एकलव्य का “अंगूठा”,

 



 


 


 


 


एकलव्य का “अंगूठा”,,,,,,,,अपनी अपनी व्याख्या 


“एकलव्य” को कौन नहीं जानता? हिन्दू जनमानस के अंत:स्तल में अशेष स्थान है उनका। निस्सन्देह, वे श्रेष्ठ योद्धा और गुरुभक्त थे। किन्तु उनकी “गुरुभक्ति” और “गुरुदक्षिणा” की कहानियों को पुनः इस लेख में लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं लगती।


अतः, मैं विमर्श के उस बिंदु पर आता हूँ, जिन्हें बड़ी चतुराई से छुपा लिया गया है।


महाभारत में “एकलव्य” नायक नहीं थे, सहनायक भी नहीं। किन्तु वे ऐसे पात्र थे, जिन्हें मुख्य नायक “अर्जुन” के समक्ष प्रतिनायक के समरूप खड़ा कर दिया जाता है।


वे ऐसे “प्रतिनायक” थे, जो “खलनायक” बनते बनते रह गया!


एक ऐसा पात्र, जिसे आचार्य द्रोण ने “दूसरा” कर्ण बनने से सुरक्षित किया।


“कर्ण” होना एक भीषण दुर्घटना है, जो किसी के भी साथ घट सकती है।


“एकलव्य” मगध के निवासी थे। मगध की आदिवासी जाति “निषाद” के सामंत “हिरण्यधनु” के पुत्र। “हिरण्यधनु” अपने समग्र कबीले सहित “मगध” के राजा “जरासंध” को समर्पित थे।


वर्तमान देशकालपात्र की भाषा में कहें : “श्री “हिरण्यधनु” मगध के “निषाद” रेजिमेंट के सेना-नायक थे।”


कालांतर में, जब “एकलव्य” युवा होते, तो वे भी आर्यावर्त की परंपरा अनुसार अपने पिता के स्थान को ग्रहण करते।


उक्त सभी सूचनाएँ आचार्य द्रोण के पास थीं। अतः उन्होंने प्रथम भेंट में ही “एकलव्य” को धनुर्विद्या का दान देने से “ना” कह दिया।


और इसी बात पर उनकी आलोचना की जाती है। क्यों भई, क्यों?


अब भला कोई मुझे ये बताये, कि “हस्तिनापुर” के प्रबल शत्रु राज्य “मगध” के भावी सेना-नायक को “हस्तिनापुर” का गुरु क्यों शिक्षा दे?


ये ठीक वैसे ही है, जैसे आज के समय “पाकिस्तान” का कोई युवा, भारत के कमांडो ट्रेनिंग सेंटर में सीखने की इच्छा करे और भारत इनकार कर दे।


ठीक यही बात गुरु द्रोण ने विचारी। महाभारत में लिखा है : 


“शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया”।
(अंतिम शब्द को कुछ यूँ पढ़ें : “धर्मज्ञ: तेषाम् एव अन्ववेक्षया।”)


श्लोक का अर्थ है : “आचार्य ने “कौरवों” के परिप्रेक्ष्य में विचार कर एकलव्य को “धनुर्विद्या” का शिष्य नहीं बनाया।”


यहां ध्यान दें, आचार्य ने उसे “धनुर्विद्या” का शिष्य बनाने से मना किया, “शिष्य” बनाने से नहीं। ये उनकी सहृदयता थी और आर्यावर्त के सैन्य-ग्रन्थ “धनुर्वेद” की रीति भी।


आइये, “धनुर्वेद” का वर्ण-सिद्धांत देखें!,,,,,,,


“धनुर्वेद” कहता है : “शस्त्र उठा कर समाज की रक्षा करना क्षत्रियों का कार्य है।”


किन्तु “धनुर्वेद” किसी भी स्थिति में, अन्य जातियों हेतु “शस्त्र” का निषेध नहीं करता। अक्सर टीवी सीरियल्स में ये निषेध प्रदर्शित किया जाता है।


बल्कि, सत्य कुछ और है। इसके पार्श्व में “धनुर्वेद” में शिष्य चुनने की दो विधियां हैं।


(पहली विधि) : जब गुरु के सम्मुख उपास्थित सभी शिष्य “क्षत्रिय” हों। तो एक “परीक्षा” ली जाए और प्राप्तांक के अनुसार चार श्रेणी निर्मित हों : “क”, “ख”, “ग” और “घ”।


सभी विद्यार्थी सभी शस्त्र सीखेंगे, किन्तु श्रेणी के अनुसार उनका मुख्य शस्त्र निश्चित किया जाएगा।


यथा :
“क” के लिए “धनुष”।
“ख” के लिये “भाला”।
“ग” के लिए “तलवार”।
और “घ” के लिए “गदा”।


(दूसरी विधि) : जब सम्मुख उपस्थित शिष्यों में सभी वर्णों के बालक हों। तब भी उन्हें समस्त शस्त्रों की शिक्षा दी जाए। किन्तु उनका मुख्य शस्त्र उनका वर्ण निश्चित करेगा।


यथा : ब्राह्मण हेतु धनुष, वैश्य हेतु भाला, क्षत्रिय हेतु तलवार और शूद्र हेतु गदा। (यही कारण है कि “क्षत्रिय” सदैव “तलवार” से ही चिन्हित किये जाते हैं।)


अब पुनः कथा पर लौटें, आचार्य ने “एकलव्य” को धनुर्विद्या का शिष्य बनाने से “ना” कह दिया।


किन्तु “धनुर्वेद” के इन्हीं सूत्रों में अनुसार, आचार्य द्रोण ने “एकलव्य” का “गदा” शिक्षा का शिष्य बनने का अवसर दिया, किन्तु उसने अस्वीकार कर दिया।


“मगध” के भावी सेना-नायक को अपना गदा-शिष्य बनाने की गुरुता भी, कोई श्रेष्ठ गुरु ही दिखा सकता है। किन्तु दुर्भाग्य थे "एकलव्य" के, जो गुरुद्रोण के गदा-शिष्य न बन सके!


“कर्ण” भी आचार्य के गुरुकुल में “गदा” के विद्यार्थी थे, जो कालांतर में परशुराम जी से “धनुष” का ज्ञान लेने हेतु स्वयं को ब्राह्मण कहने का दुस्साहस कर बैठे!


[ कर्ण के द्रोण-शिष्यत्व को देखने हेतु महाभारत के आदिपर्व का सम्भपर्व देखें, एक सौ इकतीसवां अध्याय। ]


कालांतर में, एक श्वान के बाणों से भरे मुख से आचार्य रहस्य को जान गए, कि उस बालक ने शिक्षा के साथ चौर्यकर्म किया है, गुरुकुल की भित्तियों के पार्श्व में छिपकर विद्या प्राप्त की है!


किन्तु फिर भी उन्होंने “एकलव्य” को जीवनदान देकर छोड़ दिया। केवल उसका दाहिने हाथ का अंगूठा लिया!


“धनुर्वेद” कहता है : “बाण को तर्जनी और मध्यमा के मध्य, दोनों उँगलियों की मध्य अस्थि से दबाएं। यही बाण संधान की श्रेष्ठ विधि है।”


अर्थात् “अंगूठे” का कोई महत्त्व है नहीं धनुर्विद्या में! इसी कारण जब “अंगूठा” देकर “एकलव्य” जाने लगे, तो आचार्य में इशारे से उन्हें समझा दिया कि अब दोनों उँगलियों से ही बाण संधान किया जाता है, वत्स!


अंगूठे के बिना धनुर्धरी '(मेडिटरेनीयन बो ड्रा') प्रयोग करता है द्रोणाचार्य द्वारा अंगूठा माँगना एकलव्य के हित में भी कहा जा सकता है!
[ Mediterranean Bow Draw and Release Method -- Best method for accurate and consistent shots.]


कितना सहृदय था वो आचार्य। (देखें : महाभारत के आदिपर्व का सम्भपर्व, एक सौ इकतीसवां अध्याय।)


तो आचार्य ने “अंगूठा” ही क्यों माँगा?


इसके पार्श्व में वैदिककाल की “एक्यूप्रेशर” चिकित्सा है। “अंगूठे” को “मस्तक” का प्रतीक माना जाता है।


वैसी स्थिति, जब आप पराजित बंदी शत्रु का वध न करना चाहते हों, किन्तु दंड भी देना चाहते हों तो प्रतीकात्मक रूप से उसका “मस्तक” (अंगूठा) काट लेना भी दंड ही है!


प्राच्य काल में ऐसे अंगूठा-रहित मनुष्यों को सदा सर्वदा के लिए पराजित होने का भार लेकर ही जीना होता था, समाज में तिरस्कृत होकर!


शत्रु का “अंगूठा” काट कर छोड़ देने की परंपरा प्राच्य यहूदियों में भी बहुधा पायी जाती है।


इसी बिना पर श्री दिलीप सी० मंडल, ब्राह्मणों को “यहूदी” कहते हैं। 


अब आप स्वयं सोचें। शत्रु-राज्य के सैनिक को वर्षों तक किये गए “गौप्तचर्य” हेतु क्या दंड मिलना चाहिए?


उदाहरण के लिए आप पकिस्तान के एक सैनिक को “उरी ट्रेनिंग सेंटर” में छिपकर गूढ़ विषय जानने के एवज में क्या सजा देंगे? यदि अब भी आपकी संवेदनाएं गुप्तचर “सैनिक” के साथ हैं, तो आप देशद्रोही हैं!


इति नमस्कारान्ते।


 


 


arya samaj indore sanchar nager indore m.p. 9977987777/9977957777


arya vivhaapp /aryavivha.com 


arya samaj marigge /love marigge/intercast marigge /


sarwajaytiy parichay sammelan


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।