ईश्वरीय ज्ञान(वेदवाणी) का स्वरूप

 


 



 


 


ईश्वरीय ज्ञान(वेदवाणी) का स्वरूप


      सर्गारम्भ में परमपिता परमात्मा ने जीवों के कल्याणार्थ जहाँ अनेकविध पदार्थों की रचना की, पृथिवी-जल-तेज-वायु आदि पदार्थों का निर्माण किया, लोह-ताम्र-रजत-सुवर्णादि धातु तथा वृक्ष-औषधि-वनस्पति लता-गुल्म-मूल-पुष्प-फलादि, गुहा-वन-पर्वतादि, मेघ स्रोत-नदी-समुद्रादि, अन्य असंख्य पदार्थ संसार में उत्पन्न किये, मनुष्य-पशु-पक्षी आदि के शरीरों की रचना की, अर्थात् समस्त स्थावर-जङ्गम जगत् का निर्माण किया, वहां उस सर्वज्ञ-सर्वान्तर्यामी सर्वनियन्ता जगदीश्वर ने जीवों के अभ्युदय और निःश्रेयसार्थ संसार में समस्त कार्यकलाप के निर्वाहार्थ उपयुक्त सब पदार्थों से यथावत् लाभ प्राप्त करने के निमित्त परमानुकम्पा से ज्ञान का भी प्रकाश किया। जिससे मनुष्य अपने जीवन को सफल कर सकें। इसी ईश्वरीयज्ञान को समस्त प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं शास्त्रों की परिभाषा में 'वेद' कहा जाता है। 


      इस ईश्वरीय ज्ञान का स्वरूप कैसा होता है, वा कैसा होना चाहिये इस विषय में स्वयं वेद ही बतलाता है 


🔥बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः। 
यदेषां श्रेष्ठं यदरिषमासीत प्रेणा तर्देषां निहितं गुहाविः॥
ऋ० १०।७१।१


      भावार्थ:-हे विद्वन् ! सृष्टि के आदि में समस्त वाणियों की मूल रूप, (सृष्टिगत पदार्थों के) नामों को धारण करनेवाली, जिस वाणी को (विद्वान् लोग) उच्चारण करते हैं, जो इन सब से श्रेष्ठ और दोष शून्य होती है, वह वाणी (ऋषियों की) गुहा (बुद्धि) में धारण की हुई (ईश्वर की) प्रेरणा से प्रकाशित होती है। 


      इस मन्त्र से निम्न सात बातों के लिये वेद का प्रमाण मिल जाता है, दूसरे शब्दों में इस मन्त्र में ईश्वरीयज्ञान की सात विशेषतायें वा कसौटियाँ वर्णित हैं 


▪️(१) वेद सृष्टि के आदि में होनेवाली वाणी हो, इसलिये मन्त्र में कहा "प्रथमम्"। 


▪️(२) इस समय संसार में जितनी मानववाणियाँ हैं, उन सबका आदि-स्रोत अर्थात् मूल हो। वेदवाणी से ही सब भाषायें निकली हैं। वेदवाणी का भी मूल 'ओ३म्' (परमेश्वर) है, इसलिये कहा “वाचो अग्रम्"। 


▪️(३) जो सृष्टि के समस्त पदार्थों का नाम धारण करती हो। आदि सृष्टि में जब पदार्थों के नाम रखने की आवश्यकता होती है, तब यह वाणी सहायक होती है। इससे ही सृष्टि के पदार्थों की संज्ञा तथा शब्दार्थ का निर्धारण होता है, इसलिये कहा "नामधेयं दधानाः"। 


▪️(४) जो सर्वश्रेष्ठ बड़ी विस्तृत और विशाल हो, केवल मानवबुद्धि में आनेवाले व्याकरण के संकुचित नियमों में बन्धी हुई न हो, उससे कहीं परे, दिव्यरूप (जिसका प्रवाह नैसर्गिक हो) में उपस्थित हो, इस लिये कहा "श्रेष्ठम्"। 


▪️(५) जो दोषरहित हो, सब संसार के लिये एकसी, किसी देश विशेष की भाषा में न हो, इसलिये कहा "अरिप्रम्"। 


▪️(६) जो गुहा (बुद्धि) में निहित हो, अतः कहा “निहितं गुहा०"। 


▪️(७) जो अनेक जन्म-जन्मान्तरों में परमात्मा से प्रेम करते हैं, उनके द्वारा भगवान् की प्रेरणा से प्रकाशित होती है, उनकी बनाई नहीं, इस लिये कहा "प्रेणा आविः"। 


ये सब कसौटियाँ वेद पर ही सर्वाशेन चरितार्थ होती हैं । किं च - 


🔥यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् ॥ 
(ऋ० १०।७१।३) 


      भावार्थ:- सृष्टि के आदि में यज्ञ अर्थात् परमात्मा के द्वारा वाणी की प्राप्ति के योग्य हुये ऋषियों में प्रविष्ट हुई वेदवाणी को मनुष्य पीछे प्राप्त करते हैं, अर्थात् वेदवाणी का प्रकाश सृष्टि के आदि में पहिले ऋषियों के अन्तःकरण में परमात्मा प्रकाशित करता है । 


      इन दोनों मन्त्रों से स्पष्ट है कि ईश्वरीय ज्ञान कैसा होना चाहिये, ये सब बातें वेद में ही चरितार्थ होती हैं। 


      सर्गारम्भ में सूर्य के प्रकाश की भाँति, पूर्वसृष्टि के समान वेदज्ञान का प्रकाश हुआ । प्रलय के पश्चात् अमैथुनी सृष्टि के प्रारम्भ में युवा अर्थात् प्रौढ़ युगल (जोड़े) उत्पन्न हुये, क्योंकि माता पिता की सत्ता तो थी नहीं। सुप्तप्रबुद्धन्याय से कार्यजगत् की प्रलयावस्था में जिन-जिन स्थिति में देहधारी अपने कारण में लीन हुये, उसी-उसी अवस्था में उन का सब खेल पुनः वैसा का वैसा चल पड़ा। जीव अपने पूर्ववर्ती कर्मों तथा संस्कारों के अनुरूप ही शरीर, बुद्धि आदि से युक्त होते हुये कार्यों में प्रवृत्त[🔥रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा प्रवस्तात् प्रयति: परस्तात्॥ (ऋ० १०।१२९।५)  रेतोधा:- कर्म से युक्त । महिमानः = मुक्त ] हुये । उस समय के मनुष्यवर्ग में सब से उत्कृष्ट, श्रेष्ठ, विमलमेधा, ग्रहण तथा धारण में समर्थ चार ऋषियों[१] ने प्रभु के वेदज्ञान को साकल्येन हृदय में धारण किया। जिनके नाम अग्नि-वायु-आदित्य अङ्गिरा (शतपथ तैत्तिरीयानुसार) वैदिक साहित्य में प्रसिद्ध हैं। उनके हृदय में वेद का समस्त ज्ञान नित्य नियतानुपूर्वी द्वारा आदि से अन्त तक एक ही साथ अर्थात् युगपत्[२] अक्रमारूढ़ दे दिया। अत: इसमें कितना[यदि ऋषिदयानन्द के पूना के १५ व्याख्यानों की रिपोर्ट, जो मराठी में छपी थी, वह, तथा उससे किया गया अनुवाद ठीक हो तो वहाँ ऐसा लिखा है "ऐसी व्यवस्था आदि सृष्टि में पाँच वर्ष चलती रही।” उपदेशमंजरी प्रथम संस्करण पृ०६२] समय लगा, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि काल[🔥क्षणस्तु वस्तुपतित: क्रमावलम्बी। क्रमश्च क्षणानन्तर्यात्मा। तं काल विदः काल इत्याचक्षते योगिनः॥ योग-भाष्य ३।५२] का व्यवहार अनित्यों में होता है । जहाँ क्रम होगा, वहाँ काल होगा। परमात्मा का आदिज्ञान एकरस है । पद,[🔥गौरिति शब्दः, गौरित्यर्थः, गौरिति ज्ञानम् ॥ योगभाष्य ३।१७] पदार्थ, गायत्र्यादि छन्द तथा मन्त्रादि के विभाग का ज्ञान इस वेदज्ञान में ही निहित था। 



१. (i) एवं वाऽऽरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस: ॥ शत० १।१५।४।१० 


(प्रश्न) यहां पर इतना और विचारणीय है कि इस उद्धृतांश से आगे भी शतपथ ब्राह्मण में इतना पाठ और है - 🔥"इतिहास: पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका: सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यान न्यस्यशैतानि सर्वाणि निःश्वसितानि"। इतने अंश से यह विदित होता है कि शतपथकार उपनिषद् आदि को भी ईश्वर-प्रणीत मानते हैं। 


(उत्तर) (ii) शब्द दो प्रकार का है, नित्य और अनित्य । सब का स्रोत तो वेद है। ऋग्, यजुः, साम और अथर्व तो सीधे ब्रह्म से नि:श्वसित हैं। शेष ऋषियों द्वारा, अर्थात् परम्परा सम्बन्ध से हैं। जब वेद स्वयं ऋग, यजु:, साम, अथर्व को यज्ञरूप ब्रह्म से प्रादुर्भूत मानता है, तो परतःप्रमाण शतपथ उपनिषदादि को ब्रह्मनिःश्वसित कैसे कह सकता है। अत: उपर्युक्त रीति से ही इस स्थल का अभिप्राय समझना चाहिये। यहाँ इतना और भी ध्यान देना चाहिये कि जब प्रारम्भ में 'निःश्वसितम्' इतना पद पा चुका तो पुन: 'नि:श्वसितानि' पद की आवश्यकता ही क्यों पड़ी। दोनों निःश्वसितों का परस्पर भेद है, इसीलिये ॥ 
उपनिषदादि परम्परा से हैं। यह बात ऋषिदयानन्द ने अपने भ्रमोच्छेदन (शताब्दी सं०) पृ० ८५३ पं० ७, ८ में लिखी है, जो इस प्रकार है 
"एनं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य विभोः परमेश्वरस्य साक्षाद् वा परम्परासम्ब न्धादेतत् सर्व वक्ष्यमाणमनेकवाक्यवाच्यं नि:श्वसितमस्तीति" ॥ . 
(iii) अग्नेऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेद: सूर्यात् सामवेदः । शत० ११।५।९।३
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । 
दुदोह यज्ञ सिध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥ मनु० १।२३


२. युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ॥ न्याय० १।१।१६
यह नियम सर्वसाधारण का है, समाधिस्थ लोगों के लिये शास्त्र कहता है कि उनको अक्रमारूढ युगपज्ज्ञान होता है 'सर्वज्ञातृत्वं सर्वात्मनां गुणानां शास्त्रोदिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन व्यवस्थितानामक्रमोपारूढं विवेकजं ज्ञानमित्यर्थः॥ योगभाष्य ३।४९


      अन्य सब लोक-लोकान्तरों में भी इसी वेदज्ञान को वह जगदीश्वर सदैव प्रदान करता है। जितना भी नैमित्तिक ज्ञान विश्व में वर्तमान है, वह सब उस परमपिता परमात्मा के इस वेदज्ञान[🔥चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिध्यति ॥ मनु० १२।६७॥] द्वारा ही प्रवृत्त होता है। आकृतियों में भेद होते हुये भी उत्पत्तिप्रकार में कोई भेद नहीं होता। मनुष्य जहाँ-जहाँ होगा, वहाँ-वहाँ इसका प्रकाश अवश्य होगा, चाहे किसी प्रकार भी हो।


      यह है वैदिकर्मियों की धारणा वेद के सम्बन्ध में, जो परम्परा द्वारा प्राप्त हो रही है। जिसे समस्त ऋषि-मुनियों की धारणा होने से, वर्तमान युग के महापुरुष, परमयोगी, महर्षि दयानन्द ने स्वीकार किया और अपने ग्रन्थों में जिसका प्रतिपादन किया तथा उसी धारणा को लेकर वेद का भाष्य किया, जिसके विवरण की भूमिका आज हम सहृदय पाठकों की सेवा में उपस्थित कर रहे हैं। 


लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 
प्रस्तुति -  ‘अवत्सार’


 


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