वैदिक विचार
यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि "यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्" यह गीता का वचन है । इसका अभिप्राय यह है कि जो जो विद्या और धर्म प्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने द्विष के तुल्य और पश्चात्, अमृत के सदृश होते हैं । ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है । श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें । इसमें यह अभिप्राय भी रखा गया है कि जो जो सब मतों में सत्य सत्य बातें हैं , वे-वे सब में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो जो मत मतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उन का खण्डन किया गया है । इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मत मतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान-अविद्वान सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सब से सब का विचार होकर परस्पर प्रेमी होके एक सत्य मतस्थ होवें ।
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका से उद्धृत
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