महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थ रत्न

महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थ रत्न


       महर्षि दयानन्द सरस्वती ने २३ छोटे-बड़े ग्रन्थों की रचना की । महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों की तालिका १. ऋग्वेद भाष्य, २.. यजुर्वेद भाष्य, ३ यजुर्वेद भाषा भाष्य, ४ ऋग्वेदादि भाष्य भमिका, ५. सत्यार्थ प्रकाश, ६. संस्कार विधि, ७. आर्यर्भि विनयः, ८. पञ्च महायज्ञ विधि, ६ संस्कृत वाक्य प्रबोध, १०. व्यवहार भानु, ११. काशी शास्त्रार्थ, १२. वेद विरूद्ध मत खण्डन, १३. शिक्षा पत्री व्यान्त निवारण; १४. प्रमोन्छेदन, १५. अनभुयोच्छेदन, १६. भ्रान्ति निवारण, १७. वेदान्त ध्वान्त निवारण, १८. सत्यधर्म विचार, १६. आर्योद्देश्य रत्न माला, २०. गो करूणानिधि, २१. अष्टाध्यायी भाष्य, २२. वेदांग प्रकाश, २३. स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश। 


       इन ग्रन्थ रत्नों के अतिरिक्त महर्षि ने स्वीकार पत्र के नाम से अपना वसीयतनामा तथा आर्य समाज के नियमों की रचना की थी। अब हम संक्षेप में विचार करेंगे कि इन ग्रन्थों को किन परिस्थतियों में और क्यों लिखना पड़ा।


१. वेद भाष्य-पुरा. काल से ऋक्, यजु, साम अथर्ववेद संहिता को अपौरुषेय एवं ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-मुनियों ने मान्यता दी है। महर्षि मनु ने ('वेदों खिलो धर्म मूलम्') कहकर इसे समस्त धर्मों (कर्तव्यों) का मूल कहा है इतना ही नहीं वरन् इसे समस्त ज्ञान-विज्ञान का मूल माना था। सभी क्रान्तदर्शी ऋषियों ने इसकी स्वतः प्रमाण कोटि की गणना की और अपने उच्चतम ग्रन्थों को भी परतः प्रमाण कोटि में रखा था । जब तक लोग वेद ज्ञान के अनुरूप आचरण करते रहे हैं तक तक कल्याण का साम्राज्य रहा है किन्तु वेदों के छोड़ने से नाना प्रकार के भेद उत्पन्न हो गये । आर्य जाति की गिरावट का मुख्य कारण वेदों का अनध्याय एवं उपेक्षा ही रहा है । ईश्वर के स्थान पर नाना प्रकार के जड़देवों की पूजा, अनेकानेक मत-मतान्तरों का प्रजनन एवं अनेक रूढ़ियों तथा अन्ध विश्वासों में ग्रस्त हो जाना वेद की शिक्षाओं से हटने का ही दुष्परिणाम था।


     महर्षि दयानन्द ने इन परिस्थितियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था और उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया था कि इस भूतल पर वेद को पुनः जातष्ठापित करने से ही मानव जाति का परम कल्याण हो सकता है। इसलिए महर्षि ने वेदों का भाष्य किया । महर्षि के समय में सायण, माधव आदि आचार्यों के वेद भाष्य विद्यमान थे किन्तु इन आचार्यों ने वेद भाष्य में प्राचीन शैली का परित्याग कर संकुचित, साम्प्रदायिक, एकाग्डों एवं यज्ञपरक अर्थ करके वेद की गरिमा नष्ट कर दी थी और मैक्समूलर, विल्सन, कीथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी इन्हीं आचार्यों के भाष्यों को आधार बनाकर तथा पक्षपातारूढ़ होकर आङग्ल भाषा में वेदों का अनुवाद किया जिसमें वेदों के विरुद्ध अनेक वादों की परिकल्पना कर ली गयी थी। इसके निराकरण हेतु ऋषि को वेद भाष्य करना पड़ा । 


 २. ऋग्वेद तथा यजुर्वेद भाष्य - महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेद के यथार्थ स्वरूप की प्रदर्शित करने हेतु प्राचीन ऋषियों की शैली के अनुसार (नैरुक्तिक प्रक्रियानुसार) वेदों का भाष्य किया। महर्षि ने सम्पूर्ण यजुर्वेद का भाष्य किया और ऋग्वेद के ७ मण्डल ६१ सूक्त मन्त्र २ तक ही किया है। ऋषि दयानन्द अपने जीवन में इसे समाप्त नहीं कर पाये । इन भाष्यों मे ऋषि ने मूल मन्त्र, पद पाठ, संस्कृत के पदार्थ भाष्य, अन्वय और भावार्थ देकर पुनः आर्य भाषा में अन्वयानुसार अर्थ और भाषार्थ दे दिया है। 


३. यजुर्वेद भाषा-भाष्य इसमें ऋषि दयानन्द रचित संस्कृत भाग को हटाकर केवल भाषा में अन्वयानुसार ही पदार्थ और भावार्थ संकलित किया गया है । ४. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका- ऋषि दयानन्द जिस वेद भाष्य कीर रचना कर रहे थे उसकी यह भूमिका है । यह सम्पूर्ण संस्कृत में है और इसका अनुवाद आर्य भाषा में भी किया गया है । वेद की उत्पत्ति, रचना, प्रामाण्य, अप्रामाण्य वेदोक्त धर्म, वेद में विज्ञान का मूल . आदि अनेक विषयों पर गम्भीरतापूर्वक स्पष्ट विचार किया गया है। पूर्व के वेद भाष्यकारों ने अनेक अनार्ष मतों का विवेचन करके सप्रमाण वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । वेद के सिद्धान्तों को समझाने के लिए यह सम्पूर्ण ग्रन्थ है । एतद्दशीष योगी अरविन्द तथा प्रो० मैक्समूलर आदि प्राश्चात्य विद्वानों पर इस अपूर्व ग्रन्थ का भारी प्रभाव पड़ है।


५. सत्यार्थ प्रकाश :- ऋषि की यह अमर कृति एक युगान्तरकारी पुस्तक हैउसने भारतवर्ष में जनता की विचारधारा को ही परिवर्तित कर दिया है। हिन्दी भाषा के इतिहास में कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं है जिसका समस्त प्रान्तीय भाषाओं एवं अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद होकर अनेक संस्करणों में प्रकाशन हुआ हो । इसे हिन्दी भाषा का अपूर्व ग्रन्थ कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।


       महर्षि दयानन्द ने अपने इस अपूर्व ग्रन्थ में समस्त मतमतान्तरों का आलोकन किया है और उनके अवैदिक मन्तव्यों पर गहरा प्रहार किया है । इस आलोचना में ऋर्षि ने अपने व पराये का विभेद किचिंन्मात्र नहीं किया है, बल्कि निष्पक्ष होकर निर्भीकतापूर्वक युक्तियुक्त आलोचनाएं की हैं।


     सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ऋषि लिखते हैं कि- "मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यासत्य अर्थ का प्रकाश करना है अर्थात् जो सत्य है. उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है......


    यद्यपि मैं आर्यावर्त में उत्पन्न हुआ हूँ तथापित जेसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न करके यथा तथ्य का प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देशस्थ व मतोन्नति वालों के साथ बर्तता हूँ........ "


       क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जेसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने पर तत्पर होते हैं वैसे मैं भी होर परन्तु ऐसी बात मनुष्यपन से बाहर है।" उपर्युक्त उद्धरण से ऋषि का उद्देश्य स्पष्ट प्रकट हो जाता है।


     इस ग्रन्थ में दस समुल्लास पूर्वार्द्ध के मण्डनात्मक विशेष हैं जिनमें ईश्वर के नामों की व्याख्या, सन्तानों की शिक्षा, पठन-पाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम, : विवाह और गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और सन्यास, राजधर्म, वेदेश्वर विषय, जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, विद्याऽविद्या, बन्धोमोक्ष, आचार-अनाचार एवं भक्ष्याभक्ष्य पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है ।


     ईसाई, मुसलमानों एवं नास्तिकों द्वारा वैदिक धर्मियों को लज्जित किया जा रहा था और भारतधर्मी उनका युक्तियुक्त प्रत्युत्तर देने में सर्वथा असमर्थ से लगते थे । अतः वे हीन भावना से ग्रसित होते जा रहे थे परिणामस्वरूप राम-कृष्ण को मानने वाली अगणित सन्ताने स्वधर्म को तिलांजलि देकर धड़ाधड़ ईसाई और मुसलमान बनती चली जा रही थी इस दुरवस्था को दयानन्द ने देखा था, इसीलिए उन्होने सत्यार्थ प्रकाश के उत्रार्द्ध में एकादश समुल्लास भारतवर्ष में प्रचलित अवैदिक मतमतान्तरों, १२ वें जैन और बौद्ध नास्तिक मतों की सप्रमाण आलोचना की । तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में क्रमशः । ईसाईयों और मुसलमानी मतों की चर्चा की सत्यार्थ प्रकाश के दस समुल्लासों को पढ़कर जहां आर्य बन्धुओं को अपनी त्रुटियों का बोध हुआ वहाँ शेष चार समुल्लासों को पढ़ अवैदिक मतों की प्रांतियों की जानकारी करायी । सत्यार्थ प्रकाश के पूर्व विधर्मियों के ललकारने पर जहां आर्य बन्धु मुंह छिपाते फिरते थे वहां सत्यार्थ प्रकाश रूपी अमोघ शस्त्र प्राप्त हो जाने पर गृह्य सूत्रों के अनुसार गर्भाधान से अन्तेष्टि पर्यन्त १६ संस्कारों को वैदिक रीत्यनुसार करने की पद्धति और वर्णों और आश्रमों के नित्य कर्मों के इस ग्रन्थ में विधान से सिर ऊँचा किया । इस ग्रन्थ की रचना संवत् १६३२. तदनुसार सन् १८७५ ई० में हुई थी।


७. आर्याऽभिविनयः इस ग्रन्थ की भूमिका में महर्षि ने लिखा है कि-" इस ग्रन्थ से तो केवल मनुष्यों को ईश्वर का स्वरूप, ज्ञान और भक्ति, धर्म निष्ठा, व्यवहार शुद्धि इत्यादि प्रयोजन सिद्ध होंगे, जिससे नास्तिक और पाखण्ड मतादि अधर्म में मनुष्य लोग न फसे । किंचित् सब प्रकार के मनुष्य अत्युत्तम हों और सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की कृपा सब मनुष्यों पर हो जिससे सब मनुष्य दुष्टता को छोड़कर श्रेष्ठता को स्वीकार करें"इससे ऋषि ने ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना के लिए चारों वेदों के १०८ मन्त्रों का संग्रह करके उनको . अर्थ सहित दिया है ।रचना १६३२ वि.सं. में हुई है।


८. पंच महायज्ञ विधि : इसमें ऋषि ने ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या) देवयज्ञ (अग्निहोत्र) भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेव) पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ इन पांच महायज्ञों के करने की विधि और मन्त्रों पर संस्कृत भाष्य और सरल अनुवाद भी दिया है ६. संस्कृत वाक्य प्रबोध : आर्य समाज के एक उपनियम “प्रत्येक आर्य को संस्कृत व आर्य भाषा जाननी चाहिए" की पूर्ति के लिए संस्कृत की आरम्भिक शिक्षा के लिए व्यवहारिक विषयों पर सरल संस्कृत वाक्यों द्वारा शिक्षा दी गयी है। इससे संस्कृत वाक्यों का सुगमता से बोध हो जाता है ।


१०. व्यवहार भानु - बालकों को शिष्ट, आर्य व्यवहार की शिक्षा देने और अज्ञान एवं कुशिक्षा को निवारण करन हेतु इस ग्रन्थ की रचना महर्षि ने की है और इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है कि "मैं मनुष्यों को उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीति से युक्त इस व्यवहार भानु ग्रन्थ को बनाकर प्रकट करता हूँ कि जिसको. देख-दिखा, पढ़-पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपनी सन्तान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें । इस ग्रन्थ का रचना काल फाल्गुन शुक्ल १६३६ वि.सं. काशी है।


११. काशी शास्त्रार्थ : इसमें काशी में महर्षि दयानन्द के साथ मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में विशुद्धानन्द आदि पौराणिक विद्वानों से जो ऐतिहासिक शास्त्रार्थ १८६६ ई० में हुआ था उसका विवरण दिया गया है यह ग्रन्थ संस्कृत में है और इसका भाषानुवाद भी साथ ही है।


१२. वेद विरूद्ध मत खण्डन- इस ग्रन्थ में बल्लभाचार्य आदि मतों के प्रति प्रश्न और उसका खण्डन किया गया है। यह ग्रन्थ संस्कृत में है और इसका अनुवाद हिन्दी में श्री पं० भीमसेन शर्मा ने किया है।


१३. शिक्षापत्री ध्वांत निवारण - इस ग्रन्थ में महर्षि ने सहजानन्द आदि के मतों का खण्डन किया है। यह ग्रंथ भी संस्कृत में है । इसका हिन्दी अनुवाद "स्वामी नारायण मत खण्डन" के नाम से प्रसिद्ध है।


१४. भ्रमोच्छेदन- इस ग्रन्थ में बनारस के राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की ओर से श्रीस्वामी विशुद्धानन्द की प्रश्नावली के कारण उपर्युक्त भ्रमोच्छेदन के उत्तर में राजाजी के दूसरे निवेदन के उत्तर में महर्षि दयानन्द के शिष्य श्री पं० भीमसेन शर्मा का उत्तर 'अनुभ्रमोच्छेदन' के नाम से छपा है।


१५. भ्रान्ति निवारण - इस ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य पर संस्कृत कॉलेज कलकत्ता के स्थानापन्न प्राचार्य श्री पं० महेशचन्द्र न्यायरत्न के किये गये प्रान्तियुक्त खण्डन किया गया है। यह ग्रन्थ भी संस्कृत में है, साथ ही हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है।


१६. वेदान्त ध्वान्त निवारण - इस ग्रन्थ में नवीन वेदान्त के मत की अच्छे प्रकार विवेचना की गयी है।


१७. सत्य धर्म विचार - (मेला चान्दपुर) इस ग्रन्थ में चान्दपुर मेले में हुए मौलवी कासिम तथा पादरी स्काट आदि से हुए प्रश्नोत्तर का उल्लेख है। यह प्रसिद्ध मेला सत्य निर्णय हेतु मार्च १८७७ई० में आयोजित किया गया था, जिसमें विपुल संख्या में लोग विद्यमान थे किन्तु कोई निर्णय लिये बिना मेला समाप्त कर दिया गया ।


१८. आर्योद्देश्य रत्न माला - इस ग्रन्थ में महर्षि ने आर्यों के १०० उद्देश्यों का संग्रह किया है और उसकी परिभाषा वर्णित की है।


१६. गोकरूणा निधि - महर्षि दयानन्द ने इस ग्रन्थ में भी गाय आदि उपकारी पशुओं का वध बन्द करने और उसके पालन पर बल दिया है। गौ आदि पशुओं की ओर से एक प्रकार से मार्मिक अपील है। इसके अन्त में गोकरूणादि रक्षिणी सभा की योजना भी सम्मिलित है


२०. वेदाग्ङ प्रकाश- इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द ने व्याकरण के सूर्यदण्डी विरजानन्द सरस्वती से प्राप्त आर्ष ज्ञान परिचतीय व्याकरण के प्रक्रिया भाग को स्पष्ट करने के लिए लौकिक और वैदिक व्याकरण के अंशों को एक साथ लेकर भाषा में व्याकरण के विषय को अति सुगम कर दिया है । सिद्धान्त कौमुदी आदि अनार्ष र्गन्थों में आये अनेक अवैदिक, अनार्ष बातों को दूर करके व्याकरण को स्वच्छ कर दिया है और भट्टोजी दीक्षित आदि वैयाकरणों की अनेक त्रुटियों को भी दर्शाया है । वेदाग्ङ प्रकाश में वेदार्थ को स्पष्ट करने वाले निम्नलिखित ग्रन्थों का समावेश है - १. वर्णोच्चारण शिक्षा, २. नामिक, ३. सन्धि विषय, ४. कारकीय, ५. समासिक, ६. सीवर, ७. आख्यातिक, ६. स्त्रैण तद्धित, १०. धातु पाठ, ११. अव्यार्थ, १२..गण पाठ, १३. उणादि कोष, १४. निघंटु, १५. निरुक्तम्


      इन खण्डों में पठन-पाठन का एक विशेष क्रम है, उस क्रम से व्याकरण, संस्कृत विद्या और वेद विद्या का विशेष रूप से बोध हो जाता है।


२१. अष्टध्यायी भष्यम् - पाणिनीय अ टाध्यायी पर सूत्र क्रमानुसार महर्षि दयानन्द का अति उत्तम भाष्य है इसका प्रकाशन उनके जीवन काल में न हो सका था, लाहौर के कवि डा० पण्डित रघुवीर, एम०ए०डी० लिट द्वारा सम्पादित कराकर परोपकारिणी : मा ने इसको दो भागों में प्रकाशित किया है । इस भाष्य में महर्षि ने दीक्षित और काशिकाकार जयादित्य आदि को व्याकरणविषयक अनेक त्रुटियां दर्शायी हैं । संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में यह अद्भुत ग्रन्थ है ।


२२. स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश - महर्षि दयानन्द ने अपने मन्तव्यों-अमन्तव्यों के सम्बन्ध में सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में तथा पृथक् भी इस ग्रन्थ की रचना की है । ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में उल्लिखित शब्दों का किन अर्थों में प्रयोग इसको पढ़ने से स्पष्ट रूपेण विदित हो जाता है।


२३. स्वीकार पत्र (वसीयतनामा)- महर्षि दयानन्द ने २७ फरवरी १८८३ को तेइस सज्जन आर्य पुरुषों की सभा को अपने वस्त्र, पुस्तकें, धन और यन्त्रालय आदि का अधिकार लिख दिया था और सभा का अध्यक्ष उदयपुराधीश श्रीमान् महाराजाधिराज १०८ श्री सज्जन सिंह को निश्चित किया था। इस सभा के पदाधिकारियों और सदस्यों में लाला मूलराज एम०ए० लाहौर, कविराज श्यामल दास मेवाड, पंडित गोपाल राव हरिदेशमुख पूना, जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे पूना तथा पं.० श्याम जी कृष्ण वर्मा प्रो० संस्कृत युनिवर्सिटी आक्सफोड, लंदन आदि थे, नियुक्त किये गये थे।


 २४. आर्य समाज के नियम - महर्षि दयानन्द ने अपने उत्तराधिकारी आर्य समाज के नियम को पृथक् रूप से छपवा लिया था।


 


 


 


 


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