शहर में सन्नाटा
कहानी.........
शहर में सन्नाटा
.........मैत्रेयी ने कैसे अपनाया वैदिक मत........
सन् 1962 की कहानी है यह....सरहद पर चीन ने भारत पर आक्रमण किया हुआ था और यहाँ शहर में एक नाबालिग बालिका पर बहशी दरिंदे दारोगा का हवश पूरी करने के लिए अटैक होने की आहट आने लगी थी। उस समय रात के दो बजे थे। पूरे शहर में सन्नाटा था। पुलिस थाने में बंद चोर उचक्के कोठरियों में बंदी अवस्था में ऊँघ रहे थे, जब भी सोने को होते उनके ऊपर गर्म पानी उड़ेल दिया जाता। सामने टेबल पर दारोगा बाबू अपने एक रिश्तेदार के साथ बैठे, कभी उनसे बात करते और कभी सलाखों के पीछे बंद एक 12 साल की किशोरी को घूर लेते थे। थाने में आया दारोगा बाबू का मेहमान देवबंद से उच्च शिक्षित था, जिसने आलिम फाजिल उर्दू माध्यम से किया था। वह जमायते इस्लामी हिन्द का जिला संयोजक भी था और महावत टोली के पेश इमाम और इससे पहले चंपारन बेतिया की मस्जिद में इमाम रह चुके थे। हिन्दू मुस्लिम दंगों में हिन्दुओं का सफाया करके क्षेत्रा को मुस्लिम बहुल बनाना और अरेबिक धन से गरीब और लाचार हिन्दुओं का धर्म बदलवाकर उनसे इस्लाम कबूल करवाना उसका एक और पेशा था। इन शख्स का नाम था मौलाना खुर्शीद आलम खाँ...
खैर दारोगा से रहा न गया और उस किशोरी को निकाल ले आया और एक दूसरे कमरे में उसे ट्रक के टायर की हवा भरी हुई ट्यूब पर उल्टा लेटा दिया और चमड़े की बैल्ट से उसकी खाल उधेड़नी शुरू की, ‘‘तो तू कबूल नहीं करोगी कि तूने हामिद भाई के होटल के गल्ले से 2000 रुपए चोरी किए हैं?’’
‘‘नहीं साहब, मैंने तो दो रोटी चुराई थी...’’
‘‘वह तो मालूम है रोटी तो चुराई थी बेवा और बीमार माँ के लिए...लेकिन रुपए भी तो उड़ाए थे ना...’’
‘‘नहीं साहब मैंने रुपए नहीं चुराए गायत्राी माँ की कसम...’’
‘‘ओह तो गायत्राी माँ के लिए रुपए चुराए थे, तुम्हारी माँ का नाम तो कटारी देवी है ना...’’
‘‘साहब गायत्राी माँ तो एक वेद मंत्रा है, कोई सच में मानव नहीं।’’
‘‘ओह! तू अनपढ़ गँवार चोरनी गायत्राी मंत्रा भी जानती है? अच्छा चल सुना दे।’’
उसने गायत्राी मंत्रा सुना दिया, गायत्राी मंत्रा सुनकर दारोगा बाबू ने मौलवी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तो मियाँ आज चखोगे इस कवाब का स्वाद, यकीन मानिए झूठा नहीं है, क्योंकि गायत्राी मंत्रा जो पढ़ती है, सुना है वेद पढ़ने वाली छोरियाँ चरित्रा की पाक दामन होती हैं।’’
मौलवी मुस्करा दिया और हाथ पैर बंधी लड़की के सलवार का नाड़ा एक झटके में दारोगा बाबू ने तोड़ डाला था...बेबस थी लड़की रोने लगी और रोते हुए गायत्राी मंत्रा का ही जाप कर रही थी और बोल रही थी, ‘‘गायत्राी माँ मुझे बचा लो...’’
अचानक ही मौलवी के मन में पता नहीं क्या आया कि उसने अपनी पगड़ी उतारकर उस लड़की के ऊपर डाल दी और एक झटके से दारोगा को अलग कर दिया, ‘‘इसे छोड़ दीजिए, यह धर्म में विश्वास करती है, यदि इस्लाम कबूल कर लेगी तो हमें नौ बार हज करने जितना शबाब मिलेगा,’’ फिर उस लड़की से कहा, ‘‘तो तुम इस्लाम कबूल करोगी?’’
‘‘नहींे साहब मैं इस्लाम कबूल नहीं करूँगी।’’
‘‘यदि इस्लाम कबूल नहीं करोगी, तो दारोगा बाबू तुम्हारी इज्जत लूट लेंगे, फिर तुम किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहोगी और बिन बिहायी माँ बन जाओगी...तुम्हारे माथे पर हमेशा के लिए कलंक लग जाएगा, लोग थू थू करेंगे तुम्हारे मुँह पर।’’
‘‘नहीं साहब मैं इज्जत और जान दोनों लुटा सकती हूँ, लेकिन
धर्म नहीं गँवा सकती, आज मैं बेबस हूँ, लाचार हूँ...मुझसे मेरा धर्म मत छीनों...मैं कँगाल हूँ, मेरे पास धर्म के सिवाय और कुछ धन नहीं है।’’
‘‘हम धर्म नहीं छीन रहे, तुमसे अल्लाह पर ईमान लाने को कह रहे हैं।’’
‘‘ऐसा ईमान लाने से तो मरना भला है?’’
‘‘यदि तुम इसलाम नहीं कबूलोगी तो हम तुम्हें कोठे पर बैठा देंगे ...’’ एक बार फिर दारोगा चल पड़ा था बालिका की अस्मत पर हाथ डालने के लिए, लेकिन मौलवी ने उसे रोक दिया, ‘‘इसे हम कल अपने घर ले जाएँगे और हम समझा लेंगे।’’
मौलवी का घर तो दूसरे शहर में था, यहाँ तो रिश्तेदार के पास वह किसी काम से मिलने आया था, उस दिन रिश्तेदार दारोगा की ड्यूटी थाने में थी, इसलिए थाने चला आया था, देर रात की गाड़ी होने से...फिर वहीं थाने के पास ही दारोगा का घर भी था...घर क्या सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था, वहीं पुलिस लाइन में...
खैर मौलवी अगले दिन उस लड़की को वहाँ से उसी के घर ले गया और उसकी वृद्ध माँ को खूब समझाया कि वह और उसकी बेटी इसलाम कबूल कर ले। दोनों माँ बेटी इसके लिए तैयार नहीं हुई तो मौलवी पास की अलमारी में रखी किताबंे उलटने पलटने लगा कि ऐसा क्या पढ़ती हैं ये जो धर्म नहीं दे सकती, परंतु जान दे सकती हैं। इसी घर में उसके हाथ एक पुस्तक लगी, जिसका नाम था ‘बंगाल कैसे मुस्लिम प्रांत बना!’ जिस जमाने में वह किताब लिखी गई थी, उस जमाने में बिहार शायद बंगाल का हिस्सा रहा होगा, क्योंकि उसमें मौलवी के गाँव के इस्लामीकरण की भी कहानी थी। तो मौलवी को पता चला कि उसके पूर्वज मिश्र ब्राह्मण थे। एक पुस्तक उसे और मिली नूरे हकीकत यानी कि सत्यार्थ प्रकाश का उर्दू रूपांतरण...वह दोनों पुस्तकें अपने साथ ले गया और माँ बेटी को कुछ पैसा देकर वहीं छोड़ गया, लेकिन जाते हुए अपने रिश्तेदार दारोगा को भी सावधान कर दिया कि उनको सताए ना...मौलवी ने नूरे हकीकत पढ़ा तो उसके विचार बदल गए और उसने वैदिक धर्म अंगीकार करने का मन बना लिया...जब आर्य समाज के सामने उसने अपने वैदिक धर्म अंगीकार करने की बात रखी तो आर्य समाजी भी डर गए, क्योंकि मौलवी के रिश्तेदार अधिकतर पुलिस में बड़े पदों पर थे, इसलिए यदि मौलवी वैदिक धर्म अंगीकार कर लेते तो रिश्तेदार हिन्दुओं को सताते अवश्य ...पूरे बीस वर्ष तक वह भारत में भटकता रहा और हिन्दू संस्कृति पर अनुसंधान करता रहा...अंततः सितंबर 1981 में विश्व हिन्दू परिषद और आर्य समाज के एक संयुक्त कार्यक्रम में उन्होंने भारी जनसमूह के सामने वैदिक धर्म अंगीकार किया और अपना नाम रखा जयप्रकाश आर्य...और अपनी पत्नी का नाम उर्मिला आर्य और उस लड़की...जो अब अधेड़ उम्र की हो चुकी थी, उसे अपने घर लेकर आए और एक आर्य परिवार में उसका कन्यादान किया...उन्होंने वेदों का प्रचार करना शुरू किया और कई वर्ष तक वेदों का प्रचार करते रहे, लेकिन एक दिन उनके एक मुस्लिम रिश्तेदार ने अपने वाहन से टक्कर मारकर जयप्रकाश को शहीद कर दिया... उनकी विधवा पत्नी एक हिन्दू बहुल शहर में चली गई और वैदिक परंपरा के अनुसार जीवनयापन करने लगी और कभी-कभी उनके घर वह बेटी आती है, जो कभी थाने में पूर्व मौलवी को मिली थी, जिसकी उन्होंने इज्जत बचाई थी, परंतु उसके बदले उस बेटी से उसे मिला वैदिक धर्म पुरस्कार के रूप में...उस बेटी को आज कोई नहीं जानता, जयप्रकाश आर्य और उर्मिला को बहुत से लोग जानते हैं...चलिए हम उस बेटी से परिचय करवा देते हैं, उस बेटी का नाम है...मैत्रोयी...जो आजकल गाजियाबाद में रहती हैं।