महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की शिष्टता व निर्भयता

 



 


 


महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की शिष्टता व निर्भयता


कर्णवास में कर्ण सिंह बड़े गुर्जर क्षत्रीय थे व जमीदार रईस थे, महर्षि दयानन्द जी को प्रमाण करके बोले कि हम कहां बैठे? स्वामी जी ने कहा कि जहां आपकी इच्छा है। कर्ण सिंह घमण्ड से बोले जहां आप बैठे हैं हम तो वहां बैठेंगे। एक ओर हटकर स्वामी जी बोले आइए बैठिये। उसने स्वामी जी से पूछा आप गंगा को मानते हैं। उन्होंने उत्तर दिया गंगा जितनी है उतनी मानते हैं, वह कितनी है। फिर कहा हम संन्यासियों के लिए कमण्डल भर है। कर्ण सिंह गंगा स्तुति में कुछ श्लोक पढ़ता है। स्वामी जी ने कहा यह तुम्हारी गप्प, भ्रम है। यह तो जल है इससे मोक्ष नहीं होता, मोक्ष तो सत्य कर्मों से होता है। फिर कर्ण सिंह बोले हमारे यहां रामलीला होती है, वहां चलिए। स्वामी जी ने कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचते हो। यदि कोई तुम्हारे महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचे तो कैसा लगेगा। उसके ललाट पर चक्रांकित का तिलक देखकर कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो, तूने अपने माथे पर भिखारियों का तिलक क्यों लगाया है और भुजाएं क्यों दुग्ध की हैं? कर्ण सिंह बोले यह हमारा परम मत है यदि तुमने खण्डन किया तो हम बुरी तरह पेश आयेंगे। किन्तु स्वामी जी शान्त मन से खण्डन करते रहे। फिर कर्ण सिंह को क्रोध आ गया। उसने म्यान से तलवार निकाल ली। स्वामी जी ने निर्भीकता से कहा यदि सत्य कहने से सिर कटता है तो काट लो, यदि लड़ना है तो राजाओं से लड़ो, शास्त्रार्थ करना है तो अपने गुरु रंगाचार्य को बुलाओ और प्रतिज्ञा लिख लो यदि हम हार गये तो अपना वेद मत छोड़ देंगे। कर्ण सिंह ने कहा उनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। स्वामी जी बोले रंगा स्वामी की मेरे सामने क्या गति है। क्रोधित कर्ण सिंह स्वामी जी को गाली देता रहा किन्तु स्वामी जी हंसते रहे। कर्ण सिंह ने तलवार चलाई, स्वामी जी ने तलवार छीन ली और कहा चाहूं तो तेरे शरीर में घुसा दूं और तलवार टेककर दो टुकड़े कर दिए और शान्त रहे। शिष्यों ने रिपोर्ट लिखने को कहा किन्तु स्वामी जी ने उसको माफ कर दिया और पूर्ववत् शान्त होकर उपदेश करने लगे।


 


 


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