वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान

 


 


 


 


 


 



वेद एवं वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान में महर्षि दयानन्द का योगदान 


वेद भारतीय संस्कृति अथवा आर्य संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं। भाषा विज्ञान की शब्दावली में वेद भारतीय परिवार (Indo-European Family) के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। समस्त उत्तरवैदिक साहित्य वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, षड्‌दर्शन, सूत्रग्रन्थ, स्मृतियॉं तथा प्रातिशाख्य आदि सबका सम्बन्ध वेद से जोड़ा गया है। मनुस्मृति वेद को परम प्रमाण मनाती है तथा वेद से भूत, भविष्यत्‌, वर्तमान सब कुछ सिद्ध हो सकता है। कवि कुलगुरु कालिदास का कहना है कि यह वेदवाणी ओंकार से आरम्भ होती है तथा उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित तीन भेद से इसका उच्चारण होता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारत में उद्‌भूत दर्शन एवं सम्प्रदाय या तो वैदिक कोटि में माने गए हैं या अवैदिक। वैसे प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को वैदिक ठहराने का प्रयास करता है। वेद का इतना महत्व है कि इसके ज्ञान को नित्य माना गया है। इसकी शब्दानुपूर्वी (Word order) को भी नित्य माना गया। इसीलिए सम्भवत: वेदमन्त्रों की श्रुतिपरम्परा से जिस तरह रक्षा की गई, वैसी आज तक समस्त वैदिक, लौकिक संस्कृत अथवा भारतीय भाषा-साहित्य में किसी भी ग्रन्थ की रक्षा नहीं की गई। हजारों वर्षों से वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ किया जाता रहा है और आज भी यह परम्परा अपने मूल में अक्षुण्ण है, यह वेदपाठियों का दावा है। उसका एक भी अक्षर इधर से उधर नहीं हुआ। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। इस परम्परा को अक्षुण्ण (ज्यों का त्यों) बनाए रखने के लिए ऋषियों ने अनेक उपाय किए। प्रत्येक मन्त्र में ऋषि, देवता, छन्द और स्वर का विधान किया गया। अष्ट विकृतियों अर्थात्‌ एक मन्त्र का आठ प्रकार से पाठ करने की प्रणाली चालू की गई और उनमें किसी-किसी पाठ के तो आगे 25 भेद हैं। फिर वेदमन्त्रों के अध्यात्म, अधिदैवत, अधिभूत से तीन-तीन अर्थ होते हैं। वेदार्थ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में सभी लिंगों एवं विभक्तियों का उल्लेख नहीं मिलता। निरुक्त के अनुसार वेदार्थ के लिए ऋषि, तपस्वी एवं विद्वान होना आवश्यक है। उसका राग और द्वेष तथा पक्षपात से रहित होना भी अपेक्षित है।




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