स्वार्थमय-संसार

 



 


 



स्वार्थमय-संसार


महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नि मैत्रेयी को यह उपदेश कितने सुन्दर शब्दों में दिया हे 


न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति।
आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति।।1।।
अर्थ―अरे मैत्रेयी ! निश्चय पति की कामना के लिए पत्नी को पति प्रिय नहीं होता, किन्तु अपनी कामना के लिए पति प्रिय होता है।।1।।


न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवति।
आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति।।2।।
अर्थ―निश्चय भार्या (पत्नी) की कामना के लिए पति को भार्या प्रिय नहीं होती, किन्तु अपनी कामना के लिये ही भार्या प्रिय होती है।।2।।


न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति।
आत्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति।।3।।
अर्थ―निश्चय पुत्रों की कामना के लिए (माता-पिता को) पुत्र प्रिय नहीं होते, किन्तु अपनी कामना के लिए ही पुत्र प्रिय होते हैं।।3।।


न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति।
आत्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।।4।।
अर्थ―निश्चय धन की कामना के लिए (मनुष्य को) धन प्रिय नहीं होता, किन्तु अपनी कामना के लिए धन प्रिय होता है।


न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति।
आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।।5।।
अर्थ―निश्चय सबकी कामना के लिए (मनुष्य को) सब प्रिय नहीं होते, किन्तु अपनी कामना के लिए ही सब कोई प्रिय होते हैं।।5।।


इस सम्पूर्ण उपदेश का सार यही है कि समस्त प्राणी-अप्राणी केवल अपनी ही कामना के लिए मनुष्य को प्रिय होते हैं। यदि मनुष्य में किसी प्रकार से यह स्थिति आ जाय कि वह अपने सम्बन्धियों, स्त्री-पुत्रादिक के साथ जो उसने कामना जोड़ी हुई है, उसे पृथक कर लेवें, तो क्या उस समय भी मनुष्य को किसी मृत्यु का दुःख हो सकता है? इसका निश्चित उत्तर यही है कि फिर दुःख कैसा? दुःख तो सारा स्वार्थ-हानि ही का होता है। यदि वियुक्त (जो मर गया) और अवशिष्ट (जो है) दोनों के बीच में स्वार्थ का सम्बन्ध न हो, तो बड़े अंशों में मृत्यु क्लेशित नहीं कर सकती। जगत् में प्रतिदिन सहस्रों मनुष्य उत्पन्न होते और मरते हैं। परन्तु हमें न उनके पैदा होने का हर्ष होता और न उनके मरने का शोक ! क्यों हर्ष और शोक नहीं होता? कारण स्पष्ट है कि उनकी उत्पत्ति के साथ हम अपने स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं जोड़ते, इसलिए उनके जन्म का हमें कुछ भी हर्ष नहीं होता और चूंकि उनके जीवनों के साथ भी हमारा स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता, इसलिए उनके जीवनों की समाप्ति (मृत्यु) का भी हमें कुछ शोक नहीं होता। इसी प्रकार अति वृद्ध एवं रोगी दादा-दादी एवं अन्य किसी गुरुजन की मृत्यु पर शोक तो क्या प्रायः लोग हर्ष मानते हैं। और तो और स्वार्थ के वश पुत्र द्वारा पिता, पति द्वारा पत्नी या पत्नी द्वारा पति की हत्या की घटनायें भी देखने, सुनने और पढ़ने में आती हैं। निष्कर्ष यह है कि मृत्यु-शोक का बड़ा कारण है, स्वार्थ।



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