परमात्मा -जीवात्मा देवत्मा - महात्मा क ऋत सत्य

परमात्मा -जीवात्मा देवत्मा - महात्मा क ऋत सत्य


परमात्मा :- युग पुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी वैदिक ऋचाओं के सत्यार्थ बतलाने वाले और वैचारिक क्रान्ति का संगठन आर्य समाज के संस्थापक थे। उन्होने सम्पूर्ण विश्व के लोगों को एक सूत्र में बांधने के लिये आर्य समाज के दस नियम ऐसे बनाये कि संसार में कोई भी किसी भी कथित धार्मिक मत को मानने वाला हो वह सभी के लिये हितकारी है। 


     परमात्मा के बारे में दूसरा नियम देखिये कितना परमात्मा के ऋत गुण व सष्टिक्रम के अनकल बनाया हैईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सष्टिकर्ता हैउसी की उपासना करनी योग्य है।


      इस विशाल सष्टि में पथ्वी, चांद, तारे सर्य अनवरत गति कर रहे है। हर चीज घम रही है. इसमें कोई शक्ति धारा बह रही है, हर परमाण नियम से बंधा हुआ है । प्रत्येक वस्त नियम से व नियमित गतिशील है। सृष्टि की गति व रचना का अर्थ है, सष्टि का विकास व बिनास नियम वध हो रहा है, परिवर्तन हो रहा है । यही चेतन शक्ति प्राणी जगत में उदबुद्ध हो रही है । परन्तु प्राणी जगत की सर्जनात्मक चेतन शंक्ति तथा जड़ एवं वृक्षादि में वर्तमान चेतन शक्ति में भेद है । प्राणी में वैयक्तिक चेतना तथा विश्व चेतना दोनों हैं । इनमें वैयक्तिक चेतना आत्मा कहलाती है और विश्व चेतना परमात्मा कहलाती है । आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है और कर्म फल भोगने में परतन्त्र है ।परमात्मा जड़ चेतन सब में मौजूद हैं, परन्तु वह कर्म बन्धन में नही बंधता है।


     परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उसके कारण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नह है, न कोई उसके तुल्य और न अधिक है । सर्वोत्तम शक्ति अर्थात जिसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त किया है वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है । जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता, इसलिये वह “विभु" तथापि चेतन होने से उसमें किया भी है।


      हम आर्य समाज के दूसरे नियम में उपर कह चुके है कि परमात्मा सच्चिदानन्द है। सत अर्थात् यथार्थता/चित चेतन, और महाचेतना का तीसरा विशिष्ट गुण है आनन्द । परमात्मा के नेत्र सब जगह है वह सब कुछ देख रहा है, उसका मुख सब जगह है, परमाणु-परमाणु में उसके दर्शन होते है, उसकी भुजायें सब जगह है, जहां चाहे उसकी अंगुलि पकड़ सकते हो, उसके पांव सब जगह है, कौन सी जगह है जहां वह नहीं पहुंच सकता । वह परमात्मा अंगुष्ट मात्र आत्मा के भीतर सदा मनुष्यों के हृदय में सन्निविष्ट है । हृदय मन व बुद्धि से उसका आभाश होता है । वह अणु से अणु है, महान से महान है, वह कर्म नहीं करता अक्रतु है, उस परमात्मा की महिमा को उसकी कृपा से ही उसका अहसास करते है और परमात्मा द्वारा रचित सृष्टि में उसकी कृती का अवलोकन करते है।


जीवात्मा :- जीवात्मा तथा ब्रह्य का प्रथम वास वह स्थान है जिस हम शरार 3 कहते है । जाग्रतावस्था में चेतना भीतर से निकल कर जाग्रत स्थान में आ जाती है। जीव की चेतना शरीर में और ब्रह्म की चेतना विश्व में प्रत्यक्ष रूप से आ बैठती है। जाग्रतवस्था में जीव के लिये शरीर और ब्रह्म के लिये प्रकृति ही उसका स्थान है। मानों ब्रह्म जीव की तरह अन्दर से आ बैठता है उस अवस्था में जीव . अपना कार्य क्षेत्र शरीर में बना लेता है, और ब्रह्यं इस विशाल प्रकृति को/वहां हम शरीर में जट जीवात्मा को पा लेगें और प्रकृति में ब्रह्म को/शरीर जाग्रतवस्था में तभी आती है जब जीवात्मा जाग्रत स्थान पर आ बैठता हैतब शरीर की ओर हटा देने से ही जीवात्मा नजर आ जाता हैं जैसे जीवात्मा के जाग्रत स्थान में आ बैठने से सिर, आंख, कान, वाणी, फेफड़े, ह्यदय तथा पांव ये सात अंग है, वैसे ब्रा के विकसित सृष्टि के रूप में प्रकट होने पर अग्नि सिर है, सूर्य चन्द्र आंखें है दिशायें कान है, वेद वाणी है, वायु फेफड़े है, विश्व हृदय है, पृथ्वी पांव है । जीवात्मा की तरह ब्रह्य के भी ये सात अंग है ।अंगो का काम संसार का भोग करना है । भोग का प्रतिनिधि मुख है । जीवात्मा के पास भोग के १६ साधन है । ये मुख्य है जिनसे यह संसार भोगता है। ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिया + ५ प्राण + ४ अन्तकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ये १६ मुख है, जिनमें ये संसार का भोग करता है और ब्रह्म भी संसार के सम्पूर्ण प्राणियों के इन १६ मुखों से जाग्रत स्थान में बैठ कर बहिप्रज्ञावस्था में जीवात्मा की तरह इन प्राणियों द्वारा स्थूल-संसार का भोग कर रहा है। इसलिए वह भी स्थूल-भुक है। जाग्रतस्थान पर बैठा हुआ जीवात्मा विश्व के व्यष्टि-रूप अर्थात एक-एक व्यक्ति रूप नर-नारी के रूप में है, इसलिये जीवात्मा की यह अवस्था वैश्वानर कहलाती है । अतः ब्रह्यं की इस अवस्था को भी वैश्वानर ही कहा जाता है । (माण्डूक्योपनिषद्)


    जीवात्मा न स्त्री लिंग है, न पुल्लिंग न नपुंसक लिंगी है, ये लिंग शरीर के है । जिसे-जिस शरीर को यह ग्रहण करता है उस-उस के लिंग के साथ युक्त हो जाता है। 


जड़ देवता एवं चेतन देवात्मा  


    ब्राह्यमणग्रन्थों में वेद मंत्रो का व्याख्यान लिखा है (त्रयस्त्रिशत) अर्थात व्यवहार के ये (३३) देवता है ।


   आठ वशु ये है - अग्नि-पृथ्वी-वायु-अन्तरिक्ष-आदित्य-द्यौ चन्द्रमा और नक्षत्र है। इनका नाम वसु इस कारण से है कि सब पदार्थ इन्ही में बसते है, और ये ही सबके निवास करने के स्थान है । ये जड़ देवता है। ११ रूद्र ये कहलाते है- ग्यारह रूद्रो में शरीर मे दश प्राण है, अर्थात प्राण-अपान-व्यान-उदान-कूर्म-कृकल देवदत्त, धनन्जय और ग्यारहंवा जीवात्मा है । क्योंकि जब से शरीर से निकल जाते है, तब मरण होने से उसके सम्बंधी लोग रोते है। वे निकलते हुये उनको रुलाते है, इससे उनका नाम रुद्र है।


   इसी प्रकार आदित्य बारह महीनों को कहते है क्योंकि वे सब जगत के पदार्थो का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है इसी से इनका नाम आदित्य है। ऐसे ही इन्द्र नाम बिजुली का है, कयोंकि वह उत्तम ऐश्वर्य की विद्या का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिये कहते है कि उससे वायु और वृष्टि जल की शुद्धी द्वारा प्रजा का पालन होता है । ये सब मिलके अपने-अपने दिव्य गुणों से तेतीस देव कहलाते है और तीन देव-स्थान-नाम और जन्म को कहते है । दो देव अन्न और प्राण को कहते है । अध्यर्धदेव अर्थात जिससे सबका धारण और वृद्धि होती है जो सूत्रात्मा वायु सब जगह से भर रहा है, उसको अध्यदेव कहते हैं, इसमें कोई भी उपासना योग्य नहीं है योग्य तो केवल एक ब्रह्म ही है।


     इस देवता विषय में दो प्रकार का भेद है एक मूर्तिमान और दूसरा अमूर्तिमान । जैसे माता-पिता, आचार्य, अतिथि ये चार तो मूर्तिमान देवता है और पांचवा परबंां अमूर्तिमान है, अर्थात् उसकी किसी प्रकार की मूर्ति नही है। इस प्रकार से पांच देवकी पूजा में यह दो प्रकार के भेद जानना उचित है।


     इसी प्रकार पूर्वोक्त आठ वसंतुओं में से अग्नि, पृथ्वी, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र ये पांच मूर्तिमान देव है और ग्यारह रूद, बारह, आदित्य, मन, अन्तरिक्ष, वायु द्यो और मंत्र ये मूर्तिरहित देव है तथा पांच ज्ञानेन्द्रिया बिजुली और विधिं यज्ञ से सब देव मूर्तिमान और अमूर्तिमान है । इससे साकार और निराकार भेद से दो प्रकार की व्यवस्था देवताओं में जाननी चाहिए। उपासना करने योग्य एक परमेश्वर ही देव है। (ऋग्वेदादिभाण्य भूमिका से देवता विषय)


महात्मा-देवात्मा :- महात्मा वह है जिसके सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा निवास करती है । काया की वेशभूषा का और विचित्र आवरणों का धारण महात्मा . होने के आधार व लक्षण नहीं है । सामान्यं वेशभूषा रहन-सहन में आत्मा को महानता के स्तर तक : पहुंचाना है। महात्मा का अर्थ है विशाल व्यापक आत्मा जो अपने शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक कर्तव्यों से आगे बढ़कर विश्व मानव के उत्तरदायित्वें का वहन करने के लिये अग्रसर होता है ।महात्मा अपने लिये नहीं सोचता विराट के लिये सोचता है । अपने लिये जीवित, परहित हेतु जीता और संसार को ईश्वरीय ज्ञान . वेदानुसार सृष्टिकानुसार, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का कार्य बताता है देवात्मा वह होता है जो निम्न गुणों से जनता का मार्ग दर्शन करता है जैसे :-


१. सोमसद :- सोमयज्ञ, सोमवल्लो, औषधियों के विद्या में निपुण होते है।


२. अग्निष्वात :- जो ईश्वर भौतिक अग्रि और विद्बुदादि पदार्थो के गुण जानने वाले हते है।


३. बर्हिषद:- जो सबसे उत्तम परब्रह्म में स्थिर होकर सत्य विद्या उत्तम गुणों में स्थिर है।


४. सोमपा :- जो ऐश्वर्य के रक्षक और सोम महॊषधिं रस पान कराकर नजता के लोग हरते है।


५ :- हविर्भुज :- जो नित्य अग्रिहोत्र करके वायु व वृष्टिजल द्वारा जगत का उपकार करते है ।


६ आज्यया :- जो विविध ज्ञान विज्ञानरूप सार भूत विद्या के अध्ययन व अध्यापन करते है।


७ सुकालिन : जो ईश्वर, धर्म और सत्यविद्या वेदों के उपदेश में जिनका समय व्यतीत होता है


८ यमराजा :- जो पक्षपात छोड़ कर सदा दुष्टो को दण्ड और वेष्टो के न्यायकारी है ।


ये सब विशिष्ट देवात्मा की श्रेणी में आते हैं।


पं० उम्मेद सिंह विशारद, वैदिक प्रचारक


गढ़ निवास-मोहकपुर, देहरादून


 


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