पुस्तक योगामृत से
आयु चाहे एक दिन की शेष रहे, स्वाध्याय और सत्संग को न छोड़ें।
परोपकार करते रहना मानव-धर्म है इसे वृद्धावस्था में भी न छोड़ें।
जो विद्वान, ज्ञानी, शीलवान, तपस्वी नहीं और न कहीं दान करता है।
वह मनुष्य होकर भी मृग की तरह जंगलों में घूमा करता है।
और अंधकार भरे मृत्यु लोक में पृथ्वी पर भार बनकर रहता है।
जो-जो पढाया या प्रवचन दिया, उस-उसको साक्षात् अपनाना होता है।
उसे अपने आचरण में ढ़ालकर, उन्नत आत्मा वाला बनना होता है।
जिसने सही विद्या पाई है, सारे ऐश्वर्य उसके चरणों में रहते हैं।
सर्वोच्च दान विद्या दान है, ऋषि-मुनि: उपदेशों में यही कहते हैं।
आश्रमों में रहने वाले वेदों के ज्ञाता भी अविद्वान ही रहते हैं।
वे ढ़ोंगी बाबा विषयों और भोगों के ही चक्कर काटतेे रहते हैं।
ऐसे ढोंगियों की ऐडी से चोटी तक शरीर से दुर्गंध ही निकला करती है।
ऐसे भ्रमजाल में फंसे व्यक्ति को मुक्ति नहीं मिला करती है।
महर्षि देव दयानंद के पास झोपड़ा भी नहीं था, किन्तु नाम अमर रहेगा।
आत्मिक शक्ति से, महर्षि का सम्मान आज भी है और कल भी रहेगा।
श्रेष्ठ पुरुष दुष्टों के, दुष्ट कर्म नहीं अपनाते हैं।
स्वयं बदले में, मूर्खतापूर्ण व्यवहार नहीं करते हैं।
उत्तम चरित्र के बल पर, पुरूष संत हो जाता है।
जब चित्त में बसे मिथ्याज्ञान का ज्ञान हो जाता है।
तब दोष नष्ट होकर मनुष्य युंजान हो जाता है।
साधना के अभ्यास से कर्म में लिपायमान नहीं होता है।
कर्म से निवृत्त होते ही योगी का पुनर्जन्म नहीं होता है।
योगीजन, योग की क्रियाओं को सही-सही जानकार अपना लेते हैं।
वे पाँचों क्लेशों को दग्ध बीज की तरह शक्तिहीन कर देते हैं।।
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