उपदेश_शिक्षा किसे देवें ,चाणक्य नीति
साभार -चाणक्य नीति दर्पण
भाष्यकार -स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
उपदेश_शिक्षा किसे
देवें।,
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तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ॥३॥
शब्दार्थ-अहम मैं लोकानाम् मानवमात्र की हितकाम्यया कल्याण की कामना से, लोगों के भले के लिए तत उस 'राजनीतिसमुच्चयः' का सम्प्रवक्ष्यामि सम्मक, ठीक-ठोक प्रवचन करूंगा, येन जिसके ,विज्ञानमात्रण ज्ञानमात्र से मनुष्य सर्वज्ञत्वम् सर्वज्ञता को रखते प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ -मैं लोगों के मङ्गल की इच्छा से उन राजनीतिसमुच्चर का वर्णन करूंगा, जिसको जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है
विमर्श-सर्वज्ञ का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्यत् को जाता हो जाना अथवा सारे लोक-लोकान्तरों का ज्ञान प्राप्त हो जाना या सब-कुछ जानने में समर्थ हो जाना अभिप्रेत नहीं है सर्वज्ञ का अर्थ केवल इतना है कि उत्ते धर्म, अर्थ और काम का ज्ञान हो जाता है
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रोभरणन ३।
'दुःखितः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यसोदति ॥४
शब्दार्थ-मूर्खशिष्य-उपदेशेन मूर्ख बुद्धिहीन शिष्य को पहले से अथवा धर्मसम्बधी उपदेश करने से व और दुष्टात्रोभरणेत, - भिचारिणी, कट, कर्कश सौर कबोर बोलनेवाली स्त्रोका पालन-पोषण करने सेदुःखितः नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित, प्रियजनों के वियोग अथवा धननाश आदि के कारण दुःखित लोगों के साथ जखयोगेण व्यवहार करने से पण्डितः पण्डित, बुद्धिमान् मनुष्य अपि भो सरसोदति दुःखी होता है. कष्ट उठाता है
भावार्थ-मुर्खशिष्य को पढ़ाने से, दुष्टस्त्रो का भरण-पोषण करने से और दुःखीजनों के साथ व्यवहार करने से बुद्धिमान मनुष्य भी दुःख उठाता है।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।
पयः पानं भुजंगानों केवलं विषवर्धनम् ।। - पञ्चतन्त्र १३२०
उपदेश से मूर्ख कुपित्त ही होते हैं, शान्त नहीं होते । सो को दुश पिलाने से उनका विष ही बढ़ता है।
सीख वाको दोजिए जाको सोख सुहाय
सीख न दीजै बांदरा घर बया को जाय॥
किसी ने मूर्ख के पांच चिह्नों में दूसरे की बात को न मानने' का भी उल्लेख किया है
मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्यो दुर्वचनं तथा
हठश्चैव विषादश्च परोक्तं नैव मन्यते
मूर्ख मनुष्य के पाँच चिह्न होते हैं यथा-(१) अभिमानी होना(२) कटु-कठोर बोलना, गाली प्रदान करना, (३) हठी, अड़ियल होना(४) दुःखी होना और (५) दूसरे की कही हुई बात को न मानना
दुष्टस्त्री-व्यभिचारिणी नारी का भरण-पोषण भी ठीक नहीं
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥ -पञ्चतन्त्र ४१५३
-पञ्चतन्त्र ४१५३ जिसके घर में माता न हो और स्त्री अप्रियवादिनी दुराचारिणी , उसे वन में चले जाना चाहिए, क्योंकि उसके लिए घर और वन समान ही हैं।
दुःखितों, रोगियों, पीड़ितों, शोक-सन्तप्तों के साथ व्यवहार हा से भी कष्ट तो होगा ही। वैद्य 'परदुःखेन दुःख्यते' दूसरे के दुःख दु:खी होता है, अत: दु:खियों के साथ व्यवहार रखने स दुःखी होगाय व्यवहार रखने से पण्डित भी दुःखी होगा
साभार -चाणक्य नीति दर्पण
भाष्यकार -स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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