विचार संजीवनी
विचार संजीवनी ![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEingHkTVaXZOZcnsajrb-55gp4tbcSn09BY02GNSZeO_gr6mFDqs-aZAkQP6DqpndXkSvgwOoszLYLBA8UZ8gMEHtwzLWfpZmzaxpKmsSpetE1CLoeDpfbHc7J2VRGzRVxMV9qsVUbEFoo/)
भोगों की प्राप्ति चाहना पतन का रास्ता है परमात्मा की प्राप्ति चाहना उत्थान का रास्ता है । दोनों रास्ते अलग-अलग हैं । अगर परमात्मा की प्राप्ति चाहते हो तो भोगों की इच्छा को मिटाओ। कम-से-कम, कम-से-कम, कम-से-कम इतना भाव तो होना ही चाहिए कि भोगों की इच्छा को मिटाना है । भोग और संग्रह में लगा हुआ मनुष्य 'मुझे परमात्मा की प्राप्ति करनी है'-- यह निश्चय भी नहीं कर सकता ! जिनका उद्देश्य परमात्मा प्राप्ति का है, उनको भी सुख भोग की इच्छा ही बाधा देती है।
भोग रागपूर्वक ही भोगे जाते हैं। राग के बिना भोग नहीं भोगे जाते फिर राग के रहते हुए परमात्मा में अनुराग कैसे होगा ?
अगर भोगों की इच्छा सर्वथा मिट जाए तो साधक नहीं रहेगा, सिद्ध हो जाएगा। साधक तभी तक है जब तक भोगों की इच्छा है। भगवान की इच्छा मुख्य होगी तो साधन करने से जरूर लाभ होगा । वह ज्यों-ज्यों साधन करेगा त्यों-त्यों उसको पहले की अपेक्षा भोगों का त्याग करने में सुगमता मालूम होगी। इसमें सबसे बढ़िया चीज सत्संग है । सत्संग में जो रस आता है उसमें भजन को तीव्र बनाने की विलक्षण शक्ति है। परन्तु ऐसा सत्संग मिलना बड़ा दुर्लभ है।