वेद अमृतवाणी


 


अरे ओ धरा के मानवों चेतनित हो जाओ, क्या अब भी कोई भ्रम शेष रह सकता है कि योगेश्वर कृष्ण जी के बाद महर्षि देव दयानन्द सरस्वती ही ऐसे महामानव हुए, जिन्होंने समस्त प्रकार के मान-अपमान, निंदा-स्तुति,यश-अपयश और सारी लोकेषणाओं की ज़रा भी परवाह न करते हुए एकमात्र मानव के शाश्वत कल्याण के लिए परमात्मा प्रदत्त वेदज्ञान को (शब्द-अर्थ-संबध)सहित प्रतिष्ठित किया।
बदले ईश्वर से प्रार्थना करते हुए यही मांगा---
हे ईश्वर! विश्व के समस्त मानव जात पात, छुआछूत,मत मतांतर और अविद्दिया से मुक्त हो कर-वैदिक धर्म और वेदज्ञान अनुगामी होंवें।
सब एक स्वर से पुकार उठें---
औ३म् सह नाववतु।सह नो भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहि।
तेजस्वि नावधीतमस्तु।मा विद्विषावहै।
सब की एक ही भावना हो----
हमारी साथ साथ
रक्षा हो-पालना हो-सामर्थ्य बढ़े
हमारा ज्ञान तेजस्वी हो
हम परस्पर कभी द्वेष न करें
हमें शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक शान्ति:(तेज)प्राप्त हो।


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