सामयिक चिन्तन

सामयिक चिन्तन


वेदों और वैदिक धर्म में हैं साम्यवाद के मूल तत्व एवं आधुनिक साम्यवाद में हैं तोड़क तत्व


महर्षि दयानन्द सरस्वती ने पुनर्जागृत किया वैदिक साम्यवाद


       युग पुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संसार में साम्यवाद लाने के लिए जो उत्तम कार्य किया वह था संसार को वेदों के रूढ़ी अर्थों से हटाकर वेद मंत्रों के इतिहास परक अर्थों को नकार कर वेदों के ईश्वर परक अर्थों को बताया था।


       महर्षि दयानन्द जी ने कहा कि वेद ईश्वर की वाणी है और वैदिक शिक्षाऐं सृष्टिक्रम और वैज्ञानिक अनसार है, मान लो वेद एक जनरल मर्चेन्ट की दुकान है। वेदों के अन्दर सबके लिए ज्ञान मार्ग दशर्न भरा पड़ा हैचाहे वह ब्रहाचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी, सन्यासी और वैज्ञानिक हो सबके लिए उत्तम सामान भरा पड़ा है। जो इस दुकान का पता जानता है वह अपनी जरूरत की आवश्कता को प्राप्त कर लेता है।


       वेद और वैदिक धर्म सृष्टि के मानवों में साम्यवाद लाने का संविधान है- सृष्टि एक राज्य है और वेद उसका संविधान है, राज्य व्यवस्था में सृष्टि क्रमानुसार और विज्ञान के अनुसार संविधान होना आवश्यक हैअन्यथा राज्य के नियम और उद्देश्यों के अभाव में व्यवस्था भंग हो जाऐगी, और सात्विक व सामुदायिक व्यवस्था भंग होने से सबको कष्ट होता हैराज्य में साम्यवाद लाने के लिए वैदिक संविधान को मानना आवश्यक है। क्योंकि वेद ईश्वरीय राज्य व्यवस्था की संविधान का ग्रन्थ है। मानव नेतृत्व, राज्य व्यवस्थापक और जनसाध पारण तभी एक वैचारिक और एक संस्कारिक व्यवस्था में सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है।


      वैदिक धर्म का सूर्य जब तक भारत में चमकता रहा और शेष संसार भारतीय वैदिक व्यवस्था से शासित और अनुशासित होता रहा तब तक मनुष्य उन्नति करत हुए साम्यवाद के आत्मोन्नति के मार्ग पर चलता रहा, किन्तु जब विश्व की इस सामजिक व्यवस्था में घुन लग गया तो संसार स्वार्थ की डगर पर पथ भ्रष्ट होकर चल पड़ा और यहीं से मत, पंथ, और सम्प्रदाय और मजहबों का रास्ता खुल गया, जिसके कारण कालान्तर में भारत की यह साम्यवादी सामजिक व्यवस्था में 'इदन्नमम' की परहितकारी और परोपकारी वेदवाणी थी धूलित हो गयी।


वेदों में साम्यवाद


       सं गच्छहवं सं वदध्वं सं वो मंनासि जानताम्, देवा भागं यथा पूर्ते संजानाना उपासते(ऋग्वेद)


     अर्थात् प्रेम से मिलकर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो/पूर्वजों की भांति तुम कर्तव्य के मानी बनो//


समानो मन्त्रः समितिः समानी


समांन मनः सह चित्तमेषाम।


समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः


समानेन वो हविषा जुहोमि।।


(ऋ० वेद)


       अर्थात्- हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों। ज्ञान देता हूं बराबर भोग्य पा सब नेक हो।।


     वैदिक व्यवस्था में मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य सबको साथ लेकर चलने और ईश्वर की व्यवस्था पर चलकर मोक्षानंद को प्राप्त करना होता था। हम जिस गौरवपूर्ण वैदिक सांस्कृतिक विरासत के उत्तराधिकारी है उसमें समंता मूलक साम्यवाद समाज की संरचना के मूल में हमारे प्राचीन ऋषियों और महात्माओं ने जिस त्याग और समर्पण के मूलमंत्र को चुना जिसके आधार पर संसार में करोड़ो वर्षों तक साम्यवाद की सामाजिक व्यवस्था चलती रही। यही थे वैदिक धर्म के मूल तत्व।


      आत्मनः प्रतिकुलानि परेषां न समाचरेत- अर्थात् जो बात अपने लिए प्रतिकूल हो अथवा जो स्वंय को अच्छी न लगे उसे दूसरों के प्रति भी मत करो। अगर हम चाहते है दूसरे लोग हमारा सम्मान करें तो हम उसके प्रति अपमान का व्यवहार न करें। हमको यदि अपनी जान प्यारी है तो दूसरों की जान की भी कीमत समझेइसी प्रकार प्रत्येक खानपान, व्यवहार, व वैदिक आदर्शों पर चले व चलाऐं।


                ईश्वरीय धर्म व मनुष्यों द्वारा कथित धर्मों (मतों ) में अन्तर :-


      धर्म उसको कहते है जिसका कार्य व तत्व सदैव एक समान रहे इसलिए धर्म ईश्वर द्वारा बनाया गया है, और मत मनुष्यों द्वारा बनाये जाते है मतों की कोई उम्र नहीं होती है और धर्म सदैव एक समान रहता है वास्तव में जिसे लोगों द्वारा निर्मित मतो को धर्म कहते है उसमें प्रत्येक में भिन्नता है मतों में अपनी बुद्धि अनुसार नियम बनाए जाते हैं और ईश्वर द्वारा बनाया नियम सदैव बना रहता है और अपने स्वरूप और गुण कर्म को कभी नहीं बदलते है, जैसे आंख का देखना, कान का सुनना कभी परिवर्तन नहीं होता है, मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में वही प्रतिक्रिया होती है, उसी को ईश्वरीय धर्म कहते है और मनुश्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त के लिये वेदज्ञान भी दिया जो नित्य है। समझ आया ईष्वरीय नित्य धर्म को ही मान कर मानव जगत में साम्यवाद से सुख भान्ति प्राप्त हो सकती हैवेदानुसार ईष्वरीय तत्व व धर्म पर चलना ही साम्यवाद का मूल तत्व है।


मानव जगत में साम्यवाद के विघटन के मूल तत्व आधुनिक साम्यवाद


    महाभारत काल के कुछ सौ वर्षों पहले से ही दुनिया में मतों और मजहवों का तथा सामाजिक कुरूतियों का आना षुरू हो गया था, और जो अनादि काल से वैदिक व्यवस्था चल रही थी वह पूर्ण रूप से चरमरा गई। भारतीय साम्यवादी विचार धारा से अलग जाकर जिन लोगों ने मजहवी आइने से देखना प्रारम्भ कर दिया और अपने कथित मत मजहव के प्रचार के लिये खून की नदियां बहा दी और अपने स्वेच्छाचारी और निरकुंष शासन के जरिये इसलिए लाखों मनुष्यों का कत्लेआम करा दिया क्योंकि वह जनता उनके मजहवों को नहीं मानती थी। इस सोच ने षासन वर्ग व षासित वर्ग के भीतर बड़ी खाई उत्पन्न कर दीऔर षोशण व षोशित वर्ग दो भागों में बंट गया और वैदिक व्यवस्था समाप्त होने के पष्चात नई व्यवस्था आई और उस व्यवस्था में स्वहित का अधिक बोलबाला बन गया था जो आधुनिक साम्यवाद को लाने का एक आधार बनी ऐसी विचारधारा इतिहास को प्रभावित करने में असमर्थ रही, परिणामस्वरूप अधिंकाश जनता का व्यवहार ईर्ष्या, छल, कपट, द्वेष और भ्रष्ट्राचार का सघन रूप ले गयाऔर आज हम वैदिक साम्यवाद की कल्पना ही कर सकत है।


           महर्षि दयानन्द सरस्वती जी द्वारा वैदिक साम्यवाद लाने का स्वप्न :-


        महर्षि ने अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्याम विषय में लिखा कि स्वतन्य सिद्धांत अर्थात साम्रराज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये है और मानेगें भी, इसीलिए इसको सनातन नित्य : गर्म कहते है, कि जिसका विरोध कोई भी न हो सके, मैं अपना मन्तव्य उसी को मानता हूं, जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मनुष्य उसी को कहना है कि जो मननशील होकर स्वात्मवत अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझेजहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारी की बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे उसको कितना दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले जावें, परंतु मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक न होवें।


        महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने वैदिक साम्यवाद का संसार बनाने के लिए अपना अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का निर्माण किया, आश्चर्य होता है निर्भीक सन्यासी दयानंद जी ने उस सामंतशाही और परतंत्र पराधीन भारत में जिन विचारों की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था वह उन्होने जनता में रख कर एक नवीन किन्तु सत्य वैचारिक क्रांति का प्रारम्भ किया, जिसका परिणाम स्वरूप भविष्य में भारत आजाद हुआ और मतों मजहबों के ठेकेदारों की चूलें हिल गयी, महर्षि दयानंद जी अपने वैदिक साम्यवाद को लाने के लिए सदैव के लिए आर्य समाज संगठन की स्थापना कर गये।


        आर्य समाज निरन्तर वैदिक साम्यवाद का प्रचार प्रसार कर रहा है- आर्यसमाज अपनी स्थापना के १४२ वर्षों से सम्पूर्ण विश्व में धार्मिक व सामाजिक कुरूतियों के निवारण के लिए वैचारिक क्रांतिकारी कार्य कर रहा हैआज जो विश्व में धार्मिक व सामजिक विचारों में सुधार की क्रांति आ रही है वह सब आर्य समाज की देन है। आर्य समाज ईश्वरीय वाणी वैदिक धर्म द्वारा संसार में सर्वमुखी साम्यवाद लाने का कार्य कर रहा हैयह भी सत्य है संसार की जनसंख्या में अतिवृद्धि हो गयी है और आर्यसमाज के कार्यकर्ता सभी मनुष्यों तक नहीं पहुंच पा रहे है, किन्तु वैचारिक क्रांति की विचारधारा को अपने अपने आर्य समाजों के मंदिरों से वेदों की आज्ञाओं का शंखनाद करके सम्पूर्ण संसार में वेद ऋचाओं की स्थापना कर रहे है। और यह वैज्ञानिक सत्य है जो हम विचारव्यक्त करते है वह आकाश में जाते है।समाप्त नही होते है और समय पाकर अपना उचित स्थाप पर पहुंचते है। और आर्य समाज वैचारिक संगठन ही संसार में ईश्वरीय वाणी वेदों और वैदिक धर्म द्वारा सर्व सुखकारक साम्यवाद ला सकता है।


 


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