एकलव्य का अंगूठा--भाग दो 

 


 


 


 


 


एकलव्य का अंगूठा--भाग दो 


 



 


 


जबसे महाभारत सीरियल प्रारम्भ हुआ है धार्मिक चर्चाएं भी बढ़ गयी हैं। कुछ  कह रहे हैं गरीब एकलव्य बेचारा, पहले द्रोणाचार्य ने अंगूठा माँगा और महाभारत युद्ध के ठीक पहले श्रीकृष्ण ने उसे ठोंक दिया.... बेचारा ...बेचारा ..बेचारा। अधर्मी श्रीकृष्ण।


इतिहास को वामपंथी ही नहीं सनातन और राष्ट्रवाद का खोल ओढ़े जातिवादी लोग भी विकृत कर रहे हैं।


 आखिर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसका अंगूठा क्यों माँगा ?


उत्तर -   महाभारत धारावाहिक से,,,,,,


 *  कर्ण के व्यंग्य का उत्तर देते हुए द्रोण कहते हैं  -  उस अंगूठे में मुझे हस्तिनापुर की ओर चलने वाले वाणों के अंकुर दिखाई दे रहे थे , धनुर्धर ।


 *  अगले धारावाहिक में ही अश्वत्थामा के पूछे जाने पर वे कहते हैं  -  एकलव्य से मैंने उसका अंगूठा इसलिए नहीं लिया था , क्योंकि वह ऊँची जाति का नहीं था । विद्या पर किसी जाति का अधिकार नहीं है और न ही हम किसी के लिए विद्या का द्वार बंद कर सकते हैं । एकलव्य से उसका अंगूठा मैंने इसलिए लिया था कि उसने विद्या ली नहीं थी , उसने विद्या चुराई थी ; इसलिए उस विद्या पर उसका कोई अधिकार नहीं था । यदि वह कोई ब्राह्मण या क्षत्रिय भी रहा होता , तब भी मैंने उसका अंगूठा मांग लिया होता ।


  * धृष्ट एकलव्य हस्तिनापुर को काटने के लिए हस्तिनापुर से ही तलवार माँग रहा था । यदि कोई सम्राट्  द्रोण के स्थान पर होता , तो सहृदयता दिखाते हुए कम से कम उसका हाथ तो अवश्य कटवा लेता ।


आगे चलें,,,,अब एक उदाहरण इन दिनों बहुत घुमाया जा रहा है कि एकलव्य का अंगूठा द्रोण ने इसलिये कटवाया क्योंकि एकलव्य मगध का नागरिक था और मगध हस्तिनापुर का शत्रु राज्य था।


ऐसे प्रमाणशून्य तर्क देकर सिर्फ और सिर्फ जातीय अहंकार और एक घृणास्पद घटना का महिमामंडन कर हिंदुत्व के विभिन्न वर्गों के बीच वैमनस्य ही पैदा किया जा सकता है।


सर्वप्रथम यह स्पष्ट हो कि द्रोण मूलतः कोई दुष्ट या खल चरित्र नहीं बल्कि एक पुण्यात्मा थे वरना न तो उन्हें सभा में कृष्ण के दिव्य स्वरूप के दर्शन होते और न वे अपने अंत समय में निर्विकल्प समाधि हेतु एकाग्र हो पाते।


जो लोग धृष्ठतापूर्वक एकलव्य के मगध निवासी होने का तर्क दे रहे हैं उन्हें उनकी इस मूर्खतापुर्ण या कुटिलतापूर्ण स्थापना के बारे में तीन सत्य बता दूँ-


1) पूर्वी निषाद जाति अयोध्या के अंतर्गत थी लेकिन चूंकि एकलव्य का निजी विद्वेष स्वयं को त्यागे जाने के कारण यादवों के प्रति था अतः 'दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त' के सिद्धांत पर चलकर उसने मगध के जरासंध को अपनी सेवायें दीं क्योंकि वह कंस की मृत्यु के बाद यादवों का दुश्मन बन चुका था।


2) मगध और हस्तिनापुर में कोई शत्रुता नहीं थी। हो भी नहीं सकती थी क्योंकि सिंहासन पर बैठा धृतराष्ट्र पांडवों के यादवों से निकट संबंध के कारण यादवों को अपने लिये खतरा मानता था।


हस्तिनापुर के कुरुओं व काम्पिल्य के पांचालों में पीढ़ीगत दुश्मनी थी और इसीलिए मगध, पांचाल व हस्तिनापुर के त्रिकोण में मगध न तो किसी का मित्र था और न शत्रु।


3) सबसे मुख्य बात कि मगध व हस्तिनापुर में शत्रुता का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन महाभारत में हस्तिनापुर व पांचाल की पीढ़ीगत शत्रुता का उल्लेख है और द्रोण द्रुपद से अपमानित होकर हस्तिनापुर आये ही इसीलिये थे, तो महाभारत के ज्ञानी ये बतायें  कि ऐसे भयंकर शत्रु नरेश द्रुपद के बेटे धृष्टद्युम्न को द्रोणाचार्य ने शिक्षा क्योंकर दी? 
( महाभारत में धृष्टद्युम्न व द्रौपदी की अग्निकुंड से उत्पत्ति व धृष्टद्युम्न की शिक्षा संबंधी श्लोक पढ़ें)


तो मित्रों इतिहास के अनुशीलन के लिये सिर्फ दो चीजों की जरूरत होती है एक पूर्वाग्रह विशेषतः जातिवादी पूर्वाग्रह के त्याग की और द्वितीय तथ्यों व प्रमाणों के संदर्भ में तटस्थ निर्ममता की।


 वास्तविकता यह है कि एकलव्य जरासंघ की सेना में शामिल हो गया था क्योंकि उसके पिता निषादराज भी जरासंघ की सेना में सेनापति के पद पर थे। जरासंघ की सेना में आते ही एकलव्य यदुवंशियों का दुश्मन बन गया और बड़ी संख्या में यदुवंशियों का संहार किया। यह देखकर श्रीकृष्ण बड़े दुखी हुए और वैसे भी सम्राट जरासंघ कृष्ण का सबसे बड़ा शत्रु था और बेहद अत्याचारी, क्रूर और महत्वाकांक्षी था।


कृष्ण को अपने कुल, धर्म और समाज की रक्षा के लिए मजबूर होकर एकलव्य का वध करना पड़ा था।


कृष्ण ने भी एकलव्य के साथ उचित व्यवहार किया था।


 


 


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