माता भूमि, पुत्र मैं उसका,
माता भूमि: पुत्रो$हम् पृथिव्या:।।-अथर्ववेद
माता भूमि, पुत्र मैं उसका,
रक्षा करना मेरा धर्म।
पला बढ़ा जिसकी गोदी में
करता रहूँ बस सेवा कर्म।
अन्न और जल उससे पाते,
गन्धवती गुण शास्त्र कहें।
क्षमा शीलता धृति धरित्री,
कविजन उपमा उसकी धरें।
हिमालय विश्व का वक्षस्थल,
उस आर्यावर्त के वासी हम।
शस्य श्यामला हरी भरी,
स्तन प्रयाग और काशी शम।
ढोती भार चरण रज लेती,
बड़े प्रेम से गोद खिलाती।
उछलो कूदो कितना उस पर,
पर न कभी गुस्सा दिखलाती।
हां मन्युवती वह हो अवश्य,
जब अनाचार अति आचार बढ़े।
दोहन शोषण से बिलख उठे,
ज्वारभाटे आदि ला बहुत लड़े।
यदि माता इसको कहते हो तो,
नमन तुम्हें करना होगा।
इसकी रक्षा और समृद्धि,
हेतु विमल बढ़ना होगा।
कर यज्ञ धरा को महकाओ,
लगा वृक्ष वक्ष को करो पल्लवित।
जब शयन करो तब लाओ ध्यान में,
उठो भोर तब छुओ चरण नित।।
-आचार्या विमलेश बंसल आर्या
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