कठोपनिषद्
कठोपनिषद्
नैनद् देवाः आप्नुवन् पूर्वमर्षत् ॥ (यजु० ४०।४) । यस्यात्मा शरीरम् ॥ (बृहदारण्यकोपनिषद्) अर्थात् परमात्मा का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है । वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक भाव से रहता है ।
३. “कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदयदेश है; जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और उसके बीच में जो शक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है । दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान या मार्ग नहीं है ।” (ऋ० भू० मुक्तिविषयः) सर्वाश्चैता वृत्तयः सुखदुःखमोहात्मिकाः । सुखदुःखाश्च क्लेशेषु व्याख्येयाः । सुखानुशयी रागः। दुःखानुशयी द्वेषः । मोहः पुनरविद्येति। एताः सर्वा वृत्तयो निरोद्धव्याः ॥ (योग० पाद १ । सू० ११ व्यासभाष्यम्) अर्थात् ये सब वृत्तियां सुख-दुःख मोहरूप हैं और सुख-दुःख क्लेशों में कहे जाते हैं । सुख के पीछे रहने वाला राग है, दुःख के पीछे रहने वाला द्वेष है और मोह अविद्या है । ये सारी वृत्तियां निरोध करने योग्य हैं।
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