श्री पं. इन्द्रजी विद्यावाचस्पति

श्री पं. इन्द्रजी विद्यावाचस्पति


       माननीया ज्योत्स्ना जी ने पूज्य पं. इन्द्रजी पर एक छोटा सा लेख लिखने की जो प्रेरणा दी तो मेरा हृदय भाव विभोर हो गया। पं. इन्द्र जी आर्यसमाज तथा भारत के ही एक महान् और श्रेष्ठ लेखक नहीं हैं, वे विश्व के महान् साहित्यकारों की अग्रिम पंक्ति के एक यशस्वी लेखक थे। यदि वे पश्चिम में जन्मे होते अथवा किसी इस्लामी देश में जन्म लेते तो आज उनके नाम पर कई साहित्यिक संस्थान तथा विश्वविद्यालय स्थापित हुये होते, परन्तु इतिहास बोध से विहीन हिन्दू जाति ने मैक्समूलर, हरबर्ट स्पैन्सर, रोमाँ रोलाँ की माला तो बहुत फेरी, परन्तु श्री पं. इन्द्रजी के प्रति कृतज्ञता का प्रकाश करते हुये उनके व्यक्तित्व के अनुरूप क्या लिखा है?


       मैंने उनसे प्रेरणा पाकर बहुत कुछ लिखा है। उनकी चर्चा भी करता ही रहता हूँ, परन्तु उन पर जी भरकर तो क्या, एक पूरा लेख भी कभी नहीं लिख पाया। मान्य ज्योत्स्न्ना जी ने आज मेरा यह साहित्यिक उपवास तुड़वा कर मेरा कल्याण कर दिया है। भगवान् इनका भला करेंगे ही।


      कहाँ से आरम्भ करूँ?- मैंने पण्डितजी को बहुत पढ़ा है।उनके दर्शन भी किये। उनको सुना भी। उन पर लिखना कहाँ से आरम्भ करूँ? एक घटना याद आ गई।एक बार श्री क्षितीश जी ने अत्यन्त स्नेह से मुझसे पूछा, आप कई विषय लेकर (जैसे तड़प-झड़प में) छोटे-छोटे शीर्षक, उप शीर्षक देकर पाठकों की उत्सुकता जगा देते हैं। ये शीर्षक देना, कहाँ से, किससे सीखा? मैंने छूटते ही कहा, यह श्री महाशय कृष्ण जी से, पं. इन्द्रजी के एक सम्पादकीय का शीर्षक सुनाया तो वह झूम उठे। अंग्रेजों की किसी धमकी पर उनके सम्पादकीय का शीर्षक था-"लंगड़ा खूनी मैदान में"। लेखनी इस शीर्षक का मूल्याकन करने में अक्षम है। पं. इन्द्र जी बहुत मननशील थे। उनका चिन्तन बड़ा गहन थामैं यदा-कदा उनकी भावपूर्ण मार्मिक सूक्तियाँ उद्धृत करता रहता हूँ। उनकी लौह लेखनी व गंभीर ज्ञान का आप भी कुछ रसास्वादन कीजिए-1. वही ज्ञान सफल है, जो अच्छे कर्मों के कारण बने और वही कर्म कल्याणकारी है जो बुद्धिपूर्वक किया जाय। 2. ज्ञान के बना कर्म अन्धा है तो कर्म के बिना ज्ञान लंगड़ा-लूला है। 3. न सत्य का ज्ञान हो और न अच्छे कर्म हों, फिर भी केवल किसी देवता में भक्ति रखने से मोक्ष हो जायेगा, यह सिद्धान्त प्रमादियों को परितोष देने का साधन होसकता है, इसमें कोई सार नहीं है। 4. अज्ञानी और पापी सच्ची उपासना कर सके और उससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाय, यह केवल मन समझाने की बात है। 5. इस सृष्टि में जो चराचर पदार्थ हैं, ईश (ईश्वर) उन सब के बाहर और अन्दर व्याप्त है। यह वाक्य ज्ञान का सार और कर्म का आधार है। 6. पापियों को भी बुरा काम करने में भय, आशंका और लज्जा का अनुभव होता है, तभी तो अभियोग चलनेपर इंकारी हो जाते हैं और सफाई पेश करते हैं। 7. कोई जीवित मनुष्य क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। प्राकृतिक जगत् का संसर्ग उससे बरबस कर्म कराता है। 8. एक मनुष्य को जो कुछ प्रिय है, जिसे वह चाहता है और जिससे उसे सुख मिलता है, वह उसका धन है। 9. मनुष्य जीवन सत्कर्मोका फल है तो सत्कर्म करने का साधन भी है। उनकी सूझ विलक्षण थी। एक बार सार्वदेशिक सभा को किसी पुस्तक के प्रकाशनार्थ धन की आवश्यकता थी। इस हेतु (निधि में) धन नहीं था। कोषाध्यक्ष ला. नारायणदत्त जी अपने नियम के बड़े कड़े थे। वह लौटाने की शर्त पर भी किसी दूसरी निधि से उधार देने को तैयार नहीं थे। तब प्रधान पं. इन्द्र जी ने अपनी टिप्पणी से वातावरण ही बदल दिया। बोले, "लालाजी चाहें तो सुई की आँख से हाथी को निकाल दें और न चाहें तो हाथी के निकलने के द्वार से सुई न निकाल सकें।"


     महात्मा मुशीराम की दो जुड़वाँ सन्ताने-सन् 1888 में महात्मा मुंशीराम जी ने दो बड़े जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। इसी वर्ष 'सद्धर्म प्रचारक' का जन्म हुआ और इसी वर्ष पुत्ररत्न इन्द्रजी को जन्म देकर महात्मा जी अमर हो गये।


     इन्द्र जी क्या-क्या थे?-आप कवि थे,इतिहासकार, उपन्यासकार और पत्रकार थे। उच्चकोटि के गीतकार थे। दिल्ली में हिन्दी पत्रकारिता के जनक आप ही थे। गवेषक, लेखक तो थे ही। स्वाधीनता सेनानी थे। एक ही फेफड़ा था, फिर भी मुल्तान जैसी नारकीय जेल में भी देशहित में यातानायें सहीं। अत्यन्त संयमी व सहनशील थे। बिना क्लोरोफॉर्म सूंघे कूल्हे की हड्डी टूटने पर ऑपरेशन करवा कर लोहे का सरिया उसमें डलवा लिया। एक बार भी आह का शब्द मुख से न निकलाप्रबन्ध-पटु, मधुर वक्ता और सभा-संस्था चलाने में कुशल थे। शास्त्रार्थ महारथी भी रहे। विश्व के जाने-माने जीवनी लेखक, धर्म, दर्शन व नीति-ग्रन्थों के मर्मज्ञ थे। उनके पास प्रेरक संस्मरणों का अटूट भण्डार था। उन्हें अपने शैशवकाल (अबोध अवस्था के) बीसियों रोचक व प्रेरक प्रसंग ज्यों के त्यों याद थे।


    माता तो उनके शैशवकाल में चली गई। पिता श्री की (स्वामी श्रद्धानन्द जी की) बलिदान के घाट उतरने तक जी भरकर सेवा करते रहे। त्याग भावना पिता से बपौती में मिली। बिना सोचे दोनों भाईयों ने पैतृक सम्पदा दान करने के लिए पिता जी को सब अधिकार लिखकर दे दिये।


    आर्यसमाज में मेरे कहने पर भी किसी ने उनका सूक्ति संग्रह नहीं किया। आपके साहित्य में छोटे-छोटे वाक्य होने से असंख्य सूक्तियाँ निकलती हैं। किसी भी जीवनी लेखक ने आर्यसमाज में पं. इन्द्र जी से कुछ प्रेरणा पाने या सीखने के लिए कृतज्ञता का प्रकाश नहीं किया। इन पंक्तियों के लेखक ने तो कई ग्रन्थों के प्राक्थन में स्वयं को उनका ऋणी माना है। विश्व के सर्वहितकारी महान् विचारक, परोपकारी, देशोद्वारक, पं. इन्द्र जी की पुण्यतिथि पर हमारा शत्-शत् नमन!


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