मीमांसा-
मीमांसा-
शास्त्र में कर्मों का वर्णन है। ये कर्म ऐहिक एवं पारलौकिक फलों के उत्पादक हैं। सामाजिक अथवा मानवीय दृष्टि से यह कर्म यज्ञा-अनुष्ठान रूप हैं और मानव के एवं प्राणिमात्र के अभ्युदय तथा सुख-सुविधा व अनुकूलता का साधन समझा जाता है। गहन शास्त्रीय दृष्टि से विचारने से प्रतीत होता है, यह कर्म समस्त विश्व में अनुस्यूत हैं; उस कर्म व क्रिया को प्रतीक रूप में प्राणी के अभ्युदय के लिए प्रस्तुत शास्त्र में संकलित किया गया। इससे पूर्व भी यह सब अनुष्ठान ऋषियों द्वारा बोधित मानव समाज में क्रमानुक्रमपूर्वक चले आते हैं। सृष्टि-रचना में इनके अनुषक्त होने की भावना शास्त्र द्वारा अनेक प्रकार से प्रकट हो गई है। इस रूप में जगत्स्त्रष्टा की भावना को उपनिषद् यह कहकर प्रकट करते हैं-
"आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्,
नान्यत् किञ्चन भिषत्।
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।
स इमांल्लोका नष्टजत।"
[ऐतरेय उपनिषद्, प्रारम्भिक भाग]
सर्ग से पूर्व एक आत्मा ही था; अन्य कोई पदार्थ व्यापार या क्रिया करता हुआ न था। क्योंकि तब यह समस्त विश्व अपने मूल उपादान कारण में लीन था। उस ब्रह्म रूप आत्मा ने ईक्षण किया- मैं लोकों का निर्माण करूँ। उसने इन सब लोकों को बनाया। उसी को अन्यत्र 'स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च' कहा है। उस जगत्स्त्रष्टा में अनन्त ज्ञान, बल, क्रिया सम्भव है। वह उपादान तत्त्वों को अपनी अनन्त शक्ति से ज्ञानपूर्वक प्रेरित कर जगत् की रचना करता है। परमात्मा के 'प्रेरणा रूप, कर्म अथवा क्रिया के प्रतीक रूप में मीमांसा शास्त्र द्वारा यज्ञादि कर्म का वर्णन किया गया है।'
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