एकलव्य का अंगूठा--भाग चार 

 


 


                                                 


 


 


एकलव्य का अंगूठा--भाग चार 


महाभारत में अश्वत्थामा के प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु द्रोणाचार्य कहते हैं कि उन्होंने एकलव्य से अंगूठा इसलिये कटवा दिया कि वो विद्या की चोरी कर रहा था। 


आधुनिक स्वच्छंदतावाद के नशे में चूर सतही लोगों को इस स्पष्टीकरण से संतुष्टि होना संभव नहीं है। 
यहाँ विडम्बना यह है कि जिनके चित्त संशयवाद में डूबे हुए हैं वे प्रश्न उठा रहे हैं और प्रश्न उठाने का ढंग उत्तर देने जैसा है। 
वामपंथियों के गधे कथित राष्ट्रवादी समुदाय में भी कम नहीं हैं।


हम बौद्धिक गुंडों की जमात द्वारा प्रदत्त स्लाइड, अर्थात वैचारिक ढाँचे में कैद हुए अपनी संस्कृति पर विमर्श को अभिशप्त हैं। 


गीता में भी शिष्य होने के लक्षण बताए गए हैं जो उपनिषदों से आए हैं,,,,


"साष्टांग प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया... " 


अर्थात तुम उन तत्वदर्शी ऋषि मुनियों के समक्ष समर्पित भाव से जाओ और उनकी सेवा द्वारा उन्हें संतुष्ट करके अपनी जिज्ञासा प्रकट करो। 


कठोपनिषद् कहता है,


 "उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत, 
क्षुररस्य धारा निशिता दुरत्यया। 
दुर्गम पथस्तत् कवयो वदन्ति।।"


अर्थात उठो, जागो और उस तत्व को जानो जो श्रेष्ठ महापुरुषों ने परमतत्व बताया है। कवियों ने उसका पथ कटार की नोक पर चलने के समान दुर्गम कहा है। 


आज गुरु द्रोणाचार्य को गाली देना फैशन हो गया है और जिनमें प्रश्न करने की भी योग्यता नहीं है वो मूढ़ उत्तर थोप रहे हैं। 
शिष्यत्व अर्जित किया जाता है चुराया नहीं जाता। 


यदि एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास जाता और अपनी निष्ठा प्रकट कर कहता कि वो उनकी मूर्ति से ही शिक्षा ले लेगा तो कहानी कुछ और होती। गुरु द्रोणाचार्य उसे हस्तिनापुर के पक्ष में रहने के लिए वचनबद्ध भी कर सकते थे। 


यहाँ प्रश्न विद्या की चोरी का है। यदि गुरु नहीं चाहता है तो जबरन गले पड़कर या चुपके से उसका ज्ञान चुराने पर कोई कल्याण नहीं होता है। 


शिष्य होने के लिए बहुत आत्मबल चाहिए। यदि अपनी समस्त धारणाओं को तिलांजलि देकर गुरु के सामने नग्न निर्दोष कोरे खड़े हो सकते हैं तो संभव है गुरुत्व का आश्रय मिले। 


कर्ण और एकलव्य दोनों ही गुरुजनों के प्रज्ञापराधी बने इस कारण दोनों ही विद्या से वंचित किये गए। एकलव्य या कर्ण के मन में पाप नहीं था पर अपने स्वार्थ के आगे गुरु की मर्यादा का भान नहीं रहा था उन्हें।


ये सर्वकालिक सत्य है कि प्रेम और साधना पात्रता से ही फलित होता है। हर जगह अपनी हेकड़ी और चतुराई नहीं चलती। 


यह शिष्यत्व के सूत्र का मैंने सदैव पालन किया है


 


 


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