले भी अनुचित था। आज तो यह चल ही नहीं सकता। दूसरे धर्म-विचारों व समाजों को खत्म करने की घोषणा करने वाला मतवाद किसी के लिए कल्याणकारी नहीं है। अतः भारत में बड़े मदरसों की पाठ्य-सामग्री भी सार्वजनिक रूप से परखी जानी चाहिए।वस्तुतः, यहाँ के मुसलमानों को भारत की गौरवशाली विरासत से जुड़ना चाहिए। अब तो सऊदी अरब में भी इस्लाम से पहले की विरासत पर गर्व किया जा रहा है। दो हजार वर्ष पहले के "मेदेन सलेह" को सऊदी ‘राष्ट्रीय गौरव’ बताया जा रहा है। इस्लामी मत के अनुसार वह इस्लाम से पहले के होने के कारण ‘जाहीलिया’ का प्रतीक है, जिसे खत्म कर देना चाहिए। पर अब सऊदी अरब उसे सम्मान दे रहा है! उस की तुलना में अयोध्या, काशी, मथुरा तो अतुलनीय गौरव-स्थल हैं। भारतीय मुसलमानों को इस पर गर्व करना ही चाहिए। उसी हिसाब से अपने मत और स्थिति पर पुनर्विचार करना चाहिए।


- डॉ. शंकर शरण (२६ मई २०२०)










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