ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश

ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक और वैज्ञानिक विवेचन - वेद की नित्यता पर प्रकाश
(सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास के आधार पर)


[अन्तिम भाग]


लेखक- पं० क्षितिश कुमार वेदालंकार


अद्वैतवाद का खण्डन-
इस समुल्लास में ऋषि ने जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करने वाले अद्वैतवादियों का जिस विद्वत्तापूर्ण ढंग से खण्डन किया है वह भी देखते ही बनता है। सुपठित भारतीय विद्वानों और साधु-सम्प्रदाय में अद्यापि इस वाद की बहुत मान्यता है। परन्तु, जिस आधार पर जीव और ब्रह्म की एकता स्थापित की जाती है, जैसे वह आधार निस्सार है वैसे ही उनके तर्क भी। परमात्मा के एकत्व के प्रति जो बौद्धिक रुझान आजकल दृष्टिगोचर होता है उसी का यह परिणाम है कि जीव और ब्रह्म को एक बतानेवाली फिलॉसफी आजकल बुद्धिवादी लोगों को अपनी ओर खींचती है। अद्वैतवादी जिन चार वाक्यों पर सबसे अधिक जोर देते हैं; वे चार वाक्य ये हैं-
प्रज्ञानं ब्रह्म।।१।। अहं ब्रह्मास्मि।।२।। तत्त्वमसि।।३।। अयमात्मा ब्रह्म।।४।।
इन चारों वाक्यों को वे वेद-वाक्य या महावाक्य बताते हैं; परन्तु इन चारों में से एक भी वेद-वाक्य नहीं है। महावाक्य तो ये हैं ही नहीं- किसी सत्यशास्त्र ने इनको महावाक्य नहीं लिखा और इनके कलेवर से इनको महावाक्य कह कौन सकता है? इनमें से पहला वाक्य ऐतरेय आरण्यक का है, दूसरा वाक्य बृहदारण्यक का है, तीसरा छान्दोग्य उपनिषद् का है और चौथा माण्डूक्योपनिषद् का है।


प्रज्ञानं ब्रह्म का अर्थ है- ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है या प्रकृष्ट ज्ञानवान् है। यह अर्थ सुसंगत है, इसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं, परन्तु ब्रह्म के ज्ञानस्वरूप होने से यह अर्थ कहाँ से निकल आया कि ब्रह्म के सिवाय और किसी में ज्ञान का लेश भी नहीं है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु वह अल्पज्ञ है। ब्रह्म सर्वज्ञ है, परन्तु सर्वज्ञ ब्रह्म की सत्ता स्वीकार करने से अल्पज्ञ जीव की सत्ता का निषेध नहीं हो सकता।


'अहं ब्रह्मास्मि' का अर्थ-
अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ यह नहीं है कि मैं ब्रह्म हूँ- जैसा कि सामान्यतया समझा जाता है, परन्तु इसका अर्थ है- 'मैं ब्रह्मस्थ हूं।' पूछा जाएगा कि 'ब्रह्मास्मि' का अर्थ 'ब्रह्मस्थ हूं' यह कैसे कर दिया गया? इसके लिए साहित्यशास्त्र के गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है। साहित्य का शास्त्रीय विवेचन करने वाले मम्मट के 'काव्य-प्रकाश' नामक ग्रन्थ में इसके उदाहरण दिये गए हैं, जैसे 'मञ्चा: क्रोशन्ति'- अर्थात् मञ्च या मचान पुकारते हैं, परन्तु मचान तो जड़ हैं- वे कैसे बोल सकते हैं? तब यहां मञ्च के पुकारने के मुख्य अर्थ का बाध होकर तात्स्थ्योपाधि से यह अर्थ निकलता है कि 'मञ्चस्था: क्रोशन्ति' अर्थात् मचान पर बैठे हुए लोग पुकारते हैं। कान में आने वाली आवाज की दूरी बताने के लिए यहाँ 'मचान पर बैठे मनुष्य' न कहकर संक्षेप के लिए केवल 'मचान' ही कह दिया। ऐसे ही एक उदाहरण है- 'गंगायां घोष:' अर्थात् गंगा में गांव है (घोष=गांव), नदी के अन्दर कोई गांव कैसे हो सकता है? नदी में होगा तो बह न जाएगा? इसलिए यहां भी मुख्यार्थ का बाध होकर तात्स्थ्य वा तत्सहचरितोपाधि से यह अर्थ होता है कि गंगा-तट पर गांव है। नदी के सहचारी होने से उस गांव की शीतत्व पावनत्वादि विशेषताओं को बताने के लिए 'गंगा-तट पर' न कह कर सीधे 'गंगायां=गंगा में' कह दिया गया। केवल काव्यप्रकाश के उदाहरणों के बल पर ही ऐसा अर्थ नहीं किया गया है, किन्तु साहित्य में पदे-पदे ऐसे उदाहरण मिलते हैं, और तो और आम बोलचाल में भी दिन-रात हम इस प्रकार के प्रयोग करते हैं। हम पूछते हैं, "यह सड़क किधर जाती है?" भोले मुसाफिर सड़क कहीं नहीं जाती, यह तो वहीं की वहीं रहती है- सड़क जड़ है, परन्तु सड़कस्थ लोग आते-जाते हैं। है न वही तात्स्थ्योपाधि। या हम कहते हैं 'दीवार के भी कान होते हैं।' परन्तु क्या दीवार के कभी कान हो सकते हैं? यहां तत्सहचरितोपाधि से अर्थ यह होगा कि 'दीवार का सहचारी व्यक्ति तो कहीं कोई कान लगाकर हमारी बात नहीं सुन रहा?' यदि साहित्य में इस प्रकार अर्थ न किया जाये तो अनर्थ हो जाये।
पूछा जा सकता है कि ब्रह्मस्थ तो सभी पदार्थ हैं, फिर जीव को ही ब्रह्मस्थ क्यों कहते हो? उसका उत्तर यह है कि ब्रह्म से जैसा साधर्म्य और निकटता जीव की है वैसी अन्य किसी पदार्थ की नहीं और मोक्ष के समय तो जीव ब्रह्म का सहचारी होता ही है, इसलिए जीव को ही यह कहना शोभा देता है कि 'मैं ब्रह्मस्थ हूं।'


तीसरा वाक्य है 'तत्त्वमसि'। इस वाक्य का अर्थ दो तरह से किया जाता है। एक तो यह कि ब्रह्म (तत) तू जीव (त्वम्) है (असि) या हे जीव! तू (त्वम्) वह ब्रह्म (तत्) है असि)। परन्तु ये दोनों ही अर्थ असंगत हैं, क्योंकि तत् शब्द से ब्रह्म का अर्थ लेना ठीक नहीं। जिस छान्दोग्य उपनिषद् का यह वचन है, उसमें इससे पूर्व ब्रह्म शब्द का पाठ नहीं है, इसलिए इस शब्द की अनुवृत्ति नहीं आ सकती। इस अनुवृत्ति के झगड़े की आवश्कयता भी नहीं है, क्योंकि स्वयं छान्दोग्य उपनिषद् में 'तत्त्वमसि' वाक्य की व्याख्या की गई है। उपनिषद् ने तत् का अर्थ किया है; 'तदात्मक:' अर्थात् 'उस परमात्मावाला' जब इससे भी सन्तोष नहीं हुआ तो इसके लिए दूसरा शब्द दिया- 'तदन्तर्यामी'- वह अन्तर्यामी है, जिसमें इस प्रकार 'तत्त्वमसि' का अर्थ हुआ 'तदन्तर्यामी त्वमसि'- अर्थात् तू उस परमात्मा से युक्त है। यही अर्थ उपनिषद् का अविरोधी है। इस अर्थ से जीव और ब्रह्म की एकता नहीं बनती।


चतुर्थ वाक्य है- 'अयमात्मा ब्रह्म'। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि- 'यह परमात्मा ब्रह्म है।' परमात्मा को तो ब्रह्म हम भी कहते ही हैं, इसलिये इस अर्थ में जीव और ब्रह्म की एकता नहीं बन सकती, परन्तु यदि आत्मा का अर्थ परमात्मा न लेकर केवल जीवात्मा ही लिया जाये तब उसे यों समझना होगा कि मोक्ष अवस्था में पहुंचने पर कोई योगी कहता है- 'अयमात्मा ब्रह्म'- अर्थात् मेरा जीवात्मा ब्रह्मस्थ या ब्रह्म का सहचारी है या ब्रह्म के अनुभव में इतना निमग्न है कि हम अविरोधी या एक अवकाशस्थ हो गये। तीसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि समाधि दशा में परमात्मा का साक्षात्कार होने पर योगी कहता है कि यह जो मुझमें व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है। इन तीनों अर्थों में से किसी में भी वेदान्त-प्रतिपादित जीव-ब्रह्म की एकता सिद्ध नहीं होती।


जीव और ब्रह्म एक नहीं-
जब साहित्य की चर्चा आ गई तो प्रतिपक्षी ने कहा- लो साहित्य से ही जीव और ब्रह्म की एकता स्थापित करते हैं। साहित्य शास्त्र में तीन शक्तियां मानी जाती हैं, अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना। सो लक्षणा का एक प्रकार है जिसे भागत्यागलक्षणा कहते हैं। इसमें कुछ अंश छोड़कर और कुछ अंश ग्रहण करके पदार्थ का वर्णन किया जाता है। जैसे 'सोऽयंदेवदत्तो य उष्णकाले काश्यां दृष्ट:, स इदानीं प्रावृट्समये मधुरायां दृश्यते' अर्थात् यह वही देवदत्त है जिसे गर्मियों में काशी में देखा था और अब वह बरसात में मथुरा में दिखाई दे रहा है। वैसे जो चीज काशी में देखी थी वह मथुरा में कैसे हो सकती है और गर्मियों में जो चीज थी वही बरसात में कैसे हो सकती है? अवस्थान्तर और स्थानान्तर होने से वस्त्वन्तर भी होना चाहिए, परन्तु यहां वाक्य के काशी और उष्णकाल वाले भाग का त्याग करके देवदत्त के शरीर मात्र को लक्ष्य करके, भागत्यागलक्षणा के अनुसार देवदत्त को मथुरा में देखते ही पहचान लेते हैं कि यह तो देवदत्त है जिसे गर्मियों में काशी में देखा था। इसी प्रकार देश, काल, माया, उपाधि आदि जैसे ब्रह्म के साथ लगे हुए हैं वैसे ही जीव के साथ भी देश, काल, माया, उपाधि (अविद्या अल्पज्ञता) लगे हुए हैं। इन सब दृष्टियों से तो जीव और ब्रह्म में अभेद है ही, क्योंकि ये सब बातें दोनों में एक-सी (common) हैं, परन्तु ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है- दोनों के इन दोनों भेदपरक वाक्यर्थों को छोड़कर भागत्यागलक्षणा के अनुसार हम केवल चेतन मात्र को लक्ष्य करते हैं। क्या इस तरह दोनों की एकता नहीं बन सकती? इसके अतिरिक्त जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है वैसे ही जीव के भी अस्ति, भाति और प्रिय रूप हैं। इससे भी दोनों की एकता अर्थात् अद्वैत-सिद्धि क्यों नहीं हो सकती?
ब्रह्मसूत्र के शारीरिक (शारीरिक नहीं) भाष्य के अनुसार वेदान्ती लोग ६ पदार्थों को अनादि मानते हैं, एक जीव, दूसरा ईश्वर, तीसरा ब्रह्म, चौथा जीव और ईश्वर का भेद, पांचवां अविद्या और छठा अविद्या और चेतन का योग। परन्तु, इनमें से केवल ब्रह्म ही अनादि और अनन्त है, शेष पांच अनादि किन्तु सान्त हैं, जैसे कि नैयायिकों का प्रभाव होता है। इन पांचों का आदि किसी को विदित नहीं, इसलिए ये अनादि हैं, किन्तु अज्ञान समाप्त होते ही इन पांचों का अन्त हो जाता है इसलिए सान्त हैं, परन्तु ब्रह्म का न आदि है, न अन्त, इसलिए वह अनादि और अनन्त दोनों है। संकोच से यह कहा जा सकता है कि वेदान्तियों का यह सब वाग्जाल मात्र है- वास्तव में तो उनके मत में ब्रह्म और अविद्या दो ही मुख्य हैं और इन दो में ही उनके छहों पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है। अब प्रश्न यही है कि नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव और सर्वव्यापक ब्रह्म से अविद्या का सम्पर्क हुआ ही कैसे? यदि स्वभाव से ही अविद्या का सम्पर्क मानें तो ब्रह्म शुद्ध नहीं रहा, यदि स्वभाव के बिना सम्पर्क मानें तो उसकी आवश्यकता ही क्यों पड़ी? जब तक अविद्या और ब्रह्म का योग नहीं, तब तक कारणोपाधि ईश्वर और कार्योपाधि जीव भी कैसे बनेंगे? फिर उन्होंने ब्रह्म और अविद्या दोनों को अनादि मान लिया, उनका भी अद्वैत कैसे रहा- यह द्वैत न हो गया? ब्रह्म और अविद्या इन दोनों को साथ-साथ मानना तो बहुत कुछ वैसी ही कल्पना है जैसे ईसाई या मुसलमान खुदा और शैतान को साथ-साथ मानते हैं। वहां जैसे शैतान खुद को बरगलाता है वैसे ही यहां अविद्या ब्रह्म को विकृत करती है।


जहां तक भाग-त्याग-लक्षणा के अनुसार ब्रह्म और जीव के समानता द्योतक लक्षणों को लेकर और भेदपरक लक्षणों को छोड़कर दोनों की एकता सिद्ध करने का प्रयत्न है, उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि यदि इस तरह एकता स्थापित करने लगेंगे तो संसार में अव्यवस्था फैल जाएगी। यह तो वैसा ही हेत्वाभास है जैसे 'जानवर उसको कहते हैं जिसमें जान हो और आदमी में क्योंकि जान है इसलिए आदमी भी जानवर है।' क्या जान होने की समानता मात्र से आदमी और जानवर का एकत्व प्रतिपादित किया जा सकता है? जैसे चींटी मुख से खाती, आंख से देखती और पांवों से चलती है, वैसे ही सब आदमी भी करता है इसलिए क्या चींटी और आदमी को एक माना जाएगा? देखना यह है कि दोनों पदार्थों में साधर्म्य कितना है और वैधर्म्य कितना? इसी साध्य के आधार पर प्राणियों का जलचर, स्थलचर और स्तनपायी आदि के रूप में वर्गीकरण होता है। यह ठीक है कि ब्रह्म और जीव दोनों में चेतनता या साधर्म्य है, परन्तु उनमें वैधर्म्य कितना है, इस पर भी कभी विचार किया है? ब्रह्म सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अपरिच्छिन्न, अनन्त ज्ञान-बल-क्रिया-सम्पन्न आनन्दस्वरूप है, परन्तु जीव अल्पज्ञ, अल्पशक्तिसम्पन्न, परिच्छिन्न और इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःखादि से युक्त है, इसलिए जीव और ब्रह्म एक नहीं हो सकते।


अद्वैतवाद का मूल- बौद्ध दर्शन-
इसी स्थान पर यदि दर्शनशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धान्त पर विचार कर लिया जाए तो शायद अनुचित न हो। शंकराचार्य अद्वैतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। अद्वैतवाद के सिद्धान्त पर जो लोग इस्लाम और सूफी सम्प्रदाय की छाप देखते हैं, उनका भ्रम निवारण करने के लिए भी अद्वैतवाद का ऐतिहासिक विवेचन अभीष्ट है। परिवर्तनशील जगत् का आदिकारण और यथार्थ तत्त्व ब्रह्म है, यह तो वेद और उपनिषदों ने प्रतिपादित कर दिया था, परन्तु यह जगत् सर्वथा असत्य है, यह स्थापना शंकर की ही है, परन्तु शंकर के इस मायावाद वा अद्वैतवाद का जनक है- बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का शून्यवाद। भारत में चिरकाल से यह जनश्रुति चली आ रही है कि शंकर प्रच्छन्न बौद्ध है और उसका अद्वैतवाद प्रकारान्तर से बौद्ध दर्शन का ही उद्रेक है। विज्ञानभिक्षु ने सांख्य प्रवचन भाष्य की भूमिका में पद्म पुराण का यह श्लोक उद्धृत किया है 'मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव तु।' मायावाद असत् शास्त्र है और वह छिपा हुआ बौद्ध दर्शन ही है।
वेदान्ती अद्वैत तत्त्व की स्थापना करने के लिए जिस प्रकार सत्ता का निरूपण पारमार्थिक और व्यावहारिक दो स्तरों पर करते हैं, 'सत्ता' का इस प्रकार दो स्तरों पर भेद सबसे पहले नागार्जुन ने ही किया था। नागार्जुन जिसे 'शून्य' (Absolute) कहता है, उसी को शंकराचार्य 'ब्रह्म' कहते हैं। वस्तु तत्त्व का सर्वथा लोप करके सम्पूर्ण विश्व को 'निःस्वभाव' और 'शून्य रूप' से प्रस्तुत करने वाला यह शून्यवाद सर्वथा निषेधवाद (Nihilism) नहीं है, किन्तु शून्यवाद का कहना है कि समस्त दृश्यमान जगत् परस्पर सापेक्ष है, इसलिए वह किसी निरपेक्ष (Absolute) तत्त्व की और इंगित करता है। यह निरपेक्ष तत्व ही 'शून्य' है। यह शून्य (nothing) नहीं है, (something) है, परन्तु वह (something) केवल शून्य है। इस शून्यवाद को एक तरह से 'अद्रव्य का सिद्धान्त' (No-Substance Theory) कह सकते हैं- यही बौद्धों का अनात्मवाद है।


शून्य को समझने के लिए एक दृष्टान्त दिया जा सकता है। ज्यामिति पढ़ाने वाला शिक्षक कहता है कि बिन्दु (ponit) उसको कहते हैं जिसमें न लम्बाई हो, न चौड़ाई या सरल रेखा (straight line) उसको कहते हैं, जिसमें केवल लम्बाई ही लम्बाई हो, चौड़ाई न हो, परन्तु क्या बिन्दु कागज पर बनाया जा सकता है जिसकी न लम्बाई हो, न चौड़ाई हो। या क्या कोई ऐसी सरल रेखा कभी खींची जा सकती है जिसकी केवल लम्बाई हो और चौड़ाई न हो। जब भी कोई बिन्दु बनेगा- उसकी कुछ न कुछ लम्बाई भी होगी, कुछ न कुछ चौड़ाई भी। ऐसे ही, जब भी सरल रेखा बनेगी, उसकी कुछ न कुछ चौड़ाई अवश्य होगी परिभाषा के अनुसार बिन्दु या सरल रेखा की सत्ता असम्भव है, परन्तु इसी कारण न बिन्दु की सत्ता से इन्कार किया जा सकता है, न सरल रेखा की सत्ता से।
इसी तरह जितने भी द्रव्य हैं वे देश (space) की दृष्टि से फैले हुए (extended) है, और काल (Time) की दृष्टि से स्थिरता (duration) वाले हैं। संसार के ऐसे किसी भी पदार्थ की कल्पना हम नहीं कर सकते जिसे देश और काल ने परिच्छिन्न न कर रखा हो। यही आइन्स्टीन का सापेक्षवाद है। प्रत्येक वस्तु देश और काल की अपेक्षा से है, क्योंकि बिना देश और काल के हम किसी पदार्थ की कल्पना कर ही नहीं सकते। जैसे देश और काल ही असली उपाधि या माया हो, जो किसी भी पदार्थ के पैदा होते ही उसे घेर लेती हो, परन्तु यथार्थ तत्त्व वह है जो काल और देश के बन्धन से परे है, इनसे निरपेक्ष होने के कारण ही उसे (Absolute) कहना होगा- वही शून्य है। इस प्रकार शून्य की व्याख्या होगी- ऐसा तत्त्व जो समय की दृष्टि से चौड़ाई में (temporally) लम्बाई में (vertically) और देश की दृष्टि से चौड़ाई (horizontally) में सब ओर से बंटा हुआ हो। अर्थात् वह निरवयव है, उसमें अनेक अवयवों में रहने वाला कोई अवयवी द्रव्य नहीं। वह शून्य (positive) चीज है, (negative) नहीं।
जो व्याख्या शून्य की है, वही व्याख्या ब्रह्म की है। जिस प्रकार उपर्युक्त विवेचन शून्य पर घटित होता है, ठीक उसी प्रकार वह विवेचन ब्रह्म के साथ भी ज्यों का त्यों अक्षरशः घटित होता है। इस तरह ऐसा लगता है कि वैदिक दर्शनों का खण्डन करने के लिए और अपने अनात्मवाद की स्थापना के लिए बौद्धों ने जो सूक्ष्म और गम्भीर दार्शनिक मन्थन किया वही सारा 'आधार सामग्री' (raw material) के रूप में शंकर को मिल गया और शंकर ने बौद्धों का खण्डन करने के लिए उस सब सामग्री को ज्यों का त्यों अपना लिया। इतना ही नहीं, प्रत्युत शंकर ने उस समस्त दार्शनिक सामग्री को अपना रंग देकर (finish) उन्हीं के हथियारों से उन्हीं के तर्कजाल को काट दिया। जिन तर्कों से वे अनात्मवाद की स्थापना करते थे, उन्हीं तर्कों से शंकर ने आत्मवाद की स्थापना की। बौद्ध जिस निरपेक्ष तत्त्व को 'शून्य' कहते थे, उसी निरपेक्ष तत्त्व को शंकर ने ब्रह्म कहा। परन्तु बौद्धों की शून्यवाद की फिलॉसफी में अपनी अद्वैतवाद की कलम लगाने से शंकर को माया, उपाधि और अविद्या का भी अनादित्व स्वीकार करना पड़ा। इसके बिना उसके तथाकथित ब्रह्म का मण्डन ही न बन पाता।
यह थोड़ा-सा विवेचन हमने इसीलिए किया है जिससे कतिपय आधुनिक राष्ट्रीय नेताओं और उच्चपदस्थ विद्वानों को यह कहने का अवसर न रहे कि शंकर के अद्वैत पर इस्लाम के एकेश्वरवाद की छाया है। शंकर ने इस्लाम से कुछ नहीं लिया, जो कुछ लिया वह बौद्धों से लिया और यह बात भारतीय दार्शनिक परम्परा के इतिहास में समीचीनतया ठीक बैठती है।


ईश्वर की वैज्ञानिक परिभाषा-
यों ब्रह्मसूत्र में 'जन्माद्यस्य यत:' और योगदर्शन में 'क्लेश कर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:' कहकर ईश्वर की अपने ढंग से परिभाषा की गई है, परन्तु दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि से यदि ईश्वर की कोई व्याख्या करनी हो तो हम वेद का निम्न मन्त्र उपस्थित करेंगे-


यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -अथर्व० १०/८/१
अर्थात् जो भूत और भविष्यात्मक काल का तथा सर्वत्र आकाश रूप से व्याप्त देश (space) का अधिष्ठाता है और जो केवल आनन्दस्वरूप है, उस ज्येष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है। (प्रकरणानुसार वेद में ब्रह्म शब्द प्रकृति और जीवात्मा का भी वाचक बनकर आया है, इसलिए यहां ज्येष्ठ ब्रह्म कहा है क्योंकि ब्रह्म केवल परमात्मा का ही वाचक है।


लौकिक ग्रन्थों में ईश्वर की एक परिभाषा महामुनि भर्तृहरि के नीतिशतक में मिलती है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि व्याख्या में ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक और वैज्ञानिक उलझनें सर्वथा समाप्त हो जाती हैं। ईश्वर की वैज्ञानिक व्याख्या करनेवाला वह श्लोक यह है-
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे।।
-दिशाओं और कल के बन्धन से रहित, अनन्त चितिमात्र ही जिसकी मूर्ति है और अपनी अनुभूति ही जिसमें एकमात्र प्रमाण है, उस शान्त तेज को नमस्कार है।


दिशा और काल के बन्धन की व्याख्या हम शून्य वाले प्रकरण में कर चुके हैं। अनन्त का अर्थ है (infinite) जो गणित-शास्त्र का (infinite) है- अर्थात् जिसमें कभी परस्पर न मिलनेवाली समानान्तर रेखाएं भी मिल जाती हैं- वैसे ही परमात्मा में भी सब विरोधों का परिहार हो जाता है इसलिये वह अनन्त है। 'स्वानुभूत्येकमानाय' की भी यथास्थान चर्चा हो चुकी है। शान्त और तेज शब्द भी परस्पर विरोधी है- जो शान्त होगा वह तेज नहीं होगा और जो तेज होगा वह शान्त नहीं होगा। परन्तु परमात्मा का तेज ऐसा ही है जो शान्त भी है और तेज भी- जैसे दीपक की लौ होती है।


वेद सबके लिए-
इसके आगे ऋषि ने वेद-सम्बन्धी चर्चा की है। इस सम्बन्ध में निम्न बातों का प्रतिपादन किया है। वेद ईश्वरकृत हैं, सृष्टि के आदि में बनाए गये हैं, ईश्वर नित्य है इसलिये उसकी रचना होने के कारण वेद भी नित्य हैं- अर्थात् प्रत्येक सर्गारम्भ में ये ही वेद आते हैं। ऋषि न केवल वेद के शब्दों को, किन्तु उनके अर्थों को भी ईश्वरप्रदत्त मानते हैं- अर्थात् पुस्तक रूप में तो वेद अनित्य हैं, किन्तु ज्ञानरूप में जहां तक शब्दों और उनके अर्थों का सम्बन्ध है, वेद नित्य है। इसी प्रसङ्ग में उन्होंने विकासवाद का भी खण्डन किया है। वेदज्ञान का प्रकाश अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चारों ऋषियों पर हुआ। जो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं उस में वेदों की व्याख्या है, परन्तु वे ग्रन्थ स्वयं वेद नहीं हैं। जो वेदों की शाखाएं हैं, वे भी शाखा मात्र हैं, वेद-कोटि में नहीं आती- अर्थात् चारों वेदों के ब्राह्मण, छह अंग, छह उपांग, चार उपवेद और वेदों की ११२७ शाखाएं, ये सब महर्षियों के बनाए ग्रन्थ हैं। ये सब परत:प्रमाण हैं और स्वतःप्रमाण केवल चार वेद ही हैं। वेदों की भाषा संसार की सब भाषाओं की मूल है, वेदभाषा किसी देश-विदेश की भाषा नहीं है। जिस भाषा में वेद हैं, यदि वह किसी देश की भाषा होती तो उससे परमात्मा का पक्षपात प्रकट होता। जैसे ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि के अन्य पदार्थों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों पर भी ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं है- वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णों और संसार के सब देशवासियों के लिए हैं।
विकासवाद के अनुयायी वैज्ञानिक यह कहते हैं कि वेदों को ईश्वररचित मानने की कोई आवश्यकता नहीं, Trial and Error के सिद्धान्त के अनुसार जैसे बच्चा गिरते-पड़ते अन्त में चलना सीख ही लेता है, वैसे ही मानवजाति भी विकास करते-करते वेदज्ञान तक पहुंच जाएगी।


मानवीय ज्ञान नैमित्तिक-
इसके उत्तर में निवेदन है कि मानव में तथा सृष्टि के अन्य प्राणियों में एक बहुत बड़ा अन्तर है। अन्य प्राणियों के गुण-कर्म-स्वभाव जैसे भी होते हैं जन्मकाल से ही होते हैं। इसीलिए वे जो काम करते हैं, वह पशु-प्रवृत्ति या Animal Instinct कहलाती है। जो मांसाहारी प्राणी हैं उनके बच्चों को मांस खाना या जो वनस्पतिभोजी हैं उनके बच्चों को वनस्पति खाना सिखाना नहीं पड़ता। अपने इस स्वभाव को वे बदल भी नहीं सकते। शेर कभी घास नहीं खाएगा और गाय कभी मांस नहीं खाएगी। इसी तरह भैंस का बच्चा या बत्तख अपने जन्मकाल से ही बिना सिखाए पानी में तैरना जानते हैं, परन्तु आज तक यह कभी नहीं देखा कि किसी बड़े से बड़े तैराक का बालक भी बिना सिखाए पानी में तैरना जानता हो। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य का जितना भी ज्ञान है, वह नैमित्तिक है। मनुष्य अपने माता-पिता या साथियों का अनुकरण करके या किसी गुरु के सिखाने से ही सीखता है। यदि मनुष्यसमाज से अलग करके किसी बालक को जानवरों से भरे समाज में या एकान्त में रख दिया जाए तो उसमें न वाणी का विकास होगा, न अन्य मानवीय ज्ञान का। इस प्रकार के परीक्षण अनेक बार किये जा चुके हैं। जो जंगली जातियां हैं, वे हजारों सालों से असभ्यता का शिकार हैं। यदि स्वयं ज्ञान का विकास होता तो इस वैज्ञानिक युग में जंगली जातियां कहीं दृष्टिगोचर नहीं होतीं, परन्तु उचित मार्ग-निर्देशन मिलने पर उनके जीवन में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। जैसे वर्तमान समय में हम अपने गुरुओं से पढ़कर विद्वान् होते हैं। वैसे ही सृष्टि के आरम्भ में अग्नि आदि ऋषियों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान दिया और उसके बाद से फिर गुरु-शिष्य परम्परा चल पड़ी। वेद की आवश्यकता ऋषि ने इन शब्दों में प्रकट की है, "जैसे माता-पिता अपने सन्तानों पर दया दृष्टि कर उनकी उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है, जिससे मनुष्य अविद्यान्धकार के भ्रमजाल से छूट कर विद्या-विज्ञान रूप को प्राप्त होकर आनन्द में रहें और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जाएं।"


ईश्वरीय ज्ञान का अर्थ-
वेद 'ईश्वरीय ज्ञान' है, यह कहते हुए एक भ्रम भी हो सकता है जिसका निराकरण कर देना आवश्यक है। 'ईश्वरीय ज्ञान' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं- एक तो ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान, और दूसरे ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान। यदि वेद में ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान ही माना जाए, जैसा कि अनेक लोग उन्हें 'आध्यात्मिक ग्रन्थ' कहकर प्रकट करना चाहते हैं, तो वह वेद के स्तर को गिरा देना होगा। क्योंकि वेद में केवल ईश्वर-सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं है, उसमें जीवात्मा और प्रकृति सम्बन्धी और मानव जीवन सम्बन्धी ज्ञान का भी अक्षय भण्डार है। इसलिये 'ईश्वरीय ज्ञान' का अर्थ ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही समझना चाहिए- तभी आर्यसमाज के तीसरे नियम में वर्णित ऋषि की यह घोषणा अर्थवती सिद्ध होगी-
"वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।"
-'आर्योदय (साप्ताहिक) १९६४' का सत्यार्थप्रकाश विशेषांक


[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]


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