पन्डित गुरुदत्त विद्यार्थी और स्वामी अच्युतानंद संवाद।


अच्युतानंद – परन्तु गुरुदत्त तुम्हें क्या हुआ ?
 तुझे अपने लाल की भी चिंता नहीं ।
पुत्ररत्न की देखभाल में इतनी असावधानी!
अगले दिन यही प्रश्न पूछ लिया महात्मा ने।


 पंडित गुरुदत्त – ऋषि के दीवाने, मिशन के पागल, धून के धनी ने यह कहकर टाल दिया,
"कोई बात नहीं, स्वामी जी, वह शीघ्र नीरोग हो जाएगा।"
वाणी तो इतना कह कर मौन हो गई।
 पर हृदय ने मूक भाषा में भेद खोल ही दिया।


 "ऐ साधु ! प्रश्न का उत्तर चाहते हो ?


सुनो मुझे ऋषि के लिए अच्युतानन्द चाहिए।
 भारी से भारी मूल्य देकर भी उसे प्राप्त करूंगा और अपने मानस – पिता की झोली में डाल दूंगा।


 पुत्र का क्या है?  जाने कब बड़ा होगा? 
बड़ा होकर आर्य समाज के कार्य के योग्य बन पाएगा या नहीं? 
बन भी गया तो यह कार्य करेगा भी?


सब कुछ अनिश्चित है।
 पर आप तो सन्यासी है, योग्य है, विद्वान है, आप में कार्य करने की क्षमता है। यदि कहीं आप मिल जाओ तो फिर क्या चाहिए?
  साधु ! तुम एक पुत्र की बात करते हो, यहां कई होते तो भी सभी वार देता।


 सुनो साधु ! मेरा एक पितृकुल है और एक ऋषिकुल। 
यदि पितृकुल नष्ट हो जाए तो कोई चिन्ता नहीं।
 बस, मेरे ऋषि का कुल चलना चाहिए।


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