सफलता के सहयोगी


       व्यक्ति के मन में प्रतिपल कामनाओं की तरंगें उठती रहती हैं, वह विकास चाहता है, उन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहता है, परन्तु अभाव के झोंके, प्रतिकूलताएँ, बाधाएँ राह को रोकती हैं। केवल जो संकल्पवादी है, वह सारी प्रतिकूलताओं से निकलता हुआ अपने उद्देश्य या मंजिल को पा लेता है। क्षेत्र कोई भी हो-लौकिक अथवा आध्यात्मिक, पथिक अपने रास्ते में बाधाओं का निराकरण करता हुआ प्रगति-पथ पर बढ़ता रहता है। शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे सहयोगी हैं जो उसके मार्गदर्शन करने में सहायक हैं। व्यक्ति को उनका सहयोग लेना चाहिए-



    (१) वैचारिक शुद्धि:- किसी भी शास्त्र एवं उत्तम पुस्तक का अध्ययन करते समय विचारों का महत्त्व सर्वोपरि माना गया है। विचार व्यक्ति की उन्नति एवं अवनति का मुख्य कारण है। सोच ही है जो मनुष्य का मनोबल बढ़ाती है या घटाती है। अच्छे विचारों का संग्रह प्रगतिशील बनाता है और बुरे विचार अर्थात् नकारात्मक सोच पतन की ओर ले जाती है। प्रगति के लिए वाणी, व्यवहार, धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख जैसे विषय गंम्भीरता से विचारने के विषय हैं। इनका शुद्ध होना अति आवश्यक है।


        उत्तम गुणों का संग्रह बड़ा सौभाग्यशाली व्यक्ति ही कर पाता है लेकिन कुछ गुण ऐसे हैं, जिन्हें हर व्यक्ति प्रयत्न करने पर प्राप्त कर लेता है, उनसे युक्त रह सकता है। जैसे ‘‘उचित वाणी का प्रयोग और अनुचित वाणी का निरोध’’ नियन्त्रित एवं मधुर वाणी पराये को भी अपना बना लेती है। वाणी की मधुरता तो पशु-पक्षी भी समझते हैं और अपने सहायक और हितैषी बन जाते हैं। संसार वश में हो सकता है वाणी के बल पर। किसी जंगल को कुठाराघात से या जला देने से वह पुन: हरा हो जाता है, परन्तु चित्तरूपी वन वाणी के गलत प्रहार से, कठोर वचनों से आहत पुन: शान्त नहीं होता।


      वाणी के चार गुण हैं और चार ही दोष हैं, मुख्य गुण-सत्य बोलना, हितकारी बोलना, प्रिय बोलना, स्वाध्याय करना आदि। झूठ बोलना, कठोर बोलना, निंदा करना, व्यर्थ बोलना दोष हैं।


        व्यवहार को लें- उत्तम व्यवहार ही मनुष्य को यशस्वी बनाता है। ईमानदारी, पक्षपातरहित लेन-देन में कुशलता, संयमशील रहना, वाक्पटुता, शालीनता आदि बहुत सारे गुण व्यक्ति को व्यावहारिक बनाते हैं और प्रगति पर ले जाते हैं। इसी प्रकार धर्म-अधर्म को जानना, अत्याचारी न होना, पाप-मुक्त होना धर्म है। सत्य-असत्य का भान व्यक्ति को प्रगति-पथ पर ले जाता है। सुख-दु:ख में सम रहना, द्वन्द्व में न होना यानी इन चारों की शुद्धि-वैचारिक शुद्धि है।


       सांसारिक विषयों से व्यक्ति की आसक्ति होती है, आकर्षण होता है। यदि उनकी प्राप्ति में बाधा आ जाये तो क्रोध आता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है। स्मृति नष्ट हो गयी तो बुद्धि कार्य नहीं करती, निर्णय नहीं ले सकती और यहीं से व्यक्ति का पतन आरम्भ होता है, इसलिए विचारों की शुद्धि अर्थात् अच्छी सोच रखना आवश्यक है।


     व्यक्ति सोचता है हम दुनिया से अच्छे हैं। रहन-सहन अच्छा है, शान से परिपूर्ण हंै, आचार-विचार, पठन-पाठन सब अच्छा है लेकिन उसे सतर्क रहना चाहिए कि जब तक यह कारण हैं, तब तक ही प्रगति सम्भव है। क्योंकि भविष्य में यदि यह विचार, अच्छा आचरण, अच्छा खान-पान बदल गया तो पतन भी हो सकता है। आज सदाचारी है, कल दुराचारी हो सकता है। ईश्वर को भूल सकता है स्थिति व गुण बदलते रहते हैं इसलिए अपने विचारों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए। इन्द्रियों पर नियन्त्रण आवश्यक है। संसार के विषयों को तो नष्ट नहीं किया जा सकता। वे सदैव थे और सदैव रहेंगे। व्यक्ति को अपने विचारों पर नियन्त्रण करना होगा, हर व्यक्ति ये कभी न सोचे कि-


१.     मैं परिपक्व हँू


२.     मैं सर्वथा समर्थ हँू


३.     अन्दर-बाहर मेरा कोई शत्रु नहीं है


बल्कि ऐसा विचारे-


१.     मैं निर्बल हँू


२.     शत्रु अन्दर भी है और बाहर भी


३.     आगे बढऩे हेतु बहुत समाधान करने हैं- अच्छे संस्कारों एवं विचारों का संग्रह करना है।  इन्द्रियों पर विजय पानी है आदि।


       (2) अविद्यानिरास- उन्नति के पथ पर बढऩे के लिए विद्या और अविद्या का अन्तर समझना होगा। अविद्या के लक्षण जानकर उन्हें दूर करना प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य है। अधर्म, अन्याय, पाप, पीड़ा आदि अविद्या के लक्षण हैं। एक बार पढक़र या सुनकर समझना कठिन होता है। इसे दूर करने के लिए तीव्र इच्छा, साधन, पूर्ण पुरुषार्थ एवं तप की आवश्यकता होगी। खाते-पीते, सोते-जागते अपने अन्दर की अविद्या को दूर करना होगा। तभी कोई व्यक्ति अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। भ्रम, मिथ्या सोच अविद्या है। हमारे कल्पित विचार जो तर्क एवं प्रमाणों से रहित हैं, विशेषकर प्रत्यक्ष, अनुमान और वेद रूपी शब्द प्रमाण से रहित हैं, वे अज्ञान तथा भ्रम हैं। यही अविद्या है।


       (३) सुदृढ़ आधार:- जैसे निर्बल नींव पर बना भवन लंबे समय तक नहीं रह सकता, उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति मज़बूत, पूर्ण पुरुषार्थ एवं कार्य के सिद्धान्तों को जाने बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता, चाहे वह लौकिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक।


       १. अपनी स्थिति एवं सामथ्र्य का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि नहीं है तो कार्य आरम्भ करने से पूर्व अपने सामथ्र्य का संग्रह आवश्यक है।


     २. राह में आने वाली संभावित प्रतिकूलताओं का ज्ञान तथा उनके उन्मूलन के उपाय आदि का ज्ञान आवश्यक है। विपरीत घटनाएँ न भी हों फिर भी स्वयं को विचारशील बनाना चाहिए, इस प्रकार वह क्रूरता, विश्वासघात, आरोप जैसी स्थिति में स्वयं को बचा सकता है।


      ३. सुदृढ़ आधार है तो व्यक्ति न आन्तरिक न बाहरी कारणों से पतन को प्राप्त करता है। जीवन का निर्माण है अविद्या को दूर करना । वेदों में सब ज्ञान दिया ईश्वर ने, ऋषियों ने उनके अनुसार सिद्धान्त बनाए। अब व्यक्ति या योगी को देखना है कि वह किस प्रकार उनका उपयोग कर प्रगति करता है। ज्ञान पाने के लिए तो पुरुषार्थ ही करना पड़ेगा। प्रगति के लिए किये गए संकल्प को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिए।


      कुछ पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों की अग्रि को जलाये रखना, ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्यपूर्वक किसी अच्छे गुरु के निर्देशन में दृढ़तापूर्वक आगे बढऩा चाहिए। संसार में कोई एक व्यक्ति ही आपके विचारों से सहमत होता है। यदि सुदढ़ आधार है तो ही आप निश्चय-पूर्वक प्रगति-पथ पर बढ़ सकते हैं।


     (४) शुद्ध आचरण:- अध्यात्म मार्ग पर वही चल सकता है जो जीते जी मरे समान रह सकता हो। समस्त प्रतिकूलताओं का समाधान कर सकता हो। संघर्षशील हो, अपने अनुभवों से, अपने ज्ञान-बल तथा अनुभवों में वृ़द्धि कर रहा हो। पढ़े तथा सुने हुए ज्ञान को अपने आचरण में ला रहा हो। इस कठिन कार्य के लिए सतत संघर्षशील हो, आदर्शवादी हो। किसी द्वन्द्व अर्थात् यश, कीर्ति, सुख-दु:ख आदि में समभाव हो, कर्मठ हो। अवरोध में परित्याग नहीं करने वाला हो। गिरकर उठ जाना, आगे बढऩा जिसका ध्येय हो। ऐसा व्यक्ति ही सफल होता है जो ज्ञान और कर्म का समन्वय कर अपने आचरण को सुदृढ़ बनाता है।


    (५) आवास:- आज वह समय नहीं रहा जब कोई आध्यात्मिक व्यक्ति मानसिक प्रगति हेतु दूर पर्वतों या गुफाओं में शान्त वातावरण प्राप्त करता था। आज न तो पर्वत, न गुरुकुल, न आश्रम रहे-जहाँ अनुकूलता मिले। राग-द्वेष, विवाद, अनियमितता, यम-नियम का हनन आदि बाधाएँ सब ओर हैं। व्यक्ति कहीं भी भागना चाहे-सब ओर एक ही प्रकार का अशान्त वातावरण है। अगर उत्तम दिनचर्या है, विशेषकर उपासना, यज्ञ, स्वाध्याय, व्यायाम-नियमितता है, तो वही स्थान प्रगति के लिए उत्तम है। अच्छा संगतिकरण हो। सेवाभावी, राग-द्वेष से रहित स्वभाव वाले, यम-नियम का पालन करने वाले, अच्छे विषयों पर चर्चा करने वाले, कत्र्तव्य के प्रति सजग, चिंतनशील सहयोगी हों तो मानसिक प्रगति के साथ-साथ शारीरिक-बौद्धिक प्रगति होगी। लौकिक प्रगति होगी। विचारशील व्यक्ति की सदैव ईश्वर में श्रद्धा रहेगी। ऐसे वातावरण में यदि कोई व्यक्ति न भी पढ़े, न चर्चा करे, तो भी जीवन अच्छा बीतेगा और सफलता भी मिलेगी।


    (६) सत्य ईश्वर की भक्ति:- ‘‘अनादिकाल से मनुष्य अपने जीवन में यही सुनता आ रहा है कि ईश्वर नाम की कोई शक्ति है जो इस जगत् की रचना, पालना, संहारना आदि करती है। वह कर्मफल प्रदाता है-आनन्द का स्रोत है और वही जानने व मानने योग्य है।’’


        इन विचारों के संग्रह से उसे जानने केे लिए, उसका साक्षात्कार करने की जिज्ञासा मन में उठती है। शान्ति व सुख पाने हेतु मनुष्य अपने अपने ढंग से पूजा-पाठ उपासना-प्रार्थना आदि करता है। प्राय: देखने में आता है कि पूजा-पाठ करने वाला उतनी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर पा रहा होता, जितनी कि एक नास्तिक। जबकि ऐसे व्यक्ति अच्छे आचरण रहित पापी व प्रमादी होते हैं। क्या ईश्वर ही ये दुर्गुण उन्हें देता है? क्या पूजा-पाठ उपासना आदि केवल क्रिया-कलाप हैं, ऐसा विचार स्वाभाविक है। ऋषि इसका केवल एक उत्तर देते हैं, जो व्यक्ति वेद-शास्त्रों के प्रतिकूल आचरण करता है, चाहे वह कितना भी पूजा-पाठ करता हो, सुख शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह सच्चे ईश्वर को जानता ही नहीं उसकी आसक्ति, धार्मिकता, आराधना सब मिथ्या है। दिव्य गुणों का अभाव होता है उसमें। यह संभव नहीं कि सत्य पर आधारित भक्ति हो और ईश्वर का आशीर्वाद न मिले।


        ईश्वरभक्ति का अर्थ जानना आवश्यक है, ‘‘ईश्वरभक्ति अर्थात् ईश्वर की आज्ञा का पालन।’’


वेद कहता है-आचरण शुद्ध है, सत्य पर, ज्ञान पर आधारित है तो उसे मालाएँ फेरने अथवा तीर्थों पर जाने की भी आवश्यकता नहीं। व्यक्ति की दिनचर्या, भोजन, यम-नियम, स्वाध्याय सत्संग-शुद्ध रूप में हैं, वेदानुसार आचरण है तो यही भक्ति है। ईश्वर की आज्ञानुसार जीवन हो। ‘‘क्रोध मत करो।’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। यदि व्यक्ति क्रोध करता है- तो वह उसका साक्षात्कार नहीं कर सकता ‘‘दान दो’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। ‘‘सत्य को ग्रहण करना और असत्य को छोडऩा’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। जो इन आज्ञाओं को छोड़ मिथ्या-वचन, छल, कपट का आचरण करता है-वह कितनी भी उपासना, पूजा-पाठ करे उसका ईश्वर से सम्बन्ध नहीं हो सकता, जैसे विश्राम अथवा सही निद्रा के लिए शुद्ध एवं शान्त वातावरण की आवश्यकता होती है-वैसे ही ईश्वर प्राप्ति हेतु उचित भोजन, शुद्ध आचरण तथा उत्तम दिनचर्या की आवश्यकता होती है। उपरोक्त अपेक्षाएँ तो स्थूल हैं। यहाँ तो ईश्वर प्रणिधान जैसी कष्टमय सूक्ष्म अपेक्षाएँ भी साधनी पड़ती हैं।


     आज तो अपनी सरलता के लिए ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानकर उसे मूर्तिमान्, सुन्दर वस्त्रों से, आभूषणों सहित पत्नी-पुत्र सहित, कारोबारी युक्त बना दिया गया है, ऐसे लोगों को भला ईश्वर-प्राप्ति कैसे होगी। इसलिए कहा -भक्ति से पूर्व ज्ञान आवश्यक है, कि जिस ईश्वर को हम भज रहे हैं, वह ठीक भी है या नहीं। उसका वास्तविक स्वरूप क्या है। कोई व्यक्ति उसे माने या न माने, निष्ठा करे या न करे, प्रमाणित है कि वह अनादिकाल से प्राणिमात्र का हित करता आ रहा है।


     चिन्तन-मनन से सच्चे ईश्वर का निर्णय करना आवश्यक है। वह अपने ज्ञान, बल, समर्थ से ही यह सारा जगत् , प्राणिमात्र, वनस्पति, सूर्य, पृथ्वी आदि को सत्ता में लाता है। भोजनादि सुख सामग्री उसी की देन है। उसी के द्वारा दी गयी बुद्धि से सारी वैज्ञानिक उन्नति संभव हो पायी है। ईश्वर समस्त रोगों का चिकित्सक है। कुछ रोग ऐसे हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, बल्कि सभी जाति, लिंग, भाषा, देशवासी सभी को समान रूप से होते हैं। बल, धन, रूप से कोई भेदभाव नहीं होता। ये मानसिक रोग हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, अहंकार जैसे रोगों की दवा केवल और केवल ईश्वर के पास है। किसी वैद्य के पास नहीं।


    सच्चे ईश्वर की भक्ति करने वाला कभी चिंतित, हताश, निराश, निस्तेज, दु:खी, असमर्थ नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी का अनर्थ नहीं करता। अपने व्यवहार से किसी को आहत नहीं करता। शिखा, यज्ञोपवीत, माला, जटाजूट धारण से कोई सच्चा उपासक नहीं हो जाता। ये तो बाह्य लक्षण हैं। दया, धर्म, ज्ञान, तपस्या, पुरुषार्थ, सेवा, निर्भीकता, एक सच्चे उपासक के लक्षण हैं। वही ईश्वर का सच्चा स्वरूप जानता है।


     ईश्वर का जो आज रूप बना दिया गया है वे सब भ्रान्तियाँ हैं। दक्षिण वाले उत्तर में उसे ढूँढने जाते हैं और उत्तर दिशा वाले दक्षिण में। पूर्व वाले पश्चिम में और पश्चिम वाले पूर्व में। पर्वतों से नीचे नदी-समुद्र पर और कोई पर्वतों पर उसे ढूंढने जाते हैं। ईश्वर तो एक है, सर्वत्र है। उसका दर्शन बाहर नहीं अपने हृदय में होता है। जो ऐसा जान लेता है और विचार शुद्ध रखता है वही प्रगति-पथ पर बढ़ता है।



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