उसपरम तत्व को कैसे जाने

उसपरम तत्व को कैसे जाने


यही हर ब्यक्ति का प्रश्न है कि सृष्टि के इस परमतत्व को जाना कैसे जाय?
इस तत्व को जानने की जिज्ञासा ने ही योग शास्त्र को जन्म दिया जिसकी कई विधियां खोजी गई।


       भिन्न भिन्न शास्त्रो में भिन्न भिन्न विधिया का उलेख है जिसमे ज्ञान व क्रिया दो मुख्य मार्ग है । क्रिया मार्ग में पतंजलि का योगदर्शन एक प्रमाणिक ग्रन्थ है जिसमे अष्टंग योग की साधना बताई गई है। दूसरा मार्ग है हट योग का जिसमे षडंग मार्ग की बात कही है।


        दूसरी विधि ज्ञान की है जिसमे क्रिया की कोई आवस्यकता नही है।वह आत्मा चैतन्य तत्व आत्मा रूप में सबमे विद्यमान है। इसे जान लेना मात्र है। यह ज्ञान की विधि है। जिसे सहज योग कहा जाता है।


       तंत्र इसी को अनुपाय विधि कहता है। योग वाशिस्ट योग का महत्पूर्ण ग्रन्थ है जिसमे ज्ञान की सात भूमिका की बात कही गयी है। यह मुख्यतया वेदान्त का ग्रन्थ है सभी दर्शनों में इस आत्मज्ञान के लिए मन को मुख्य वाधा स्वीकार कर उसकी सुद्धि पर ही जोर दिया गया है तथा मन की विर्तीय के निरोध को ही एक मात्र उपाय माना गया है।


      तंत्र शास्त्र के अनुसार यही चित्त शक्ति मानव में भी है। इस शक्ति को जानना ही तंत्र शास्त्र का उद्देश्य है। जब तक यह शक्ति जागृत नही होती तब तक मनुष्य संसारी ही है।


      इस शक्ति का ज्ञान होने पर मनुष्य शिव ही हो जाता है। इस शक्ति को जगृत करने के अनेक उपाय है जिनमे श्रेष्ट उपाय गुरु कृपा है जिससे शक्ति का जागरण सरल हो जाता है तथा इसी से शिववस्था प्राप्त हो जाती है।


       जो मानव का चिदात्मा स्वरूप है। इसी ज्ञान से अद्वेत अवस्था की प्राप्ति होती है। यही जीव की सिद्धावस्था व परम् गति है।  इसकी गहन विधि गुरु द्वारा किसी योग्य पात्र को ही बताई जाती है जब  शिष्य समर्पित हो तथा ग्रहकता की स्थिति में हो।


      ब्रह्म की जो निष्कल अवस्था है वही जीव की निर्विकल्प अवस्था है। चित्त को एकाग्र करने वाला साधक जीवन पर्यंत जीव मुक्त अवस्था मे रहता है तथा मीरतु  के उपरांत वह विदेह मुक्ति को प्राप्त हो जाता है क्योंकि परमेस्वर से उसका स्वरूप अभिन्न होने से वह ईस्वर ही हो जाता है।


      जो अज्ञानी जीव है जिनको आत्म अनुभव नही हुवा है वे ही स्वर्ग नरक में जाते है अथवा ब्रह्मलोक में जाते है निराकार ब्रह्म का उपासक उसी समय ब्रह्म में लीन हो जाता है जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंद विलीन हो जाती है यही निर्विकल्प परम् पद है


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