सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए
सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते (गीता) संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ज्ञान प्रकाश और अज्ञान अन्धेरा है। अन्धेरे में कोई वस्तु साफ व असली रूप में दिखाई नहीं देती है। हर वस्तु रोशनी में साफ तथा असली रूप में नजर आने लगती है। इसी तरह संसार की वातों को समझने के लिए सत्य ज्ञान की जीवन में कदम-कदम पर जरूरत है।
सुख का मूल क्या है? धर्म और धर्म का मूल? नेक कमाई का (धन) अर्थ। अर्थ का मूल क्या है? राज्य। फिर राज्य का मूल क्या है? इन्द्रियों को जीतना। इस जीतने का मूल क्या है? वृद्धों की सेवा और इस सेवा द्वारा आत्मकल्याण करना, तब जीवात्मा होकर सम्पूर्ण पदार्थों से परिपूर्ण हो जाता है।
सर्प से भी अत्यन्त भयंकर कौन है, विश्वासघाती, परस्त्रीगामी, जो दूसरों को धोखा देकर भी लज्जित न होता, जुआरी तथा चुगलखोर ये सर्प से भी अधिक भयंकर हैं। मनुष्यों को कौन-से गुण नहीं त्यागने चाहिएं? सत्य, दया, प्रेम, सतर्कता, दान, धैर्य, शम (मन के वेगों को रोकना) और इन्द्रियों का दमन, ये कल्याणकारी आठ गुण त्याज्य नहीं हैं।
मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है। यह संसार नर्क नहीं है। इसको नरक और स्वर्ग मनुष्य ही बनाता है। यह कर्मभूमि है, तपोभूमि है। तपस्वी लोग यहाँ आकर तप करते हैं। यह देवभूमि है। देवता यहाँ आकर यजन करते हैं। असुर लोग अपने स्वभावानुसार असुर लोक में उपद्रव करते हैं तो यहाँ आकर भी वे उत्पात ही मचाते हैं। परन्तु इस भूमि का यह गुण है कि यहाँ जो जैसा बीज डालता है वह वैसा ही फल पाता है। यह मनुष्य शरीर पुण्य कर्म करने के लिए प्राप्त हुआ है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। इस मानव शरीर में बोये हुए बीज का फल काटने के लिए जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। मानव ही एक योनि है शेष सब तो भोग योनियाँ हैं। अत: मानव योनि में रहकर जीवात्मा स्वयं अपने हाथों अपने भाग्य का सर्जन करता है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना वैदिक धर्म प्रचार-प्रसार के लिए की थी, जिसके कारण संसार में सुख-शान्ति पैदा की जा सकती है। किसी विद्वान् ने लिखा है-
वेद का धर्म एक सच्चा सनातन धर्म है।
वेद के अनुकुल जो हो कर्म सच्चा कर्म है॥
वेद का ही सच्चा ज्ञान है भगवान का।
हो सदा कल्याण इससे विश्व के इन्सान का॥
आत्मा की शुद्धि का उपाय है वेदाध्ययन एवं योगाभ्यास वैदिक दर्शन प्रार्थना, पूजा व उपासना का प्रयोजन आत्मशुद्धि मानता है। उपासना परमात्मा के लिये नहीं की जाती। यह मनुष्य जाति की शान्ति, आत्मविश्वास व उत्थान के लिये की जाती है।
मनुष्यों की सब कामना पूर्ण करने वाले परमेश्वर की आज्ञा पालन करके और अच्छी प्रकार पुरुषार्थ से विद्या का अध्ययन, विज्ञान, शरीर का बल, मन की शुद्धि, कल्याण की सिद्धि तथा उत्तम से उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति सदैव करनी चाहिये। इस सम्पूर्ण यज्ञ की धारणा व उन्नति से सब सुखों को प्राप्त हो करके औरों को भी सुख की प्राप्ति करानी चाहिये तथा सब व्यवहार और पदार्थ को नित्य शुद्ध करना चाहिये। (यजु०)
महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि मनुष्य जाति एक ही जाति है, परन्तु इन नकली राजनेताओं के कारण मनुष्य जातियाँ दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण आरक्षण है। पूरे संसार में भारत ही एक ऐसा देश है जिसके आरक्षण के कारण मानवता का ह्रास होता जा रहा है। अतः राजनीति धर्मसंगत होनी चाहिए न कि सम्प्रदाय एवं जाति सम्मत। इसी से हम सबका भला होगा।
अपने कर्तव्य का पालन करना ही धर्म आधार है। जो व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन करे उसे ही उसका अधिकार प्राप्त कराया जाये। लेकिन भारत का बड़ा दुर्भाग्य है कि कर्तव्य का पालन करना अधिक लोगों ने पाप मान लिया है अधिकार को प्राप्त करना पुण्य माना जा रहा है। यह भारत में सबसे बड़ी अराजकता का कारण है।
मोटी दृष्टि वाले स्वार्थी लोग कहा करते हैं कि झूठ फलता है और सच्चे लोग दुःख उठाते हैं । अत्याचारियों का औबोलबाला होता है और न्यायप्रिय लोगों को दःख होता है। परन्तु यह बात ठीक नहीं है । सच्ची बात यह है कि इंश्वर उसकी सृष्टिक्रम भले लोगों का पोषक है बुरे लोगों का नहीं ! बुरे लोग कभी-कभी आरम्भ में सफलीभूत दिखाई देते हैं, परन्तु एक सीमा के पश्चात् प्रकृति उनके नाश का साधन उपस्थित कर देती है। यदि ऐसा न हो तो सारा संसार ही नष्ट हो जाता।
किसी समाज के समुचित संचालन के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है 'ईश्वरविश्वास जिस समाज के व्यक्तियों में इंश्वर विश्वास का अभाव हो जाता है, वह समाज सर्वसम्पत्र होते हुए भी नष्ट हो जाता है। उसमें कुत्सित प्रवृनियाँ बढ़ जाती हैं। लोगों को अनाचार से वृणा नहीं रहती शीत्र ही अत्याचार की ओर प्रवृत हो जाते हैं। ईश्वर से उल्ने वाले किसी बुराई या बुरे मनुष्य से नहीं डरते जो ईश्वर से नहीं डरता वह छोटी-छोटी वस्तुओंसे डरता है, क्योंकि वह बुराइयों में शीघ्र फंस जाता है।
कार्य को समाज का स्वामी सोमानन्द जी बताया का कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द अपने शिष्यों से कहा करते थे, “रोटी खाओ घर की, गाली खाओ समाज की और कार्य करो दयानन्द का।" इसका भाव यह था कि यदि अपमानित भी होना पड़े तो लोक कल्याण के लिए भगवान के वेदज्ञान की पावन ज्योति से जग को जगमग करने का श्रेष्ठ कार्य करते जाओ!
आज भारतीयता पाश्चात्य-संस्कृति के बोझ तले दब गई है। तर्कशीलता ने ज्ञान, संस्कृति एवं धर्म को किनारे लगा दिया है। भौतिकवाद ने मानव को स्वार्थी, लालची एवं धोखेबाज व निकम्मा बना दिया है। अर्थात् जिस प्रकार लोहे से निकला मैल लोहे को खा जाता है, उसी प्रकार दराचारी मनुष्य को दुष्कर्म ही दुर्गति की ओर ले जाते हैं।
घनेनास्ति क्षुधा शान्ति क्षुधा प्रकृतिजा परम्।
धनेन भोगा प्राप्यन्ते न तु शान्ति कदाचन॥
टौलत से रोटी मिल सकती है पर भूख नहीं मिल सकती। दौलत से सख मिल सकता है पर शान्ति नहीं मिल सकती।
आर्यसमाजों के सिद्धान्त विरुद्ध कार्यों को बढ़ाने में अधिकारी, विद्वान्, सदस्य आदि सभी दोषी हैं। सच यह है कि ऋषि एवं आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति जो हमारी दृढ़ता, निष्टा, कट्टरता तथा वचनबद्धता होनी चाहिये वैसा नहीं है। हम केवल पद लाभ, मान, महत्त्व व अहंकार की पूर्ति के लिये आर्यसमाजी हैं (आर्य नहीं) इसी कारण आर्यसमाजों में बिखराव, अराजकता, अनुशासनहीनता आदि बढ़ रही है। हमारे जीवनों में धार्मिकता समाप्त हो रही है। इसी कारण से ऐसा हो रहा है।
ईश्वर जीव के लिए उपदेश करता है कि हे मनुष्यात जब तक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेंगा तब तक मुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी। इससे तृ परोपकार करने सदा हो।
वे ही लोग असुर, दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि हैं जो आत्मा में और जानते, वाणी से और बोलते और करते कुछ और ही हैं। वे कभी अविद्या रूप दुःखसागर से पार हो आनन्द को प्राप्त नहीं हो सकते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से निष्कपट एकसा आचरण करते हैं, वे ही देव आर्य सौभाग्यवान सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक और परलोक के अतुल सुख भोगते हैं।
भ्रष्ट राजनेता एवं उनके सेवक आर्यसमाजों में प्रवेश करके आर्यसमाज के माध्यम से अपने स्वार्थ के कारण आर्यसमाजों को भी बरबाद करने पर तुले हुए हैं। इनमें झूठ बोलने एवं मीठा बोलने के कारण नोट और वोट कमाने में सफलता प्राप्त करके अहंकार उत्पन्न हो जाता है। पदों के चक्कर में रहना अहंकार की बात है, चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात है। सभी धर्मशास्त्रों में झूठ बोलना बड़ा पाप माना गया है। इसलिए परमात्मा की व्यवस्था के आधार पर इसका परिणाम भोगना पड़ता है। विनाशकाले विपरीत बुद्धि-इन्हें कोई अच्छा सुझाव दे तो उसे बुरा मानते हैं और जो इनको बुरी सलाह दे तो उसे अच्छा मानते हैं। आर्यसमाजों के नेता बन जाते हैं, लेकिन आर्यसमाज को तो सेवकों की आवश्यकता है।
भ्रष्ट राजनेताओं के पिछलग्गू आर्यसमाजी सदस्य आर्यसमाजों में राजनीति एवं जातपात का प्रकोप बढ़ाते जा रहे हैं। हमारे देश की राजनीति है, "खाओ पीओ ऐश करो, भ्रष्ट राजनेताओं की जेब में नोट भरो।" वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वतो ने लिखा है, "जिस दिन पुरोहित और नेतागण पाखण्ड करेंगे और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आर्यसमाज समझौता करने लगेगा, सिद्धान्तों को छोड़कर दूसरों की प्रसन्नता का विचार करेगा उस दिन आर्यसमाज भी पाखण्डी हो जाएगा।"
आज आर्यसमाजों के हालात इस ओर बढ़ते जा रहे हैं। यह स्मरण रखिये कि यदि आर्यसमाज जीवित है तो राष्ट्र भी जीवित रहेगा और विश्व की मानवता भी अन्यथा राष्ट्रों के कुटिल चक्र और साम्प्रदायिकता एवं जात-पात हमें पूर्ण विनाश की ओर ले जायेगी। अत: मेरी सभी आर्यसमाज के अधिकारियों से प्रार्थना है कि आर्यसमाज के नियम-उपनियम को आर्यसमाजों में पूर्णरूप से लागू किया जाए क्योंकि चाहे कितना ही अच्छा धर्म क्यों न हो जब तक उसके नियम-उपनियमों को अपने जीवन में धारण करके दिखाने वाले लोग नहीं होंगे तब तक वह धर्म उन्नति नहीं कर सकता।
यह वैदिक धर्म हमारा, यह वैदिक धर्म हमारा।
हम हैं इसके रक्षक सारे, तन-मन-धन सब इस पर बारे।
है यह प्राणाधारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥1॥
धर्म की खातिर जीना मरना, मातृभूमि की सेवा करना।
है कर्त्तव्य हमारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥2॥
घर-घर वेदमंत्र सब गायें, वैदिकधर्मी बस बन जायें।
आर्य बने जग सारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥3॥
जातपात के भेद मिटायें, द्वेषभाव सब दूर हटावें।
बहे प्रेम की धारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥4॥
भर दे विश्व में प्रेमभावना,सबकी भले की करे कामना।
है उद्देश्य हमारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥5॥
सब मिलकर प्रभु के गण गायें, वैदिकधी सब बन जाये।
होवे जगत् उद्धारा, यह वैदिक धर्म हमारा॥6॥