पशुचिकित्सापद्धतिभारतकी_देन
#पशुचिकित्सापद्धतिभारतकी_देन
(१) प्राचीन नगर वैशाली में अशोक स्तम्भ, जिस पर मानवों के साथ-साथ पशुओं के लिये भी चिकित्सालय बनवाने का उल्लेख है।
(२) भारत के प्राचीन ग्रंथों से पता लगता है कि पशुपालन वैदिक आर्यों के जीवन और जीविका से पूर्णतया हिल मिल गया था। पुराणों में भी पशुओं के प्रति भारतवासियों के अगाध स्नेह का पता लगता है। अनेक पशु देवी देवताओं के वाहन माने गए हैं। इससे भी पशुओं के महत्व का पता लगता है।
(३) प्राचीन काव्यग्रंथों में भी पशुव्यवसाय का वर्णन मिलता है। बड़े बड़े राजे महाराजे तक पशुओं को चराते और उनका व्यवसाय किया करते थे।
(४) ऐसा कहा जाता है कि पांडव बंधुओं में नकुल ने #अश्वचिकित्सा और सहदेव ने #गोशास्त्र नामक पुस्तकें लिखी थीं।
(५) ऐतिहासिक युग में आने पर अशोक द्वारा स्थापित #पशुचिकित्सालय का स्पष्ट पता लगता है।
(६) कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अश्वों एवं हाथियों के रोगों की चिकित्सा के लिए सेना में पशुचिकित्सकों की नियुक्ति का उल्लेख किया है।
(७) अश्व, हाथी एवं गौर जाति के रोगों पर विशिष्ट पुस्तकें लिखी गई थीं, जैसे #जयदत्त की #अश्वविद्या तथा #पालकण्य की #हस्त्यायुर्वेद। पर पशुचिकित्सा के प्रशिक्षण के लिए विद्यालयों के सबंध में कोई सूचना नहीं मिलती।
(८) कविराज धारेश्वर श्रीभोजदेव के द्वारा रचित ग्रंथ राजमृगांक तथा युक्ति कल्पतरू असाधारण ज्ञान वर्धक चिकित्सा ग्रंथ सिध्द हुए हैं। #युक्ति_कल्पतरू यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा-चिकित्सा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला आदि । कोदंड काव्य अनुसार स्वयं विद्वान सम्राट राजा भोज अश्वों के चिकित्सक थे तथा अश्वों के चिकित्सा के ज्ञाता थे। इनका समय 11 वीं सदी है।
(९) पालकाप्य ने #गजायुर्वेद, #गजदर्पण, #गजचिकित्सा, #गजपरिक्षा और #गजलक्षण जैसे महान गजचिकित्सा पर आधारित ग्रंथों की रचना की।
(१०) जयदत्तकृत #अश्वचिकित्सा, नकुल का #शालिहोत्रशास्त्र और #अश्वतंत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
(११) संवत् प्रवर्तक चक्रवर्ती विक्रमादित्य द्वारा विविध विषयों के महान पांडित्यवान विद्वान जिनमें आयुर्वेद के भी विद्वान थे, अरब भेजें गये थे। जिसका उल्लेख अरबी कवि जरहाम कितनोई ने अपनी पुस्तक सायर-उल-ओकुल में किया हैं । यह बात इतिहासविद विद्वान राजबली पांडेय.एम.ए ने भी अपने पुस्तक विक्रमादित्य संवत प्रवर्तक में लिखी हुई है।
(१२) जैन ग्रंथों में वैदिक चिकित्सक जो पशु चिकित्सा करते हैं उनका पट्टावलीयों में उल्लेख बहुत ही प्राचीन काल में किसी न किसी रूप में मिलता है।
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विदेशों में भी पशुओं का महत्व बहुत प्राचीन काल में समझ लिया गया था, लेकिन भारत ने ही आयुर्वेद के विद्वान वहा भेजें ताकि इस ज्ञान का प्रसार हो पाये। ईसा से 1900-1800 वर्ष पूर्व के ग्रंथों में पशुरोगों पर प्रयुक्त होनेवाले नुसखे पाए गए हैं। यूनान में भी ईसा से 500 से 300 वर्ष पूर्व के हिप्पोक्रेटिस, जेनोफेन, अरस्तू आदि ने पशुरोगों की चिकित्सा पर विचार किया था। ईसा के बाद गेलेन नामक चिकित्सक ने पशुओं के शरीरविज्ञान के संबंध में लिखा है। बिज़ैटिन युग में (ईसा से 5,508 वर्ष पूर्व से) पशुचिकित्सकों का वर्णन मिलता है। 18वीं और 19वीं शती में यूरोप में संक्रामक रागों के कारण पशुओं की जो भयानक क्षति हुई उससे यूरोप भर में पशुचिकित्साविद्यालय खोले जाने लगे।
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#आधुनिक
#भारत में पहले पहल 1827 ई. में पूना में सैनिक पशुचिकित्साविद्यालय स्थापित हुआ था। फिर 1882 ई. में अजमेर में ऐसा ही दूसरा विद्यालय स्थापित हुआ। पशुरोगों के निदान के लिए सर्वप्रथम प्रयोगशाला 1890 ई. में पूना में स्थापित हुई थी, जो पीछे मुक्तेश्वर में स्थानांतरित कर दी गई। आज भी यह भारतीय पशुचिकित्साशाला के नाम से कार्य कर रही है और आज पशुचिकित्सा संबंधी अनेक खोजें वहाँ हो रही हैं। फिर धीरे धीरे अनेक नगरों में #पशुचिकित्साविद्यालय खुले। ये विद्यालय बंबई, कलकत्ता, मद्रास, पटना, हैदराबाद, मथुरा, हिस्सार, गोहाटी, जबलपुर, तिरुपति, बीकानेर, मऊ, भुवनेश्वर, त्रिचूर, बंगलौर, नागपुर, रुद्रपुर और राँची में हैं। विदेशों में प्राय: सब देशों में एक या एक से अधिक पशुचिकित्सालय हैं।
#वर्तमान
भारत में सभी पशुचिकित्सा महाविद्यालय विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, जहाँ शिक्षार्थियो को उपाधियाँ दी जाती हैं। कुछ विद्यालयों में स्नातकोत्तर उपाधियाँ भी दी जाती हैं।
पशुचिकित्सा विद्यालयों में पशुचिकित्सक तैयार होते हैं। इन्हें विभिन्न वर्गों के जीवों के स्वास्थ्य और रोगों की देखभाल करनी पड़ती है। इन जीवों की शरीररचना, पाचनतंत्र, जननेंद्रिय, इत्यादि का तथा इनके विशेष प्रकार के रोगों और औषधोपचार का अध्ययन करना पड़ता है। पहले केवल घोड़ों पर ध्यान दिया जाता था। पीछे खेती के पशुओं पर ध्यान दिया जाने लगा। फिर खाने के काम में आनेवाले, अथवा दूध देनेवाले पशुओं पर, विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। ऐसे पशुओं में गाय, बैल, भैस, सूअर, भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्लियाँ और कुक्कुट हैं। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से मांस और दूध देनेवाले पशुओं और पक्षियों की चिकित्सा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है और यह अवश्य भी है, क्योंकि रोगी पशुओं के मांस और दूध के सेवन से मनुष्यों के भी रोगग्रस्त होने का भय रहता है। प्राणिउद्यान तथा पशु पाकों में रखे घरेलू या जंगली पशुओं, पशुशालाओं, गोशालाओं और कुक्कुटशालाओं के पशुओं की भी देखभाल चिकित्सकों को करनी पड़ती है।