ऋषि स्मरण...

ऋषि स्मरण...


• काशी शास्त्रार्थ के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी स्वामी दयानंद जी के आत्मबल एवं सत्यता को स्वीकार करते थे ! •


• भक्तों की प्रशंसा में वह बल नहीं होता, जो बल विरोधी द्वारा की गई स्तुति माला में होता है •
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स्वामी वेदानंद जी तीर्थ आर्य समाज के विद्वान् एवं प्रसिद्ध संन्यासी थे। उन्होंने "ऋषि बोध कथा" नाम की एक सुंदर पुस्तक लिखी थी 
इस पुस्तक में स्वामी वेदानंद जी ने स्वामी दयानंद सरस्वती जी के शिवरात्रि या बोधरात्रि वाले प्रसंग की विवेचना करते हुए लिखा है कि - संसार का कोई बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी दयानंद जी से पाषाणादि मूर्ति की पूजा नहीं करा सका। दयानंद जी के आत्मा के इस बल ने उनको अपने समय का ही नहीं वरन् भविष्यत् का भी एक महनीय सर्वतो महान् महामनुष्य बना दिया। 


फिर आगे स्वामी वेदानंद जी ने काशी के दो प्रसिद्ध पंडित स्वामी विशुद्धानंद तथा पंडित बालशास्त्री के संबंध में लिखा है। ये वही पंडित थे जिनके साथ 16 नवंबर 1869 के दिन काशी में मूर्तिपूजा विषय पर स्वामी दयानंद जी का जगप्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ था। वेदानंद जी ने लिखा है -


काशी में उनके प्रतिद्वन्द्वी स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती ने एक बार वार्तालाप के प्रसंग में उनसे (दयानंद जी से) कहा था कि - "विद्या में तो कदाचित् आप हमसे अधिक नहीं हैं, किन्तु एक बात में आप हमसे बहुत अधिक विशिष्ट हैं - आप जो मानते हैं उसे कह सकते हैं और जिसे कहते हैं उसे कर दिखाते हैं। हममें यह सामर्थ्य नहीं है।"


इसी प्रकार काशी के महाविद्वान् महामहोपाध्याय बालशास्त्री राणाडे ने कि जिन्हें काशी की पौराणिक मण्डली सरस्वती का अवतार मानती थी और शास्त्रार्थ के समय दयानन्द के पूछने पर जो अधर्म का लक्षण न बता सके थे, मुलतान निवासी गोस्वामी घनश्याम शर्मा को कहा था - "सत्य पथ पर चलना चाहते हो तो दयानन्द के बताये पथ पर चलो, वह पथ सत्य एवं निर्भ्रांत है।" गोस्वामी जी ने इस पर उनसे सीधा ही पूछ डाला - "आप स्वयं क्यों नहीं उसका अनुसरण करते?" तो बालशास्त्री जी ने कहा - "हम संसार के मानापमान एवं लोभ-भावना को त्याग करने में समर्थ नहीं हैं, किन्तु इतना अवश्य मानते हैं कि दयानन्द का बताया मार्ग सर्वथा सत्य है।''


ये दोनों विद्वान काशी की नाक थे। समस्त भारत में इनकी धाक थी। यही दोनों दयानंद से शास्त्रार्थ करने में अग्रसर हुए थे। विशुद्धानंद जी ने तो दयानंद का अपमान भी कराया था। यह दोनों दयानंद के आत्म बल एवं सत्यता को स्वीकार करते थे। भक्तों की प्रशंसा में वह बल नहीं होता, जो बल विरोधी द्वारा की गई स्तुति माला में होता है।


[संदर्भ ग्रंथ : ऋषि बोध कथा, पृ. 78-79]


नोट : यह पुस्तक 98 पृष्ठ की है और इसका मूल्य ₹ 80 है।


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