शुक्रनीति

 


 


 


 


 



 


शुक्रनीति


   इन्द्रियजय की आवश्यकता का निर्देश-


     प्रकीर्णविषयारण्ये धावन्तम् विप्रमाथिनम्।
     ज्ञानांकुशेन कुर्वीत् वशमिन्द्रियदन्तिनम्।।


राजा को चाहिए कि विषय रुपी महावन में दौड़ते हुए इन्द्रियरुपी हाथी को ज्ञान रुपी अंकुश से अपने वश में करे अर्थात्   जितेन्द्रिय बने।


        भोगेरोगभयम् - सीमित मात्रा में भोग हुए दसों इन्द्रियों को वश मे रखे अधिक भोग से रोग होते है।



      विषयामिषलोभेन मन: प्रेरयतीन्द्रियम्।
      तन्निरुन्ध्यात् प्रयत्नेन जिते तस्मिञ्जितेन्द्रिय:।।


 मनरुपी व्याध विषयरुपी मांस के लोभ से इन्द्रियों को प्रेरित करता है, अत: इस मन को प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिए।
 इस मन के जीतने पर मनुष्य जितेन्द्रिय हो जाता है।



     एकस्यैव हि योअशक्तो मनस: सन्निबर्हण।
     महीं सागरपर्यन्ताम् स कथम् ह्यवजष्यति।।


जो राजा अकेले मन को भली-भांति जीतने में असमर्थ है, तो भला वह समुद्र- पर्यन्त पृथिवी को जीतने में कैसे समर्थ हो सकता है?


      क्रियावसानविरसैविषयैरपहारिभि:।
      गच्छत्याक्षिप्तह्रदय: करीव नृपतिर्ग्रहम्।।


   भोग के अंत में प्रीति का विषय न रह जानेवाले , मन को आकृष्ट करने वाले विषयों से आकृष्टचित्त होकर हाथी की भांति राजा बन्धन में पड़ जाता है।
   भाव यह है कि राजा को मनोहारी परन्तु परिणाम में दु:खद एवम् नीरस विषयों में नहीं फंसना चाहिए।


    शब्द: स्पर्शश्च रुपम् च रसो गन्धश्च पञ्चम:।
    एकैकस्त्वलमेतेषाम् विनाशप्रतिपत्तये।।


  श्रवणेन्द्रिय (कान)का भोग्य विषय शब्द,
  हस्त का स्पर्श
  आंख का रुप
  जीभ का रस
  नासिका का गंध
  इनमें से एक एक विषय भी मनुष्य के विनाश के लिए पर्याप्त है।
  जो मनुष्य पांचों विषयों में फंसा हुआ है उसके विनाश में तो संदेह ही क्या




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