भारत के सन्दर्भ में यीशु और ईसाईयत

 


 


 


भारत के सन्दर्भ में यीशु और ईसाईयत


ईसाईयत और उसके प्रमुख सिद्धान्तों, जैसे कि आदम और हव्वा द्वारा मूल पाप, मसीहा की अवधारणा, शाश्वत पाप से मुक्ति, मसीहा के रूप में यीशु ख्रिस्त (ईसा / येशु / जीसस / Jesus Christ) का जन्म लेना, मनुष्यों के पाप मोचन के लिए उसका बलिदान, कब्र में से उसका पुन: जीवित हो उठना, स्वर्गारोहण, दूसरा आगमन, ईश्वर के राज्य की स्थापना, मुक्ति के लिए केवल यीशु में विश्वास का आग्रह, स्वर्ग और नर्क, चमत्कार, आदि का मुख्य आधार “बाईबल” है। बाईबल मुख्यत: दो भागों में विभाजित है – पुराना करार (Old Testament) और नया करार (New Testament)। एक ईसाई की दृष्टि में बाईबल ईश्वरीय वाणी (Word of God) या ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया (Inspired Word of God) ग्रन्थ है, जिसमें मानव जीवन के समग्र व्यवहारों और मुक्ति के लिए सम्पूर्ण मार्गदर्शन दिया गया है। 


नये करार (New Testament) की प्रथम चार पुस्तकें, जिसे सुसमाचार (Gospels) कहा जाता है, यीशु ख्रिस्त के जीवन व कार्यों को जानने के लिए प्रमुख वरन् एकमात्र स्रोत है। (यह आश्चर्य की बात है कि उस समय के रोमन, ग्रीक, मिस्री या यहूदी इतिहासकारों ने परमेश्वर के इस इकलौते पुत्र यीशु के चमत्कारिक जन्म, उसके प्रारम्भिक जीवन, उसके सार्वजनिक जीवन, उसके चमत्कार, उसकी शिक्षाओं, उसके दावों, उस पर चला मुकदमा, उसके बलिदान, कब्र में से उसका पुन: जीवित हो उठना, अंत में उसके स्वर्गारोहण, आदि उनके जीवन के महत्वपूर्ण पडावों पर एक पेरेग्राफ या शब्द तक नहीं लिखा है!! यहूदी इतिहासकार फ्लेवियस जोसेफस आदि कुछ इतिहासकारों के लेखन में यीशु विषयक जो दो चार संकेत मिलते है वे भी प्रारम्भिक ईसाई फाधर्स द्वारा बाद में प्रक्षेपित फ्रॉड सिद्ध हो चुके है।) 


पश्चिम में जब ईसाईयत की सत्ता और शक्ति चरमसीमा पर थी, तब उस काल के इतिहास के पृष्ठ ईसाईयत (चर्च) के क्रूर व काले कारनामों से भरे पडे है। भारत ने भी ईसाईयत के इस क्रूर स्वरूप को गोवा में धर्म-अदालत (inquisition) के दौरान नजदिक से देखा है।


समय बितने पर ईसाईयत से त्रस्त योरोप और अमरिका में १८-१९वीं शताब्दी में वोल्तेयर, निकोलस बोलान्गर, जॉन हिट्टेल, चार्ल्स केटल, ज्योर्ज इंग्लिश, ऑस्टिन होलीओक,  थॉमस पैन, थॉमस जैफरसन, एथान एलन, थॉमस स्कॉट, कारलाईल, जोह्न रेम्सबर्ग, जोह्न केल्सो, मेंगसरीयन,  चार्ल्स ब्रेडला, जोसेफ वेलस, जोसेफ बार्कर, जोसेफ लूईस, चार्ल्स वॉट्स, जोसेफ मेककेब, रोबर्टसन, बेंजामिन ओफ्फन, कर्सी ग्रेव्स, विलियम डेन्टन, रोबर्ट कूपर, हेन्री राईट, एलिसाबेथ स्टेन्टन, एनी बेसन्ट, फ्रेडरीक मे, एडवर्ड क्लोड, प्रो. न्यूमेन, ईवान पोवेल मेरेडीथ, स्ट्रॉस, जोह्न क्लर्क, बेनट, रोबर्ट ग्रीन इन्गरसॉल, मार्शल गउवीन, फूट, गिब्बन आदि एक से बढकर एक मुक्त विचारक और चिन्तक पैदा होते गए, जिन्होनें विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बाईबल, ईसाईयत और यीशु के जीवन व शिक्षाओं को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसकर समीक्षात्मक पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की। इन्ही लेखकों, मुक्त विचारकों, दार्शनिकों और चिन्तकों के पुरुषार्थ के कारण पश्चिम में नवजागरण (Renaissance) और तर्क के युग (Age of Reason) का सूर्योदय हुआ।


आज योरोप और अमरिका में कई पिढीयों से लोगों का ईसाईयत व चर्च से मोहभंग हो चूका है। पश्चिमी जगत के ज्यादातर प्रबुद्ध लोगों ने अब यीशु को कबाड-कचरा और ईसाईयत को अंधविश्वास का पुलिंदा समझकर फेंक दिया है, लेकिन भारत में आर्यसमाज के विद्वानों, राम स्वरूप, सीताराम गोयल, अरुण शौरी, आदि विद्वानों और कुछ स्वतन्त्र लेखकों के लेखन के कुछ अपवादों को छोडकर बाईबल, ईसाईयत के सिद्धांत, इतिहास व क्रियाकलाप, और यीशु के जीवन व शिक्षाओं पर समीक्षात्मक लेखन नहिवत् हुआ है, और इन विषयों पर हिन्दू समाज में व्याप्त अज्ञानता का यही एक मुख्य कारण है।


डॉ. कॉनराड एल्स्ट का कहना है कि भारत में आज ऐसी दुःखद और हास्यास्पद परिस्थिति का निर्माण हो गया है जिसमें एक ओर ईसाईयत की जिस मान्यताओं और सिद्धान्तों को पश्चिम कब से त्याग चूका उसी ईसाईयत को आज उसके इतिहास और मूल चरित्र से अनभिज्ञ भारतीय समाज के खास तबकों पर थोपा जा रहा है। दूसरी ओर, खुद तथाकथित हिन्दू धर्मध्वजीयों और सर्व-धर्म-समभाववादी सेकुलरवादीयों द्वारा इस विस्तारवादी विचारधारा ईसाईयत को एक “धर्म” के रूप में और यीशु को एक “देवता” के रूप में स्वीकृति दी जा रही है! इससे अतिरिक्त, कुछ अतिउत्साही लोग यीशु के जीवन के प्रारम्भिक अज्ञात वर्षों को भारत की योग और अध्यात्म परम्पराओं के साथ जोडकर येनकेन प्रकारेण यीशु का ‘भारतीयकरण’ करने का प्रयास कर रहे है! इसलिए इस तथ्य से  आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सनातन धर्म और उच्चतम अध्यात्म की भूमि भारतवर्ष में ईसाई मिशनरीयों को अपने प्रोडक्ट्स – बाईबल और यीशु – बेचने के लिए आज भी बाजार मिल रहा है! यीशु के प्रति हिन्दूओं के इस मूर्खतापूर्ण लगाव को इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल जी हिन्दूओं की एक कमजोरी के रूप में देखते थे। उनका कहना था कि हिन्दूओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर ही कई ईसाई लेखक अपने लेखन के माध्यम से यीशु को हिन्दू धर्म में बलात् घुसेडने को प्रोत्साहित हुए है, जबकि वास्तविकता यह है कि यीशु ख्रिस्त और भारत (सनातन धर्म) के मध्य दूर दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है; हिन्दू पुनर्जागरण के किसी भी पुरोधा ने यीशु को “ख्रिस्त – क्राईस्ट” (मसीहा) के रूप में स्वीकार नहीं किया था, और न ही यीशु, यदि दो सहस्त्र वर्ष पूर्व उसका कोई वास्तविक अस्तित्व था, ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान देने के लिए कभी भारत आया था।


भारत के इस विचित्र परिदृश्य को लक्ष में रखकर इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक “Jesus Christ: An Artifice for Aggression” (पृ. 82) में लिखा है कि “स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बाईबल का अध्ययन कर यीशु की असलियत लोगों के सामने रख दी थी, लेकिन दुर्भाग्य से उसके बाद आने वाले हिन्दू नेताओं ने स्वामी दयानन्द के उदाहरण का अनुसरण नहीं किया!” अर्थात् बाईबल, ईसाईयत के सिद्धांत, इतिहास व क्रियाकलाप, और यीशु के जीवन व शिक्षाओं का गहन अध्ययन कर उस पर समीक्षात्मक लेखन कर हिन्दू समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को दूर करने का महत्वपूर्ण कार्य करना अभी शेष है। 


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