आओ करें  जतन भगवान की सुरक्षा के

आओ करें  जतन भगवान की सुरक्षा के


        सन् १८३७ ई. की महाशिवरात्रि का अनुष्ठान मोरवी राज्य के टंकारा ग्राम में चल रहा था। ग्राम के जमींदार कर्षण जी अत्यन्त निष्ठावान शिवभक्त थे। वे तो अनुष्ठान में प्रमुखता से भाग ले ही रहे थे परन्तु आज वे विशेष रूप से प्रसन्न थे क्योंकि उनका लाडला १४ वर्षीय मूलशंकर पहली बार शिवरात्रि का व्रत रख शिवमंदिर में शिवदर्शन की चाह लिए रात्रि जागरण हेतु तत्पर था। अनुष्ठान पूरे जोरों पर था और उत्कंठित थे मूलशंकर कि उन्हें शिवदर्शन यथाशीघ्र हो जायं जैसे-जैसे रात्रि व्यतीत ही रही थी भक्तगण निद्रा देवी के आगोश में शरण ले रहे थे। यहाँ तक कि मूलजी के पिता तथा पुजारी भी सो गए। नहीं सोया तो केवल मूलशंकर। निद्रा से बोझिल आँखों पर पानी के छींटे मारकर जागता रहा, क्योंकि शिवदर्शन की तीव्र चाह जो थी मन मेंतभी एक ऐसी घटना घटी जो सामान्य जन प्रायः देखते रहते हैं और ध्यान तक नहीं देते। परन्तु जब इसी सामान्य घटना कोमूल जी ने देखा तो एक इतिहास का सृजन हो गया। परमपिता परमात्मा ने 'विवेक' नामक वरदान केवल अपने अमृत पुत्र मानव को दिया है वो इसलिए कि उचित और अनुचित में विभेद कर सके क्योंकि मानव में अन्य योनियों की अपेक्षा यही विशेषता है। मूलशंकर के इसी विवेक ने उस 'शिवरात्रि' को 'बोधरात्रि' बना दिया जिसने भारत में एक नए तर्काधारित युग का सूत्रपात किया।


        घटना थी चूहों का शिवलिंग पर चढ़ना और भोग प्रसाद का निश्शंक सेवन करना। मूषकों की इस लीला को देखकर मूलशंकर को 'शंकर' के वे सारे पराक्रम स्मरण हो आये जो पिताजी ने बार-बार सुनाये थे। यह प्रश्न बार-बार उनके जेहन में कौंधने लगा कि महापराक्रमी शिव इन निरीह चूहों का संहार आखिर क्यों नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः जड़-पूजा और उसके महात्म्य को चुनौती देता यह शाश्वत प्रश्न है जो उस समय मूलशंकर के दिमाग में कौंधा। इस प्रश्न के हर विचारशील मन में बार-बार उठने का एक प्रमुख कारण यह है कि इन सभी स्थलों को नाना प्रकार की असंभव, सृष्टिक्रम से विरुद्ध घटनाओं व चमत्कारों का जनक बताया जाता रहा है। कथानकों के अनुसार जब किसी विशेष समय पर ऐसे ही स्थलों पर भगवान ने भक्तों की प्रार्थना पर प्रकट होकर चमत्कार व अविश्वसनीय पराक्रमों का प्रदर्शन किया तो फिर आज क्यों नहीं? मल जी की श्रद्धा और चाहत में कोई कमी तो नहीं थी। मूल जी इन्तजार करते रहे पर जो नहीं होना था अर्थात् शिवजी का प्रकटीकरण, नहीं ही हुआ। विचारशील मूल के मन को इस 'न होने' ने मथ दिया।


         पराक्रमी शिव इन उत्पात मचाते चूहों को क्यों नहीं रोक रहे, क्यों नहीं दण्डित कर रहे? उत्तर के लिए पिता को जगाया। न पिता न पुजारी, कोई भी समाधान नहीं कर सका। पिता यही कह सके कि यह तो शिवजी के प्रतीक हैं सच्चे शिव तो कैलाश पर रहते हैं। बालक मूल ने निश्चय किया कि वे सच्चे शिव को प्राप्त करेंगे और इसी निश्चय के साथ वे रात्रि में ही घर चले गए। असत्य के साथ संभवतः बालक मूल एक क्षण नहीं बिता सके थे। कालान्तर में सत्य की खोज में मूल सदैव के लिए घर छोड़कर निकल पड़े। इस एक रात्रि को हुए बोध के कारण भारतवर्ष में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ जिसने समस्त सामजिक व धार्मिक रुढ़ियों व कुरीतियों को समलतः नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया और भारत को उसके प्राचीन वैभव की ओर ले जाने का अभिनव प्रयास कियाबोधरात्रि का प्रश्न आज भी अनुत्तरित है क्योंकि शाश्वत सत्य यह है कि जड़ पदार्थ कभी चैतन्य नहीं हो सकता।


        आस्था के नाम पर 'विवेक' को तिलाञ्जलि देना भारत को कभी रास नहीं आया, इतिहास इस बात का गवाह है। मोहम्मद गजनी ने केवल ५००० सैनिक लेकर गुजरात पर चढ़ाई की और इतिहासकार बताते हैं कि उस वक्त २५००० भक्त तो सोमनाथ के मंदिर में ही मौजूद थे, जिन्हें वही आशा थी जो कि मूल जी को उस रात थी कि शिव अभी-अभी प्रकट होंगे और इन दुष्ट मूषकों को दण्ड देंगे। सोमनाथ में उपस्थित भक्तों को आशा थी कि भगवान अभी प्रकट होंगे और इन म्लेच्छों का सफाया कर देंगे पर चमत्कार न मूल जी के सामने हुआ न इन भक्तों के समक्ष । नतीजा, न केवल सोमनाथ विजित हुआ, न केवल भक्तों का कल्ले आम हुआ, खुद शिवलिङ्ग को कई हिस्सों में नापाक इरादों वालों ने तोड़कर नष्ट कर दियामूल जी जो आगे चलकर महर्षि दयानन्द सरस्वती के नाम से विख्यात हुए, ने अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में अत्यन्त पीड़ा के साथ इस दुर्घटना पर टिप्पणी की- 'जब म्लेच्छों की फौज ने आकर घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप, पूजारी और उनके चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कहा कि तीन क्रोड़ रुपया ले लो, मन्दिर और मृर्त्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम 'बुतपरस्त' नहीं, किन्तु 'बुदिशकन' अर्थात् मृर्तिपूजक नहीं, किन्तु मृर्तिभंजक हैं । जाके झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी, तब चुम्बक पाषाण पृथक होने से मूर्ति गिर पड़ीजब मूर्ति तोड़ी, तब सुनते हैं कि अटारह क्रोड़ के रन निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा पड़े, तब रोने लगे। कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट, मार-कृट कर पोप और उनके चेलों को 'गुलाम' बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मलमूत्रादि उटवाया, और चना खाने को दियेहाय! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की? जो म्लेच्छों के दाँत तोड़ डालते! और अपना विजय करते। देखो! जितनी मूर्तियाँ हैं, उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती। पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की, परन्तु एक भी मूर्ति उनके शिर पर उड़के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की, मूर्ति के सदृश सेवा करते, तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता, और उन शत्रुओं को मारता


        ऋषि दयानन्द का यह किसी पर कोई तंज नहीं था बल्कि राष्ट्र के पराभव के कारणों का विश्लेषण करने के क्रम में और उसके मूल में अज्ञान और अंधविश्वास की पराकाष्ठा के दर्शन कर उत्पन्न हुयी वेदना की अभिव्यक्ति थी। वस्तुतः जड़ पूजा के साथ अवतारवाद और चमत्कारवाद अनिवार्यतः जुड़े हुए हैं जो अंधविश्वास को जन्म देते हैं। यही कारण है कि आज विज्ञान ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो अंधविश्वास इसलिए सुरसा की भाँति पैर पसार रहा है कि उच्च शिक्षित व्यक्ति भी इसके जाल से बच नहीं सका है। वस्तुतः वह बुद्ध और दयानन्द की चिन्तन पद्धति का अनुसरण करना ही नहीं चाहता अन्यथा तथाकथित रूप से परम पराक्रमी आराध्य देव की उपस्थिति में आये दिन हो रहीं चोरी की घटनाएँ तथा अन्य अपराध उसे कुछ सोचने को विवश करते। जिन चमत्कारों का दावा किया जाता है वे या तो असत्य ही होते हैं या फिर उनके पीछे कोई ‘ट्रिक' होती हैमहर्षि दयानन्द को अपने देश-भ्रमण में ऐसे ही अधिकांश स्थलों पर जाने अथवा ऐसे चमत्कारों के बारे में सुनने का अवसर मिला और उन्होंने उस चमत्कार के पीछे की संभावित 'ट्रिक्स' का वर्णन अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया। यथा-


       '..... क्योंकि वह ज्वालामुखी पहाड़ से आगी निकलती है, उसमें पुजारी लोगों की विचित्र लीला है। जैसे बघार के घी के चमचे में ज्वाला आ जाती, अलग करने से वा फंक मारने से बुझ जाती, और थोड़ा-सा घी को खा जाती, शेष छोड़ जाती है, उसी के समान वहाँ भी है। जैसे चूल्हे की ज्वाला में जो डाला जाय, सब भस्म हो जाता, जंगल वा घर में लग जाने से सबको खा जाती है, इससे वहाँ क्या विशेष है?


      '..... जिसने वारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी, वह विरक्त होकर मथुरा में आया था, मुझसे मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था। उन्होंने ये सब बातें झूठ बताई, किन्तु विचार से निश्चय यह है जब कलेवर बदलने का समय आता है, तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं, वह समुद्र की लहरियों से किनारे लग जाती है। उसको ले सुतार लोग मूर्तियाँ बनाते हैंजब रसोई बनती है, तब कपाट बन्द करके रसोइयों के विना अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों ओर छः और बीच में एक चक्राकार चूल्हे बनाते हैं। उन हण्डों के नीचे घी, मट्टी और राख लगा, छः चूल्हों पर चावल पका, उनके तले माँजकर, उस बीच के हण्डे में उसी समय चावल डाल, छः चूल्हों के मुख लोहे के तवों से बाँध कर, दर्शन करने वालों को जो कि धनाढ्य हों, बुला के दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हण्डों से चावल निकाल पके हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल दिखा के उनसे कहते हैं कि कुछ हण्डों के लिये रख दो। .......'


      प्रत्येक तर्कशील मनुष्य का यही निवेदन होगा कि स्थितियों के प्रत्यक्ष दर्शन और सतर्क विश्लेषण से और भी रहस्य उद्घाटित हो सकते हैं।


     अगर कोई इन चमत्कारों को सत्य मानता हो तो उसे इस प्रश्न का जबाब देना ही चाहिए कि जब वास्तविक परीक्षा का समय आता है, तो उस शक्ति का उपयोग क्यों नहीं किया जाता? कुछ वर्ष पूर्व केदारनाथ की साक्षी में जो प्राकृतिक विनाशलीला और उसमें उनके ही भक्तों की जो दशा हुयी, वहाँ उन्हें 'सेवियर' बनकर अपना चमत्कार दिखाना चाहिए था। आज तो यह स्थिति हो गयी है कि 'आराध्यों' को अपना अस्तित्व बचाना ही कठिन हो रहा है। हमने देखा गत वर्षों में अमरनाथ में शिवलिंग 'ग्लोवल वार्मिंग' तथा भक्तों की उपस्थिति से उत्पन्न ऊष्मा के कारण छोटा बन रहा था। इसको रोकने के लिए कृत्रिम शीतलन की व्यवस्था करनी पड़ी थी। क्या यह स्थिति बुद्धिजीवियों को चिन्तन का कुछ बिन्दु नहीं देती। अभी फिर ऐसा ही हुआ है। धार्मिक स्थलों पर यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि भक्तों के लगाए जयकारे तथा घंटियों की टनटनाहट वातावरण में गूंजती रहती है परन्तु पाया गया कि यह ध्वनिप्रदूषण शिवलिङ्ग पर विपरीत असर डाल रहा है अतः पवित्र शिवलिङ्ग की रक्षा के लिए एन जी टी ने अमरनाथ गुफा में भक्तों के जयकारे लगाने तथा घंटी बजाने पर प्रतिबन्ध लगाया है।


     बारह पवित्र ज्योतिर्लिङ्गों के बारे में सभी जानते हैं। इनके दर्शनों तथा पूजा-पाठ से होने वाले चमत्कारों के बारे में भी प्रायः लोग जानते हैं। उज्जैन के महाकालेश्वर की बात करें तो शिवपुराण में वर्णित उनके पराक्रम की एक कथा संक्षेप में यहाँ लिखते हैं-


     शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता' के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिङ्ग भगवान महाकाल के सम्बन्ध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार 'अवन्ति नगरी में एक वेद-कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। भगवान शङ्कर के परम भक्त वह ब्राह्मण प्रतिदिन पार्थिव लिङ्ग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। उनका नाम 'वेदप्रिय' था। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर 'दूषण' नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर ने वेद-धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण कर दिया। उस असुर को ब्रह्मा से अजेयता का वर मिला था। सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। 


       एक दिन सेना सहित दूषण शिव-पूजा में ध्यानमग्न वेदप्रिय और उनके पुत्रों के पास पहुंचा और उनको मार डालने का निश्चय किया। उसने ज्योंही उन शिव भक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंही उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिङ्ग की जगह गम्भीर आवाज के साथ एक गड्डा प्रकट हो गयां और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। दुष्टों का विनाश करने वाले तथा सज्जन पुरुषों के कल्याणकर्ता वे भगवान शिव ही महाकाल के रूप में इस पृथ्वी पर विख्यात हुए। उन्होंने अपने हुँकार मात्र से ही उन दैत्यों को भस्म कर डाला। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। इस पर सभी भक्तों ने प्रार्थना की कि हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजिए। भगवान शंकर अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।' कहते हैं कि यह दक्षिणमुखी एकमात्र ज्योतिर्लिङ्ग है। इस कथा में स्पष्ट है कि भक्तों की रक्षा हेतु स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए। क्या आपको नहीं लगता कि सोमनाथ के ज्योतिर्लिङ्ग को तोड़ने से पूर्व भी इसी प्रकार शिवजी का प्रकटीकरण हो क्रूर आक्रान्ता गजनी का अत्यन्त बुरा हश्र होना चाहिए था ऐसे ही दर्शन शिव का परम भक्त मूलशंकर चाहता था पर उसका इन्तजार इन्तजार ही रहा।


      अब इसी महाकालेश्वर मंदिर में स्थित शिवलिङ्ग के क्षरण को रोकने की अपार चिन्ता मंदिर प्रशासन व भक्तों को ही नहीं एन जी टी तथा माननीय उच्चतम न्यायालय को हो रही है। अभी ताजा निर्देशों के अनुसार भक्तों द्वारा की जाने वाली पूजाविधि पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए हैं। हिंदुस्तान डॉट कॉम के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार ज्योतिर्लिङ्ग पर आधा लीटर (केवल आर.ओ.वाटर) से अधिक जल चढ़ाया जाना प्रतिबन्धित किये जाने के बाद लोग शिवलिङ्ग को धातु के पात्र से स्पर्श किये बिना जल चढ़ा सकेंगे और गर्भगृह में निर्धारित किये गए जलपात्र ही अन्दर ले जा सकेंगे। मंदिर में बड़ी बाल्टी और घड़े ले जाना प्रतिबन्धित रहेगा और तड़के होने वाली भस्म आरती में भगवान को भस्मी चढ़ाते समय लिङ्ग को पूर्ण रूप से शुद्ध सूती कपड़े से ढका जाएगा (भस्म आरती केवल इसी ज्योतिर्लिङ्ग में होती है) तथा पूजन करते समय ज्योतिर्लिङ्ग को हाथ से रगड़ना या घिसा जाना पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित रहेगा। पञ्चामृत आदि पूजन सामग्री में खांडसारी का उपयोग किया जाएगा। महाकाल मन्दिर में ज्योतिर्लिङ्ग पर पुष्प एवं बिल्वपत्र शीर्ष भाग पर ही चढ़ाये जायेंगेगर्भगृह के क्षेत्र को स्वच्छ एवं सूखा रखा जाएगा।


      आज दयानन्द बोध रात्रि के अवसर पर विद्वद्जन अगर विवेक की साक्षात् मूर्ति दयानन्द की चिन्तनसरणि का अनुसरण करें तो अंधविश्वास को समूल नष्ट करने में एक बड़ा सूत्रपात पुनः हो जाएगा इसमें कोई संदेह नहीं है।


-अशोक आर्य


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