स्वर्ग और नरक

       स्वर्ग और नरक, ये दो शब्द बहुत प्रचलित हैं। बचपन से आप सुनते आ रहे होंगे, हम भी सुन रहे हैं। और देख भी रहे हैं कि लोग स्वर्ग प्राप्त करने की बहुत इच्छा करते हैं, तथा नरक से बचना चाहते हैं। 


      स्वर्ग व नरक के विषय में कुछ भ्रांतियां भी हैं। जैसे कि प्रायः लोग यह मानते हैं कि स्वर्ग और नरक, इस धरती से दूर, ऊपर आसमान में कहीं पर हैं। यह तो भ्रांति है।    


     वास्तव में तो स्वर्ग और नरक दोनों यहीं इसी पृथ्वी पर ही हैं। आपके घर में हैं, आपके मन में ही हैं। वेद आदि शास्त्रों के अनुसार जहां सुख विशेष होता है, वहीं स्वर्ग है। और जहां दुख विशेष होता है, वहीं नरक है। इस प्रकार से सुख का नाम स्वर्ग और दुख का नाम नरक है।


       यह स्वर्ग और नरक आपके मन में कैसे हैं?  इस प्रश्न का उत्तर है, कि जो व्यक्ति अपने मन में संतोष का पालन करता है, वह सुखी होता है। और जहां सुख है, वहीं तो स्वर्ग है। संतोष का पालन आप अपने मन से करते हैं, इससे सिद्ध हुआ कि आपके मन में ही स्वर्ग है। असंतोष अर्थात लोभ का व्यवहार भी आप, अपने मन से ही करते हैं। जब लोभ करते हैं तब दुख होता है। क्योंकि तब सारी इच्छाएं पूरी हो नहीं पाती। और लोभ, तब दुख का कारण बन जाता है। अतः नरक भी मन में ही है।


       इसलिए यदि आप स्वर्ग की कामना करते हों, तथा दुख से छूटना चाहते हों, तो संतोष का पालन करें। इस बात की पूरी गारंटी है कि आप स्वर्ग अथवा सुख का अनुभव करेंगे। संतोष का अर्थ है पूरा परिश्रम करने के बाद जितना फल मिले, उतने में प्रसन्न रहना;  चिल्लाना नहीं कि, इतनी मेहनत की, फिर भी कुछ नहीं मिला। बल्कि ऐसा सोचना चाहिए कि जितना मिला, बहुत अच्छा है, इसका लाभ उठाओ। - स्वामी विवेकानंद परिव्राजक


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