ईसाई मिशन्स और भारत
ईसाई मिशन्स और भारत
ईसाई धर्मवेत्ताओं, विद्वानों, मिशनरीयों और लेखकों के यीशु ख्रिस्त [Jesus Christ] विषयक सदीयों से बडे-बडे दावों के बावजूद, योरोप और अमरिका के बुद्धिजीवी वर्ग ने ईसाई विश्वास के यीशु ख्रिस्त का स्वीकार करने से मना कर दिया है। आज-कल वहाँ उपन्यासों के कल्पित यीशु [Jesus of Fiction] का ही बोल-बाला है। भारतविद्याविद् डॉ. कोनराड एल्स्ट का कहना है कि पश्चिम में, विशेषकर योरोप में, ईसाईयत की लोकप्रियता और वहाँ के चर्चों में ईसाई विश्वासीयों की उपस्थिति निरन्तर कम होती जा रही है। वहाँ के समाज में पादरी के व्यवसाय के प्रति दिलचस्पी का अभाव भी चिंता का विषय बन गया है। योरोप में केथोलिक पादरीयों की एवरेज वय 55 साल है; नेदरलैंड में यह 62 है, और बढती ही जा रही है। वास्तविकता यह है कि योरोप और अमरिका के आधुनिक लोगों की ईसाईयत में अब कोई रूचि नहीं रही है।
आर्थर जे. पाईस का कहना है कि बदले हुए परिवेश में पादरीयों की भूमिकाएं भी बदल गई है। भूतकाल में पश्चिम के ईसाई पादरी पूर्व के देशों में अपने मत का प्रचार-प्रसार करने आते थे, और आज भारत के पादरी पश्चिम में जा रहे है - ईसाई मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए नहीं, परन्तु वहाँ की ईसाई संस्थाओं को बंद होने से बचाने के लिए, चालु स्थिति में रखने के लिए। वहाँ के चर्चों, स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और रिहेबिलीटेशन केन्द्रों में धार्मिक शिक्षा और काउंसेलिंग देने ले लिए पूर्व के पादरीयों की भारी मांग रहती है। अमरिका में भारतीय ननों की भी भारी मांग रहती है। ज्यादातर नन जो अमरिका जाती है और वहाँ के शिकागो आदि शहरों के स्लम एरिया में कार्य करती है वे मदर टेरेसा के कोन्वेन्ट्स की ही होती है। पाईस कहते है कि केथोलिसिज्म [Catholicism] भारत जैसे विकसित देशों में आज भी एक शक्तिशाली तन्त्र है, जबकि उपभोक्तावादी पश्चिम में समय के साथ-साथ उसकी ताकत कम होती जा रही है। समग्र योरोप में असंख्य भव्य चर्च आज खण्डहर बन चुके है। कई चर्चों का रखरखाव करने वाला आज वहाँ कोई नहीं है। कई चर्च गैर-ईसाईयों को बेचे जा चुके है, जिन्होंने इन चर्चों को अपने पूजा-स्थलों और व्यापार केन्द्रों में परिवर्तित कर दिए है। (The Sunday Observer, नई दिल्ली, 16-22 जनवरी 1994)
ऐसा क्यों हुआ? कारण स्पष्ट है। योरोपीयन ईसाईयों का ईसाईयत से मोहभंग हो चुका है। योरोप और अमरिका के ज्यादातर लोग, जो ईसाईयत को छोड चुके है, आज महसूस कर रहे है कि ऐसा करके उन्होंनें कुछ भी खोया नहीं है। वे लोग जान चुके है कि यीशु ख्रिस्त परमेश्वर का एक-मात्र पुत्र नहीं था, उसने मानवता को शास्वत पाप से बचाया नहीं है, और इस लोक और परलोक में हमारे जीवन का सुख ईसाईयत की किसी भी मौलिक मान्यता पर निर्भर नहीं करता। वास्तव में, पश्चिमी जगत को आज “ईसाई पश्चिम” कहकर पुकारना ही गलत है, लेकिन ईसाई मिशन्स आज भी भारत और एशिया के अन्य देशों मे सक्रिय है इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि पश्चिम से ईसाई मिशनों को संचालित करने वाले लोग हिन्दू, बौद्ध आदि “धर्मविहीन लोगों” (heathens) की आत्मा को शास्वत नर्क की यातनाओं से बचाने का पवित्र कार्य कर रहे है। वास्तव में, एशिया के देशों में कार्यरत ये ईसाई मिशन्स पश्चिम के पोलिटीक्स और खुफिया तंत्रों के हथकण्डे मात्र है, जिसका प्रयोग प्राय: यहाँ की सरकारों में दखल देने के लिए और यहाँ की समाज-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए किया जाता रहा है। भूतकाल में पश्चिम की शक्तिशाली सेनाएं यीशु के लिए सक्रिय थी; आजकल पश्चिम की प्रचूर सम्पत्ति के बल पर यीशु के व्यापारी (merchants of Jesus) अपना धंधा चला रहे है। इसलिए भारत में कार्यरत ईसाई मिशन्स के प्रचंड तंत्र में धर्म-तत्व खोजने का व्यर्थ प्रयास करने की भुल कभी नहीं करनी चाहीए।
यह दुःखद आश्चर्य की बात है कि वेद-वेदांग, इतिहास-पुराण, षड्-दर्शन शास्त्र, रामायण-महाभारत, त्रिपिटक, जैनआगम और भक्ति साहित्य की भूमि भारतवर्ष में ईसाई मिशनरीयों को बाईबल के यीशु के लिए आज भी बाजार मिल रहा है! इस से भी ज्यादा विस्मय की बात यह है कि खुद हिन्दू सन्तों, बाबाओं, स्वामीयों, कथाकारों आदि धर्मध्वजीयों और सर्व-धर्म-समभाववादी सेकुलर जमातों द्वारा ईसाईयत को एक “धर्म” के रूप में और यीशु को एक “देवता” के रूप में स्वीकृति दी जा रही है!! भारत के इस विचित्र वर्तमान परिदृश्य को लक्ष में रखकर इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक Jesus Christ: An Artifice for Aggression (पृ. 82) में लिखा है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बाईबल का अध्ययन कर यीशु की असलियत सामने रख दी थी, लेकिन दुर्भाग्य से उनके बाद आने वाले हिन्दू नेताओं ने स्वामी दयानन्द के उदाहरण का अनुसरण नहीं किया!! तब से लेकर आज तक एक ओर तो ईसाई मिशन्स के कारनामों की कभी-कभार दबे स्वर में भर्त्सना की जाती रही है, जबकि दुसरी ओर यीशु की प्रशंसा के पुल बांधे जाते रहे है!! लेकिन यह प्रयुक्ति कारगर सिद्ध नहीं हुई है। यीशु के प्रति हिन्दूओं के इस लगाव को सीताराम गोयल जी हिन्दूओं की कमजोरी के रूप में देखते है। उनका कहना है कि हिन्दूओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर ही राइमुन्डो पनिक्कर (The Unknown Christ of Hinduism), एम.एम. थॉमस (The Acknowledged Christ of the Indian Renaissance), के.वी. पॉल पिल्लई (India’s Search for the Unknown Christ), एलिसाबेथ क्लेर प्रोफेट (The Lost Years of Christ), केथलिन हिली (Christ as Common Ground: A Study of Christianity and Hinduism) आदि ईसाई लेखक हिन्दू धर्म में यीशु को बलात् घुसेडने को प्रोत्साहित हुए है, जबकि वास्तविकता यह है कि यीशु ख्रिस्त और हिन्दू धर्म के मध्य दूर दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। हिन्दू पुनर्जागरण के किसी भी पुरोधा ने यीशु को ख्रिस्त (मसीहा) के रूप में स्वीकार नहीं किया था, और न ही यीशु, यदि वह वास्तव में था, ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान देने के लिए कभी भारत आया था। इसी तर्ज पर और इसी उद्देश्य से लिखी गई ऐसी और कई पुस्तकों का उल्लेख लिया जा सकता है, जिसमें यह सिद्ध करने का व्यर्थ प्रयास किया गया है कि यीशु को ख्रिस्त (मसीहा) के रूप में स्वीकार किये बिना हिन्दू धर्म अपूर्ण है। सीताराम गोयल जी का कहना था कि जब तक हिन्दू समाज स्पष्ट रूप से यह घोषणा नहीं कर देता कि सनातन धर्म और एक-मात्र उद्धारक की ठेकेदार ईसाईयत के मध्य कुछ भी समानता नहीं है तब तक बाजार में ऐसी फर्जी पुस्तकों की बाढ आती रहेगी। डॉ. कोनराड एल्स्ट का भी मन्तव्य है कि हिन्दूओं को, जो यीशु विषयक भावनात्मक जाल में फंस चुके है, यह जानना पडेगा कि हिन्दू धर्म का सार “सर्व-धर्म-समभाव” नहीं है, बल्कि हिन्दू (वैदिक) धर्म का मूल तत्व “सत्य” है।
अत: हिन्दू समाज के लिए यह समझ लेने का समय आ गया है कि यीशु हमारे लिए आध्यात्मिक शक्ति का प्रतिक या नैतिक जीवन का आदर्श कभी नहीं हो सकता। इतिहास साक्षी है कि शुरुआत से ही साम्राज्यवादी आक्रमणों के लिए यीशु का एक साधन के रूप में प्रयोग किया गया है, और आज भारत के सन्दर्भ में भी यीशु साम्राज्यवादी आक्रमण के एक साधन से ज्यादा और कुछ नहीं है। इन आक्रमणकारीयों के लिए यीशु रूपी यह साधन बहुत ही फायदेमंद सिद्ध हुआ है। इसलिए हिन्दू समाज को यह वास्तविकता समझ लेनी चाहीए कि साम्राज्यवादी ताकतों का यीशु रूपी यह हथकण्डा अपने देश और संस्कृति के लिए विध्वंसकारी सिद्ध हो सकता है। सीताराम गोयल का कहना है कि, “The West, where he [Jesus] flourished for long, has discarded him as junk. There is no reason why Hindus should buy him. He is the type of junk that cannot be re-cycled. He can only poison the environment”. अर्थात् “पश्चिमी जगत ने, जहाँ वह [यीशु] एक लम्बे समय तक फूला-फाला, उसको अब कबाड-कचरा समझकर फेंक दिया है. इसलिए कोई कारण नहीं है कि हिन्दू समाज उस कबाड को खरीदें। वह ऐसा कबाड है जिसे रि-सायकल नहीं किया जा सकता; वह केवल वातावरण को प्रदूषित ही कर सकता है।