शिव और शिवरात्रि


शिव और शिवरात्रि                                                                                               


शिवरात्रि = शिवरात्रि लौकिक व्यवहार में तत्पुरुष समास है। जिसका अर्थ है शिव की रात्रि। अब शिव कौन हैं? जिसकी रात्रि शिवरात्रि कही गयी है, महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपनें अमरग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में शंकर शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि य: शं कल्याणं, सुखं करोति स शंकर: अर्थात् जो कल्याण एवं सुख देने वाला है, इससे ईश्वर का नाम शंकर है। यही अर्थ शिव का है (यजु. १६.४१) में ऐसे परमेश्वर को शिव ही नहीं शिवतर, शिवतम, मयोभू: मयस्कर आदि नामों से स्मरण कर नमन किया है। जो साधक ज्योतिष्मयी, स्निग्ध, नीरव, शान्तिमय, वातावरण से युक्त रात्रि में शिव या शंकर बनने की साधना करता है, वह कल्याणकारी रात्रि शिवरात्रि है। पौराणिक मान्यता के आधार पर शिव का स्वरुप इस प्रकार है। शिव एक देवता हैं। वह कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। हिमालय की पुत्री पार्वती या उमा से इनका विवाह हुआ है। दायें हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में डमरु है। सिर पर गंगा और माथे पर अर्ध चन्द्रमा है। उनके तीन नेत्र हैं―वृषभ या नादिया उनकी सवारी है, गले में मुण्ड माला है, वह बाघम्बर धारण किए हुए हैं, गले में सर्प लिपटे रहते हैं, देवों के कष्ट हरण के लिए विषपान किया है। तो आइए इसी को प्रतीक मानकर समीक्षा करें। 
प्रथम― 
कैलाश― कैलाश क्या है (अमर कोष व्याख्या रामाश्रयी टीका पृष्ठ 35) के अनुसार―कै+लास = कैलास – क प्रत्यय से लस श्लेषण क्रीडनयो: धातु से इसकी सिद्धि होती है। कम इति जलम्, ब्रह्म व तस्मिन् के जले कै+लास= कैलास―क प्रत्यय से लस श्लेषण क्रीडनयो: धातु से इसकी सिद्धि होती है―
कम इति जलम् ब्रह्म व तस्मिन् के जले ब्रह्मणि लास: लसनमस्य इति कैलास:।
क अर्थात् ब्रह्म में क्रीड़ा करने का जिसका स्वभाव हो। यहाँ क से अभिप्राय ब्रह्म या ब्रह्मजल से है, क्योंकि 'क' नाम ब्रह्म का है। परम योगी साधक उस ब्रह्मजल में निमग्न रहता है। परमानन्द की प्राप्ति होने से वह कैलाश में सदा स्थिर रहता है। यही उसका कैलाशवाश है।


पर्वत― पर्वत दृढ़ता का प्रतीक है। साधक पर्वत की भाँति अपने व्रत में अड़िग रहता है। पर्वणि शुभे कर्मणि शुभ मति स पर्वत।


त्रिनेत्र― यह तीसरा नेत्र उसके माथे में स्थित है, जो ज्ञान नेत्र का प्रतीक है, इसी ज्ञान नेत्र से वे काम वासना को भस्म कर देते हैं। अत: वे कभी कामासक्त होकर अनाचार नहीं करते।


त्रिशूल― त्रिशूल=तीन शूल=कष्ट अर्थात् तीन कष्ट (1) आदि दैविक (2) आदि भौतिक (3) आध्यात्मिक। ये तीन कष्ट हैं―ये तीनों कष्ट या शूल काँटों के समान कष्टदायक हैं। इसलिए त्रिशूल हैं। परम योगी शिव इन तीनों कष्ट रुपी दु:खों को अपनी दायीं मुट्ठी में कर लेते हैं। यानि अपने वश में कर लेते हैं।


डमरु― शिव के बायें हाथ में डमरु है। डमरु शब्द संस्कृत के दमरु का अपभ्रंश है, जो दो शब्दों से बना है। 'दम' (दमन करना) 'रु' (ध्वनि) अर्थात् दमन संयम रुपी ध्वनि व्यक्त होती रहती है, यानि वे महान् संयमी हैं।


गंगा― शिव के माथे पर गंगाजी हैं, मस्तकवर्ती यह गंगा ज्ञान गंगा है। इसलिए सिद्ध है कि शिव ज्ञानी हैं।


चन्द्रमा― शिव के सिर पर अर्द्ध चन्द्रमा है। यह चन्द्रमा आनन्द और आशा एवं सौहार्द्र का प्रतीक है। 


विषधर― शिव के चारों ओर विषधर लिपटे हुए हैं। ये विषधर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईर्ष्या, द्वेष, पक्षपात आदि के प्रतीक हैं। जिन्हें योगी शिव अपने अन्त:करण से बाहर फेंक कर अनासक्त भाव से विचरण करते हैं।


हलाहल पान करने से नीलकंठ हैं― शिव का हलाहल पान करना इस बात का प्रतीक है कि वह विष समान कटुतर बातों को अपने कंठ से नीचे नहीं जाने देते अर्थात् उनका ह्रदय नितान्त निर्मल है।


मुण्डमाला धारण करता हैं― शिव का मुण्डमाला धारण करना, इस बात का प्रतीक है कि उनके कई जन्म हो चुके हैं।


शरीर पर भस्म रमाए हैं― शिव अपने शरीर पर भस्म रमाए हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह शरीर भस्म होने वाला है। (भस्मान्तं शरीरम्। (यजु. ४०/१५) आशय यह है कि योगी शिव शरीरादि मोह से विरक्त हैं यानि विलासिता से दूर हैं।


नादिया या वृषभ सवारी है― शिव की सवारी नादिया या वृषभ है,यह बल,पराक्रम, सामर्थ्य का प्रतीक है,साथ ही 'नादिया' नाद शब्द का अपभ्रंश है। नाद का अर्थ ध्वनि है, सर्वश्रेष्ठ ध्वनि ओंकार की है। 


समीक्षा― उक्त प्रतीकात्मक संकेतों के आधार पर शिव के सत्य स्वरुप से अवगत होंगे। श्रमण परम्परा की दृष्टि से कहे तो शिवजी पूर्ण योगी थे,,सिद्ध थे और समाधिस्थपुरुष थे।


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