कुण्डलिनी शक्ति क्या है
कुण्डलिनी शक्ति क्या है
मिथ्या धारणा: नाभि से दो अंगुल नीचे एक सर्प आठ अवगुण्ठन मारे, सुषुम्ना का मुख अवरुद्ध किये, सुषुप्ति दशा में स्थित है, इसे स्थूल कुण्डलिनी कहते हैं। मूलाधार में साढे-तीन अवगुण्ठन मारे, सर्प के समान कुण्डलाकृत, सुषुम्ना को आवेष्ठित कर उसका मुख रोके रहता है, इसे ही सूक्ष्म कुण्डलिनी कहते हैं। इनके जागने से योगी वैभव सम्पन्न हो जाता है।
यथार्थ धारणा:
परमात्मा की श्रवण-शक्ति से वायु तथा प्राण की उत्पत्ति हुई है। शरीर के अन्दर की वायु को प्राण कहते हैं। वायु स्थूल होता है, प्राण सूक्ष्म होता है। प्राण वृत्ताकार रूप से गतिशील (circular motion) है, इसीलिए प्राण को स्थूल कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। वाह्यवृत्ति प्राणायाम के नियमित अभ्यास से प्राणों पर अधिकार कर पूर्व मार्ग (बङ्कनाल मार्ग) से प्राणोत्थान करना प्राणरूपी "स्थूल कुण्डलिनी शक्ति" का जागरण है. इस समय योगी को अपने अन्दर रजत वर्ण के अलौकिक दिव्य आभामण्डल(supernatural Silver colour Light) का दर्शन होता है जो अग्नि का ही एक रूपान्तरण विद्युत् (Electricity) है। इसे इन्द्र, अशनि, रूद्र आदि नामों से भी जाना जाता है। विद्युत् प्रकाशमय, गतिशील तथा सूक्ष्म है। वृत्त्मयी (circular motion) होने के कारण विद्युत् को सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। विद्युत् तथा प्राण समस्त शरीर में व्यापक हैं। आभ्यान्तरवृत्ति प्राणायाम के नियमित अभ्यास से पश्चिम मार्ग (मेरुदण्डस्थ मार्ग= Spinal Cord) से प्राणोत्थान पूर्वक विद्युत् शक्ति का साक्षात्कार ही "सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति" का जागरण है। इस समय योगी को अपने अन्दर स्वर्ण-वर्ण के अलौकिक दिव्य प्रभामण्डल (supernatural Golden colour Light)का दर्शन होता है।
अष्टचक्र वास्तव में क्या होता है?
योग पर सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने 8 चक्र, 3 बन्ध और मुद्राओं का कहीं उल्लेख नहीं किया है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने "जीवनचरित" (Autobiograp) में तथाकथित मूलाधार,स्वाधिष्ठान आदि 8 चक्रों का खण्डन किया है, और इन चक्रों को मिथ्या बताया है। आश्चर्य की बात है, कि इन तथाकथित चक्रों में से 8वाँ चक्र शरीर के अन्दर नहीं है।
अथर्ववेद के दशम काण्ड के द्वितीय सूक्त के 31वें मन्त्र से 8 चक्रों की कल्पना की गई है। मन्त्र का देवता (Subject) ब्रह्म-प्रकाशनम् है, अर्थात् ब्रह्मस्वरुप बृहद प्रकृति का वर्णन।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या तस्यां हिरण्य:कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृत्तः
अर्थात् 8 चक्र (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, सत्, रज, तम) के संघातचक्र से रचित, 9 द्वारों (2 आँख, 2 कान, 2 नासाछिद्र, 1 मुख, 1 मूत्रमार्ग, 1 मलमार्ग) से युक्त यह अविजित शरीर, इन्द्रियरूपी (5 Senses)
देवताओं का नगर है। इसमें स्वर्गिक प्रकाश से आपूरित आनन्दमयकोष है।
नोट - सांख्यदर्शन के "अष्टौ प्रकृतौ" के अनुसार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, सत्, रज, तम रूपी प्रकृति अष्टधा है। इन आठों के चक्ररूप संघात से शरीर की रचना हुई है।
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