कृष्ण की राजनीति?


क्या सिखाती है कृष्ण की राजनीति?
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कृष्ण, एक भगवान नहीं बल्कि एक दोस्त, एक राजा, एक सारथी, एक राजनीतिज्ञ, एक कूटनीतिज्ञ, एक प्रेमी और एक नटखट बालक के रूप में एक सोच हैं, अपने आप में वह एक पूरी सभ्यता हैं।


"हम सभी मानव स्वरुप में यहां अपना अपना किरदार निभाने आए हैं और अपना किरदार निभाकर एक दिन हम सभी को यहां से चले जाना है" महाभारत में भगवान कृष्ण ने कई ऐसे मानव हितकारी उपदेश दिए हैं जिन का प्रतिपादन करके हम अपने व्यक्तित्व को ना सिर्फ निखार सकते हैं बल्कि जीवन जीने का सही तरीका भी सीख सकते हैं और यह भी उसी में से एक उदाहरण है।


कृष्ण, एक भगवान नहीं बल्कि एक दोस्त, एक राजा, एक सारथी, एक राजनीतिज्ञ, एक कूटनीतिज्ञ, एक प्रेमी और एक नटखट बालक के रूप में एक सोच हैं, अपने आप में वह एक पूरी सभ्यता हैं। जीवन के हर पड़ाव के लिए कृष्ण ने मानवता को सीखनी है और उसी का परिणाम है किया कृष्ण सिर्फ एक भगवान नहीं ज्ञान का सागर है।


कृष्ण ने कूटनीति और राजनीति के लिए भी कई ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जिनका प्रतिपादन किसी भी राष्ट्र को कल्याणकारी राष्ट्र से ऊपर उठकर स्वाभिमानी और धर्म राष्ट्र बनाने के लिए पर्याप्त है। एक और प्रेम का पाठ पढ़ा कर कृष्ण हर किसी को समान दृष्टि से देखने की सीख देते हैं वहीं दूसरी ओर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित कर यह भी सिखाते हैं कि सब्र सिर्फ एक हद तक ही ठीक होता है और जब बात धर्म और मर्यादा की स्थापना की हो तो योनि और शस्त्र उठाने से घबराना नहीं चाहिए।


श्रीकृष्ण की वह कौन सी बातें हैं जो राजनीति को पूरी तरह से एक नया चेहरा देती है यह हमें जरूर जानना चाहिए। इस जन्माष्टमी कृष्ण के सौम्य और प्रेममई स्वभाव के अलावा कृष्ण के उस कूटनीति और राजनीति वाले स्वभाव को भी पहचाना चाहिए जो एक स्वाभिमानी राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।


(१) यदि उच्च नैतिकता को अपनाने से मात्र पराजय ही हो तो ऐसी नैतिकता त्याग देना ही बेहतर है: - धृतराष्ट्र सभा में जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तब युधिष्ठिर ने नैतिकता के आगे घुटने टेक कर अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगा दिया ऐसे नैतिकता किस बात की? जिस वक्त द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था सभा में बैठे किसी भी महानुभाव ने नैतिकता के आड़े आकर प्रसंग को रोकने का प्रयास नहीं किया ऐसी नैतिकता किस काम की? इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब नैतिकता आपके लिए हितकारी ना हो तो ऐसी नैतिकता को त्याग देने में ही भलाई है। यदि नैतिकता अधर्म को जन्म देती है तो उसे वही त्याग देना चाहिए और वह करना चाहिए जो उस वक्त सही है।


(२) कई बार युद्ध उचित होता है: - कुरुक्षेत्र में खड़े होकर श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि "इस प्रकार अपने संबंधियों को अपना दुश्मन देख तू हिम्मत मत हार क्योंकि यह एक धर्म युद्ध है और यहां तेरा लक्ष्य मात्र धर्म की स्थापना करना है इसलिए तू वह कर जो सही है और तेरे इस सही की लड़ाई में यह युद्ध भी सही है तो तू निर्भीक होकर खड़ा हो और युद्ध कर।" इसका तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण विश्व को यह संदेश देना चाहते थे कि जब बात धर्म, सच्चाई, मर्यादा, संरक्षण और सत्य के पुनर्स्थापन की हो तो वह युद्ध, युद्ध नहीं अपितु धर्म युद्ध हो जाता है इसलिए हर बार युद्ध को गलत नहीं ठहराया जा सकता। अपनी आत्मरक्षा, स्वावलंबीता और सशक्तता को दर्शाने के लिए किया गया युद्ध उचित है।


कृष्ण का मानना है कि जरूरत से ज्यादा बर्दाश्त करना स्वयं के साथ अन्याय है इसलिए वक्त पड़ने पर आवाज जरूर उठानी चाहिए व्यक्ति को उतना ही झेेलना चाहिए जितनी उसके अंदर क्षमता हो और जब बात बर्दाश्त से ऊपर चली जाए तो उसका विरोध करना कोई अधर्म नहीं है।


(३) नियम और रीति रिवाज बदलाव को स्वीकार करने वाले होने चाहिए: - कृष्ण का कहना है कि नियम और रीति-रिवाज मानवता के कल्याण के लिए बनाए जाते हैं और जब कोई रीति रिवाज या नियम कल्याणकारी होने के बजाय कष्टकारी हो तो उन्हें बदल देने में ही भलाई है। कोई भी नियम कानून रीति-रिवाज, मानवता से ऊपर उठकर नहीं है इसलिए हमेशा रीति-रिवाज ऐसे होने चाहिए जिससे लाभ हो और प्रसन्नता का संचार हो। दर्द और कष्ट को देने वाले नियम अहितकारी भी है अतः उन्हें बदल देने में भलाई है।


(४) सबको समान दृष्टि से देखना चाहिए:- अपने बचपन की अटखेलियां से कृष्ण हमें सिखाते हैं कि चाहे ग्वाला हो या राजा का बेटा हर कोई बराबर है इसलिए श्रीकृष्ण ग्वालों के साथ मिलकर जब गोपियों के घर से माखन चुराते हैं तो वह मात्र सिर्फ एक बालक की अटखेलियां नहीं है बल्कि यह मानवता को एक सीख है कि हर कोई समान है, बराबर है।


 


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