वेद मंत्र


 


अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।
-(ऋग्वेद ५/६०/५)


अर्थ:- परमात्मा कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।परमपिता परमेश्वर इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दे रहे हैं। इसके साथ साम्यवाद का भी स्थापन कर रहे हैं।
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अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में तो विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं। इन उपदेशों जैसा उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे। वेद उपदेश देता है-


सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः । अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।
-(अथर्व० ३/३०/१)


अर्थ:- हे मनुष्यों, मैं तुम्हें एक ह्रदयता,एक मन और निर्वेरता का उपदेश करता हूं। एक दूसरे को तुम सब और से प्रीति से रहो । जैसे न मारने योग्य गौ आपने उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है वैसे तुम भी सब जीवों से प्रेम करो


ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः ।अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ।। -(अथर्व० ३/३०/५)


अर्थ:-.बड़ों का मान रखने वाले,
उत्तम चित्त वाले,समृद्धि करते हुए और एक धुरा होकर चलते हुए तुम लोग अलग-अलग न होओ, और एक-दूसरे से मनोहर व मीठा बोलते हुए आओ। तुम साथ साथ गति वाले और एक मन वाले बनो
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सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-
(ऋग्वेद १०/१९१/२)


अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व विद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो।
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समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः ।समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।-(ऋ०१०/१९१/४)


अर्थ:-हे मनुष्यों ! तुम्हारे संकल्प समान हों,तुम्हारे ह्रदय परस्पर मिले हुए हों,तुम्हारे मन समान हों जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर रहो।
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एकता तभी हो सकती है जब मनुष्यों के मन एक हों। वेदमन्त्रों में इसी मानसिक एकता पर बल दिया गया है। संगठन का यह पाठ केवल भारतीयों के लिए ही नहीं,अपितु इस धरा के सभी मनुष्यों के लिए है।यदि संसार के लोग इस उपदेश को अपना लें तो उपर्युक्त सभी कारण जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य से अलग कर रखा है,वे सब दूर हो सकते हैं,संसार स्वर्ग के सदृश्य बन सकता है। वेद से ही विश्व शान्ति संभव है। संसार का कोई अन्य तथाकथित धर्म-ग्रन्थ इसकी तुल्यता नहीं कर सकता। वेद का सन्देश संकीर्णता, संकुचितता, पक्षपात, घृणा, जातीयता, प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता से कितना ऊंचा है।
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ते हि वस्वो वसवानास्ते अप्रमूरा महोभिः। व्रता रक्षन्ते विश्वाहा॥ ऋग्वेद १-९०-२।।


वे अर्थात दूसरों के कल्याण के लिए काम करने वाले विद्वान वास्तविक धन हैं।  वे समृद्धि के वितरक हैं।  वे अपने स्वयं के अनुशासन और जीवन के नियमों को स्वयं  संरक्षित करते हैं।  
(ऋग्वेद १-९०-२)


ते अस्मभ्यं शर्म यंसन्नमृता मर्त्येभ्यः। बाधमाना अप द्विषः॥ ऋग्वेद १-९०-३।।


हम उस अमरण, शक्ति और ज्ञान के स्वामी से प्रार्थना करते हैं, कि हम मरण जीवो का भी कल्याण करें। हमें भी सुख और समृद्धि प्रदान करें। हमारे द्वेष की भावना को समाप्त करें। 


परमात्मा का प्रवेश आपके जीवन में उस दिन होगा जिस दिनआपकी प्यास गहरी होगी।उसने आपको चारों ओर से घेरा है परंतु आपके लिए तब तक उपलब्ध नहीं है जब तक आप पात्रता हासिल नहीं कर लेते। तब तक वह आपके लिए गैर मौजूद है। तब तक वह सुनाई नहीं देगा। तब तक आपके लिए उसे देखना संभव नहीं है। तब तक उसका कोई स्पर्श नहीं होगा जब कि सब स्पर्श उसी के हैं सभी दर्शन उसी के हैअस्तित्व की सभी ध्वनियाँ उसी की हैं परन्तु उन्हें पहचानने के लिये गहन आतुरता और धैर्य चाहिए।


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