ऋषिवर और योग
ऋषिवर और योग
ऋषिवर के लिए योगाभ्यास मुक्ति पथ का संवाहक था। महर्षि दयानंद सरस्वती ने जब गुरूवर दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विदा ली, उस समय उनकी आयु चालीस वर्ष की हो चुकी थी। गुरु की आज्ञा-पालन करने के लिए उन्होंने अपना शेष जीवन लोक कल्याण हेतु समर्पित कर दिया। 'वेद', 'यज्ञ' और 'योग' --- अर्थात् ' समस्त ज्ञान विज्ञान का स्रोत एकमात्र वेद', ' समस्त श्रेष्ठतमकर्मो का प्रतीक यज्ञ ' और ' एक ईश्वर की उपासना का आधार योग ' ही लोक कल्याण के लिए उनके क्रिया कलाप रहे।उनका मानना था कि-
(1) प्रत्येक मानव उस एक सच्चिदानन्द स्वरूप, शुद्ध, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी, निर्विकार, अनन्त, अनादि, सर्वाधार परमेश्वर की योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति करे, अर्थात् उसी की आज्ञा पालन में तत्पर रहे।
(2) चित्त की वृत्तियों को सब बुराइयों से हटाकर सद्गुणों में स्थिर करके परमेश्वर की समीपता पाने का प्रयास करे।
(3) ईश्वर को सर्वव्यापक और स्वयं को व्याप्य जान योगाभ्यास द्वारा ईश्वर का साक्षात् करने का प्रयास।
(4) सुखी जनों से मित्रता, दुखी जनों पर करुणा, पुण्यात्माओं के साथ प्रसन्नता तथा दुष्टों के प्रति उपेक्षा।
(5) सद्गुणों के साथ 'उपासना योग ' ही शुद्धि और शुभ गुणों का प्रकाश करने वाला तथा सब अशुद्धि, दोषों और अवगुणों को नष्ट करता है।