"निराले दयानन्द - युग प्रवर्तकों में

"निराले दयानन्द - युग प्रवर्तकों में"


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देव दयानन्द योगी तो थे ही साथ ही उच्च कोटि के वेदों के विद्वान भी थे। इसलिए वेदविरुद्ध प्रत्येक बात उन्हें हस्तामलकवत दीखती थी। वह संपूर्ण क्रांति के संदेशवाहक थे। इसीलिए उनके सुधारवादी कार्यक्रमों में स्त्रीशिक्षा, अछूतोद्धार, परतंत्रता निवारण, विधवारक्षण, अनाथपालन, सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता, जन्मगत जाति के स्थान पर गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था, विश्व के समस्त मानवों के लिए वेदाध्ययन के द्वारों का उद्घाटन, अज्ञान, ढोंग, पाखंड, छल-प्रपंच आदि के विरुद्ध आंदोलन, सब मनुष्यों की एक जाति मानना, सह शिक्षा का विरोध, समानता की जन्मदात्री गुरुकुल प्रणाली का प्रचलन, सदाचार तथा ब्रह्मचर्य पर बल, पठनीय तथा अपठनीय ग्रंथों का विवेचन, आर्यावर्त्त को विश्व का शिरोमणि बताकर उसका गौरववर्धन, हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का स्थान, देश में कलाकौशल तथा विज्ञान पर बल, कृषक को राजाओं का राजा कहकर हरितक्रांति का संदेश, गौ का आर्थिक महत्व सिद्ध कर पशु मात्र की रक्षा पर बल, नशामुक्ति का उपदेश, परमेश्वर की उपासना एवम् पञ्च-महायज्ञों का विधान, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा, मिथ्या मतमतांतरों का खण्डन, स्वर्णिम वैदिक काल के पुनरागमन की कल्पना आदि उनके कार्यक्रम के अंग थे। शरीर, आत्मा तथा समाज की उन्नति का पूर्ण कार्यक्रम लेकर आए थे वे। उन्होंने थेगली लगाने के स्थान पर नया वस्त्र बुन कर दिया जो काल के प्रवाह से अछूता है, युग भी जिसे धूमिल न कर पाएगा। जो शाश्वत है, नित्य है तथा अजर है।


"निराले दयानन्द - मरने वालों में"


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प्रत्येक व्यक्ति यात्री है। उसे अपनी जीवन यात्रा पूरी करके चल देना है अगले पड़ाव के लिए। प्रायः लोग मरते समय रोते हैं। यह मृत्यु जिसे ब्राह्मणग्रंथ 'मुच्य' सब कुछ छुड़ाने वाली कहते हैं, है तो रुलाने वाली ही। सब कुछ छोड़ना क्या सरल है ? यह वियोगिनी सबको रुलाती ही है। जाने वालों को भी, रहने वालों को भी। यह मनुष्य के जीवन भर के कार्यों की परीक्षा का दिन है। संसार के सभी दुःखों से मृत्यु दुःख सर्वाधिक कष्टप्रद है। किन्तु महर्षि ने मृत्यु के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया अपितु वे उससे लड़े और लड़े भी वीरतापूर्वक। डॉक्टर भी आश्चर्यचकित थे कि हम अपने जीवन में पहला व्यक्ति देख रहे हैं जो इतने कष्ट में भी जीवित है और आह भी नहीं करता। मृत्यु उनके पास भिक्षुक बनकर आई। महर्षि मुस्कुराए, मुख पर अमिट आभा तैर आई। जगन्माता की गोद में जाते समय महर्षि दयानन्द के मुख पर हर्ष और शांति की अनुपम आभा थी। सारी आयु लोगों को निराश न लौटाने वाले दयानन्द मौत को भी क्यों निराश करते ? मृत्यु रूपी भिक्षुक को निर्मल चादर सौंपने से पूर्व गुरुदत्त सा दीप जलाकर तथा विषदाता को अभयदान दे उसके जीवन की रक्षा कर के एक अन्य भी अनोखापन दिखा गए ऋषि। वे बैठे, ईश्वर का स्मरण किया और कहा - 'ईश्वर ! तेरी इच्छा पूर्ण हो, तूने बड़ी लीला की' और प्राण को महाप्राण में विलीन कर दिया। न वेदभाष्य के अधूरे रहने का दुःख और न आर्यसमाज रूपी पौधे का। आजीवन प्रभु के आदेश पर चलने वाला आज उसका आदेश पाकर चल दिया अनन्त के मार्ग पर, जहां न सुख है न दुःख है। देव दयानन्द तेरी मृत्यु भी निराली थी।


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"निराले दयानन्द - जीने वालों में"


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जीना एक कला है। कुछ लोग सब कुछ होने पर भी रोते रहते हैं पर कुछ लोग कुछ न होने पर भी हंसते हैं। देव दयानन्द जीने की कला जानते थे। वे विचित्र थे। वे अपने दुःखों में हंसते थे तथा पराए दुःख में रोते थे। एक विधवा अपने पुत्र की लाश जब बिना कफन के बहा चली थी तब वह कितना रोए थे। इसके विपरीत वह अपने दुःखों में न रोए और न घबराए अपितु सदा मुस्कुराते रहे। गाली देने वालों को कहते थे कि जब इनके पास हैं ही गालियां तो ये बेचारे और क्या देवें ? पत्थर मारने वालों को कहते कि जहां आज पत्थर फेंकते हैं कभी वहां फूल बरसेंगे तथा कभी हंस कर कहते कि कितने अच्छे लोग हैं, मैंने पत्थर पूजने के विषय में समझाया तो इन्होंने पत्थर फेंकने ही प्रारंभ कर दिए। अपने ऊपर मिट्टी फेंकने पर कहते थे कि उद्यान लगाते समय माली का धूल से सनना स्वाभाविक ही है - न गिला, न शिकवा, न शिकायत। एक ब्राह्मण ने पान में विष दे दिया। इनका भक्त सैयद मुहम्मद तहसीलदार जब अपराधी को उनके सामने लाया तो पूछा कि यही है आप की हत्या का प्रयत्न करने वाला पापी। कहो इसे क्या दंड दिया जाए ? दयालु दयानन्द ने कहा - इसे छोड़ दो। मैं संसार को कैद नहीं अपितु कैद से छुड़वाने आया हूं।


कितना व्यस्त था उनका जीवन। दो बजे रात्रि में उठकर सैर तथा ईश्वरआराधना, फिर लेखन, भाषण, शास्त्रार्थ तथा शंका समाधान। कहां से समय लाते होंगे इतने कार्यों के लिए ? सर चकरा जाता है सोचकर। दिनभर ज्ञान पिपासु घेरे रहते तथा दयानन्द वह महान था जिसके किनारे से कोई प्यासा नहीं जाता था। व्यस्त जीवन था परंतु प्रफुल्लतापूर्ण। हास्य की छटा मुख पर सदा विराजमान रहती। लोग चिढ़ाना चाहें पर वह हंसते रहते थे। एक व्यक्ति ने उन्हें चिढ़ाने की सोची। जा पहुंचा उनके पास और बोला कि महाराज जरा अपना कमंडलु देना मुझे शिवजी पर जल चढ़ाना है। सोचा चिढ़ेंगे और अपशब्द कहेंगे, बड़ा मजा आएगा। किंतु वहां चिढ़ने का क्या काम ? महर्षि जी कहने लगे कि अपने ही कमंडलु से जल चढ़ा दो। वह बोला कि यदि मेरे पास कमंडलु होता तो आप से मांगने ही क्यों आता ? महाराज बोले कि मुंह तो है उसमें पानी भरकर कुल्ला कर दो। आया था चिढ़ाने पर खिसिया कर चला गया। काशी शास्त्रार्थ में विद्वानों द्वारा छल से यह कहने पर कि दयानन्द हार गया, जन समुदाय ने ईंट पत्थर फेंक कर तथा कुवाक्यों से अपमानित करने में अपने मन की पूरी भड़ास निकाली। अन्य कोई होता तो क्षोभ के मारे उठता भी न। विशेषतया विद्वान पंडितों के कुटिल व्यवहार को देखकर। किन्तु रात्रि में दयानन्द से मिलने जब ईश्वरसिंह निर्मल पहुंचे तो देखा कि उनके मुख पर विषाद की एक रेखा भी नहीं। मानो कि कुछ हुआ ही न हो। हजारों घटनाएं हैं ऐसी पर दयानन्द सब में स्थिर और दृढ़ रहे। ऐसा होता क्यों न, दयानन्द जीवन दर्शन के विशेषज्ञ जो थे। वे स्थितप्रज्ञ योगी थे - मान अपमान से ऊपर उठे हुए। उनका सारा जीवन ही जीवन-कला का साक्षात निदर्शन है। वह जीने वालों में भी निराले थे।


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"निराले दयानन्द - निराला व्यक्तित्व"


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दयानन्द दुनिया की एक निराली शख्सियत हैं। जैसे चमकने वालों में सूर्य, हाथियों में एरावत, भौतिक पदार्थों में रत्न, वीरों में जामदग्नय, आदर्श पुरुषों में राम, नीतिज्ञों में चाणक्य, योगेश्वरों में कृष्ण तथा शीतल तत्वों में चंद्रमा को निराला माना जाता है इसी प्रकार यह महापुरुष भी निराला है। अलंकारों में एक अलंकार है अनन्वय। इसमें उदाहरण में उपमेय और उपमान का अभेद रहता है। यथा -


'रामः रावणयोर्युद्धम् रामरावणयोरिव' -


अर्थात राम रावण का युद्ध राम और रावण जैसा था। महर्षि दयानन्द भी ऐसे थे। उनके लिए भी 'दयानन्दो दयानन्द इव' ही कहना पड़ेगा। सचमुच दयानन्द दयानन्द जैसे ही थे। वे सैंकड़ों में भी निराले, सहस्रों में भी निराले, लाखों में भी निराले, करोड़ों में भी निराले, यहां तक कि विश्व के समस्त मानवों में भी निराले हैं। कई बार मन में आता है कि उन्होंने माता-पिता की सेवा नहीं की यह उनके जीवन में एक त्रुटि सी लगती है।


किन्तु -


माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः।


सारी धरती मेरी माता है और मैं हूं इस पृथ्वी का पुत्र। इस संस्कृति का उपासक जब समस्त धरा की सेवा करने के लिए निकल पड़ा तो जननी माता भी उससे बाहर कहां रही ? कई बार मन कहता है कि दयानन्द ने माता पिता की इच्छा के विरुद्ध घर छोड़ कर अच्छा नहीं किया। किन्तु तुरन्त मन कहता है कि उच्च आदर्श तथा उच्च विचारों के सामने परिवार से भी अधिक लोकहित रहता है। इस लोकहित की प्रबल इच्छा ने ही दयानन्द को अनूठा बना दिया। निःसन्देह हर गुण में अनूठे, हर व्यक्तित्व से निराले थे ऋषि दयानन्द।


"निराले दयानन्द - वेद भाष्यकारों में"


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महर्षि दयानन्द वेद भाष्यकारों में भी अपना विशेष स्थान रखते हैं। उनके वेद भाष्य की विशिष्टता यह है कि उन्होंने वेदों को वेदों से देखा। वे 'वेद एव वेदस्यौपाध्यायः' को मानने वाले थे जबकि अन्य वेदभाष्यकारों ने अधिकतर लौकिक मान्यताओं से वेद को देखा। लोक में जाकर वैदिक मन्तव्य अपने लक्ष्य से कैसे दूर चले जाते हैं इसे वामन प्रसंग से समझा जा सकता है जिसमें वामन होते हुए भी विष्णु तीन पगों में धरती, अंतरिक्ष तथा द्युलोक को नाप लेते हैं। यजुर्वेद के 'दिवि विष्णुर्व्यक्रस्त' मन्त्र से इस कथा का विकास हुआ है। पौराणिक कथाअनुसार राजा बलि यज्ञ करता है। उससे भयभीत देवगणों की रक्षार्थ भगवान विष्णु वामन का रूप धारण करके वहां जाते हैं तथा उसका यज्ञ विध्वंस करने के लिए उससे तीन पग भूमि मांगते हैं। बलि सहर्ष उनकी मांग स्वीकार कर लेते हैं। विष्णु एक पग से भूमि, दूसरे से अंतरिक्ष तथा तीसरे से द्युलोक को नाप लेते हैं तथा बलि को पाताल में पहुंचा देते हैं। यह भी संभव है कि पूर्व विद्वानों का इस कथा को बनाने में यह भाव न रहा हो किन्तु कालांतर में पुराणादि में यही भाव दिखाई देते हैं। यह कथा अनेक प्रश्न खड़े कर देती है। यथा, यज्ञ करने की वेद की आज्ञा है उसे चाहे कोई करे। यदि बलि वेदाज्ञा मानकर यज्ञ करता था तो विष्णु को उस में सहायक बनना चाहिए था विध्वंसक नहीं। क्योंकि रामायण काल में विश्वामित्र के यज्ञ को विध्वंस करने वालों को राक्षस कहा गया है। फिर भगवान विष्णु ने ऐसा क्यों किया ? वेद यज्ञ का विधान करता है। शतपथ उसे श्रेष्ठतम कर्म कहता है फिर उसका विध्वंसक भगवान कैसे हुआ ? दूसरे वह व्यक्ति जिसने धरती पर खड़े ही तीन लोकों को नाप लिया वह लंबा चौड़ा कितना होगा तथा खड़ा कहां हुआ होगा ? यजुर्वेद के भाष्यकार उव्वट, महीधर ने उपर्युक्त अर्थ लोक को देखकर किया जबकि वेद मंत्र का तात्पर्य कुछ और था। शतपथ ने इसे कथा का रुप तो दिया किन्तु सत्य अर्थ को समझाने के लिए।


शतपथ के अनुसार देवासुर संग्राम में देव हार गए। विजयी असुर चमड़े की डोरी से लेकर भूमि को नापना प्रारंभ कर देते हैं कि इतनी मेरी है और इतनी मेरी। देवता उनसे कहते हैं कि इसमें से कुछ भाग हमें भी दे दो। असुर पूछते हैं कि आपको कितनी भूमि चाहिए ? देवताओं ने कहा कि जितने में यह विष्णु आ जाए। शतपथकार कहते हैं कि 'विष्णुः ह वामन आस' विष्णु वामन था। फिर विष्णु ने विस्तार करना प्रारम्भ किया और वह तीनों लोकों में फैल गया। आगे इसका स्पष्टीकरण करते हुए शतपथ में कहा है 'यज्ञो वै विष्णुः' वह विष्णु वास्तव में यज्ञ था।


अब यथार्थता का ज्ञान हो गया कि मंत्र में जिस विष्णु का तीनों लोकों में विस्तार का उल्लेख है वह वास्तव में यज्ञ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वेद को विकृत बनाने वाले आशय को ही सायण, उव्वट, महीधर आदि आचार्य अपने अर्थों में प्रयुक्त करते रहे जबकि महर्षि दयानन्द ने योग तथा पूर्ण आर्ष विद्या के आधार पर वेद के वास्तविक आशय को स्पष्ट करके उसके महत्व को बढ़ाया। अन्य वेदभाष्यकारों ने प्रायः याज्ञिक या टोने टोटके परक अर्थ करके जहां वेद को सीमित कर दिया था वहां वेद के महत्व को भी कम किया था। किन्तु महर्षि ने अपने भाष्य में यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। उनके वेद भाष्य में सत्यविज्ञान, समाजविज्ञान, भौतिकविज्ञान तथा आत्मविज्ञान के उच्च तत्वों को खोजा जा सकता है। कृषि, गौरक्षा, अस्त्र-शस्त्र विद्या, नौ विमान, यान, विद्युत आदि के उनके वेद भाष्य में प्राप्त निर्देश आज के वैज्ञानिक युग को भी नई दिशा देने में समर्थ हैं। वेदभाष्यकारों में भी दयानन्द निराले हैं।


"निराले दयानन्द - ब्रह्मचारियों में"


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भारत में अनेक ब्रह्मचारी हुए किन्तु अधिकतर ब्रह्मचारियों के जीवन का उद्देश्य आत्मविकास एवं ज्ञानवर्धन ही रहा है। परशुराम, भीष्मपितामह आदि कुछ ब्रह्मचारियों का उद्देश्य लीक से कुछ हटकर था। परशुराम जी के ब्रह्मचर्य का कारण क्षत्रियों का शास्त्र मर्यादा से विलग हो जाना एवं पितामह भीष्म के ब्रम्हचर्य का कारण अपने पिता शान्तनु का एक केवट कन्या से विवाह कराना था।


पुनरपि दोनों ही महानुभाव हमारी श्रद्धा के पात्र हैं। इंद्रियनिग्रह सबसे बड़ा तप है। अथर्ववेद ने 'ब्रम्हचर्येन तपसा' कहकर ब्रह्मचर्य को तप बतलाया है। इन दोनों ने इस तप को निष्कलंक होकर तपा। किन्तु यदि उद्देश्य की दृष्टि से देखा जाए तो इनके तथा देव दयानन्द के उद्देश्य में बहुत अंतर है। देव दयानन्द के आगे न तो अहम् की बाधा थी और न परिवार के किसी व्यक्ति का सुख विशेष। उनके सामने तो सच्चे शिव के दर्शन करने की, योग द्वारा आत्मा तथा परमात्मा के साक्षात्कार की, गौ, विधवा तथा अनाथों की हीन अवस्था की, देश की पराधीनता की, नारी, दलित, अछूतों की दुरवस्था की, सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत में बिना कफन के बहाई जाने वाली लाशों की तथा अज्ञान व पाखंडों की समस्या थी। जिसके लिए वे आजीवन सच्चे वीर योद्धा की भान्ति जूझते रहे तथा अन्त में उसी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे गए। अतः वे ब्रह्मचारियों में भी निराले थे।


"निराले दयानन्द - गुरुओं में"


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महर्षि दयानंद गुरुओं में निराले हैं। गुरुओं की पहचान जहां उनके अगाध ज्ञान, सन्मार्गदर्शन तथा शिष्यों के जीवन में उज्जवल क्रांति से होती है वहां उनके परमेश्वर का सच्चा ज्ञान कराने से भी होती है। महर्षि उन दोनों ही बातों में अनूठे हैं। उनकी शिष्य परम्परा स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराम, गुरुदत्त, लाजपतराय, श्यामजी कृष्ण वर्मा एवं महात्मा हंसराज आदि महान व्यक्तित्वों से सम्पन्न है। श्रद्धानन्द का पहला नाम मुंशीराम था। पेशे से वकील, विपुल सम्पदा के स्वामी, किले जैसी कोठी, निजी प्रेस, अंग्रेजी जीवन शैली के समर्थक, ऐशो-आराम का जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा, मद्य-मांस के प्रेमी व परले दर्जे के नास्तिक - ये सब थे मुंशीराम, निराले दयानन्द का संस्पर्श मिलने से पहले। बरेली में ज्यों ही ऋषि जी का सत्संग मिला कि नास्तिक, मद्य-मांस व अंग्रेजियत के समर्थक तथा विपुल धन संपदा के मालिक मुंशीराम देखते-ही-देखते सर्वत्यागी महात्मा मुंशीराम व पश्चात स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। अपना धन-वैभव व तन-मन दयानन्द मिशन को भेंट कर अपने दोनों पुत्रों को भी 'इदम् दयानन्दाय इदन्नमम' कह कर दयानन्द के कार्य के लिए समर्पित कर दिया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करके दयानन्द के सपनों को साकार रूप दिया। उन्होंने महर्षि द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण करके हिन्दी प्रचार, अछूतोद्धार, शुद्धिप्रचार, कन्या शिक्षण के साथ ही भारत की स्वतंत्रता में अग्रणी बनकर कार्य किया। जलियांवाला बाग के रक्त से रंगे भयभीत अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन कराकर इन्होंने पंजाब में पुनः निर्भीकता की लहर जगाई। जामा मस्जिद तथा फतेहपुरी मस्जिद दिल्ली में मिंम्बर से वेद मंत्र बोलकर मुस्लिम जनता को संबोधित करने का अपूर्व ऐतिहासिक उदाहरण स्वामी श्रद्धानन्द ने दिया। महर्षि का ही प्रभाव था जो प्रारम्भ का निम्न तथा व्यसन भरा जीवन इतना निर्मल हो गया कि चंद्रमा में तो कलंक मिलता है किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन सूर्य की रश्मियों तथा वेद की ऋचाओं जैसा पावन है।।


महर्षि दयानंद के दूसरे शिष्य पंडित लेखराम जी थे। वह पुलिस विभाग में थे। उन दिनों पुलिस की नौकरी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी। पुलिस का रौब आजकल के अधिकारियों से कम न था। महर्षि दयानन्द के संपर्क में आने पर इन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्राणपण से आर्यसमाज के कार्य में लग गए। वे लेखन तथा भाषण दोनों के धनी थे। इनका लिखा साहित्य असत्य को मिटाने में रामबाण का कार्य करता है।


इन के तीसरे शिष्य गुरुदत्त विद्यार्थी थे - अप्रतिम प्रतिभा के धनी, विज्ञान से एम०एस-सी०। उनका जीवन चरित्र पढ़ने से ज्ञात होता है कि इनकी स्मृति इतनी आश्चर्यजनक थी कि एक बार पढ़ी पुस्तक में यह बता देते थे कि अमुक विषय अमुक पृष्ठ पर है। इन्होंने वेद मंत्रों के आधार पर अनेक वैज्ञानिक तथ्य उपस्थित करके विज्ञान के विद्वानों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। पाश्चात्य विश्वविद्यालयों में इनकी पुस्तकें विशिष्ट रूप से पढ़ी जाती थीं। अपना जीवन महर्षि के कार्य को समर्पित करके इन्होंने अहर्निश इतना परिश्रम किया कि इनका कठोर शरीर भी कार्याधिक्य को सहन न कर पाया और २८ वर्ष की अल्प आयु में उन्होंने अपने मन तथा धन के साथ ही अपने तन को भी 'इदम् दयानन्दाय इदम् न मम्' कहकर महर्षि के कार्यों को आगे बढ़ाने में होम दिया।


श्यामजीकृष्ण वर्मा को महर्षि ने वैदिक सभ्यता का प्रचार, प्रसार तथा स्वतंत्रता आंदोलन का सूत्रपात करने के लिए विदेश भेजा था। इन्होंने आजीवन देश से दूर इंग्लैंड में रहकर उस कार्य को किया और अपना समस्त जीवन देश की आजादी के लिये न्यौछावर कर दिया।


लाला लाजपत राय को कौन नहीं जानता। वे महर्षि दयानन्द को अपना पिता तथा आर्यसमाज को अपनी माता कहा करते थे। वे कहा करते थे कि मैंने अपने जीवन में जो अच्छाइयां लीं वे इन्हीं दोनों से सीखीं। अपनी पुस्तक 'आर्यसमाज' में वह कहते हैं कि आर्यसमाज जितना शक्तिशाली होगा हिन्दू भी उतने ही शक्तिशाली होंगे। साइमन कमीशन के विरोध में पुलिस की लाठियों से इनका देहांत हुआ। लाठियों से आहत होने पर इन्होंने कहा था कि मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के कफन की कील साबित होगी।


महात्मा हंसराज ने त्यागमय जीवन बिता कर तथा राजपाल ने छुरे से पेट फड़वा कर भी आर्यसमाज के कार्य को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया। इसी प्रकार उनके सैंकड़ों ज्ञात और अज्ञात शिष्यों ने त्याग एवं बलिदान का पथ अपनाया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में तो उनके शिष्य ८० प्रतिशत थे। अतः शिष्यों से देखें तो उनके त्याग, तप, बलिदान, देशभक्ति एवं स्वतंत्रता प्राप्ति की ललक वालों का एक लम्बा एवं विस्तृत इतिहास है। यह अनोखे गुरुत्व का साक्षात निदर्शन है।


गुरु की दूसरी पहचान होती है उसके बताए मार्ग से। प्रायः गुरु लोग अपने को भगवान का प्रतिनिधि बताने का दुस्साहस कर अपने अहम की पुष्टि किया करते हैं। किन्तु उनके मन के किसी कोने में भी स्वयं पुजने या भगवान का प्रतिनिधि बनने की भावना तक ना आई।


उन्होंने अपने शिष्यों को भगवान को ही महान मानने को कहा। एक बार आर्यसमाज में लोगों के संध्या करते समय स्वामी जी के वहां आ जाने पर सब लोग स्वागत में खड़े हो गए। महर्षि ने उन्हें समझाया कि आपका परमात्मा की उपासना को बीच में छोड़कर उठ जाना यह प्रदर्शित करता है कि आप मुझे भगवान से ऊंचा मानते हो। ऐसा फिर कभी न करना। संध्या के समय चाहे चक्रवर्ती सम्राट भी आए तब भी संध्या को छोड़ना नहीं चाहिए। याद रखो ! भगवान सब से पूज्य और महान हैं। थे न वह गुरुओं में भी निराले।


"निराले दयानन्द - समाज सुधारकों में"


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समाज सुधारको में भी दयानन्द निराले थे। यहां अन्य भी अनेक समाज सुधारक हुए तथा उन्होंने समाज सुधार का प्रशंसनीय कार्य किया। कबीर ने मूर्ति पूजा को निरर्थक बताते हुए कहा था -


पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार।


इससे तो चक्की भली पीस खाए संसार।।


नरसी भक्त भी पत्थर पूजा एवं स्नान को व्यर्थ मानते थे। ऊंच- नीच, जात-पात, छुआछूत का अनेक सुधारकों ने विरोध किया। राजा राममोहन राय ने सती-प्रथा को वैधानिक रुप से बंद कराने में सराहनीय कार्य किया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर का विधवा विवाह कार्य भी प्रशंसनीय था। किन्तु पण्डित वर्ग इन सब कार्यों को सुनकर कह देता था कि बकने दो, मूर्ख हैं। जब वेदों में ऐसा करना लिखा है तो इनकी बातों का क्या प्रमाण ? जैन तथा बौद्धों ने यज्ञ में पशुहिंसा का जमकर विरोध किया। यद्यपि उनका कार्य स्तुत्य था किंतु क्या पंडितों ने उसे स्वीकार किया ? वे सब यही कहते थे कि इनके कहने से क्या होता है जब वेद में पशु को मारकर उससे होम करने का विधान है। पांच हजार वर्षों में एक भी ऐसा समाज सुधारक नहीं हुआ जो डंके की चोट कह सके कि वेदों में इनका विधान नहीं है। अकेले दयानन्द ही ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होंने समस्त कुरीतियों का वेदों के आधार पर खण्डन किया तथा पंडितों को चुनौती दी ऐसा वेद में कहां है ? पण्डित वर्ग जिन मंत्रों में अवतारवाद, मूर्तिपूजा, सतीप्रथा या पशुहिंसा आदि का विधान मानता था महर्षि ने उन मंत्रों के सत्य अर्थ करके बताया कि इन मंत्रों में इन कुरीतियों का लेशमात्र भी उल्लेख नहीं है। यह उनको समाज सुधारको में निराला सिद्ध करता है।


हिंसा के अभिशाप को मिटाने के लिए जैन तथा बौद्ध धर्म के प्रशंसनीय प्रयास का एक दुःखद पक्ष यह भी है कि वे आर्य जाति के विघटन की नींव डाल गए। आज भी जैन बौद्ध अपने को पृथक मानते हैं। साथ ही उस प्रशस्य कार्य को पूर्ण करने के लिए एक अप्रशंसनीय तथा दुर्भाग्यपूर्ण कार्य 'वेदों का त्याग' भी उन्हें अपनाना पड़ा। इससे समाज का हित न होकर अहित ही हुआ एवं आर्यों में विभाजक रेखाएं मुखर हो उठीं। किन्तु महर्षि ने समस्त कुरीतियों का प्रबल प्रतिवाद करते हुए भी न जाति को विभक्त होने दिया और न वेदविरोधी। अपितु वे जन समुदाय को वेदों के अत्यंत निकट लाने में पूर्ण सफल रहे। स्त्रियों तथा शूद्रों तक को वेद का अधिकार देकर वे वेद के साथ उन्हें जोड़ गए। यह भी उनका निरालापन सब समाज सुधारकों में स्पष्ट दीखता है।


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"निराले दयानन्द - योगियों में"


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भारत में अनेक योगी हुए हैं। वे संसार को छोड़कर मोक्ष के साधनों में लगे। भारत को उन पर गर्व है। आज भी हिमालय की गुफाएं योगियों से खाली नहीं हैं। आत्मा ही उनका संसार है तथा मोक्ष लक्ष्य। उसी के चिंतन में वे अहर्निश डूबे रहते हैं। कोई जिए या मरे, देश स्वतंत्र हो या परतंत्र, लोग भूख-प्यास से मरें या सुखद जीवन बिताएं। चाहे संसार अज्ञान, अत्याचार, अभाव, असमानता, निर्धनता आदि की चक्की में पिसता रहे, इस सबसे पृथक हो वे अपनी साधना में लीन रहते हैं। हमारे लिए तो वे भी वन्दनीय हैं परंतु दयानन्द में हम एक विशिष्टता देखते हैं। वे भी उच्च कोटि के योगी थे। लोगों ने उन्हें १८ घंटे तक समाधि लगाए देखा था। इतना योग निष्णात होने पर भी ऋषि जी ने अपनी साधना को जारी रखते हुए भी दुःखित जनता को नहीं भुलाया था। भारत की निर्धनता, परतंत्रता, पशु वध, विधवा व अनाथों की दुर्दशा, नारी की अशिक्षा, अछूतों की हीनदशा ,पाखण्ड, धर्म के नाम पर छल कपट, व्यभिचार, अज्ञानता, ये सब बातें दयानन्द को अंदर से सालती थीं। सब दुःखितों के दुःख को वे अपना मानते थे। एक बार वे गंगा किनारे समाधि में लीन थे। एक स्त्री को पुत्र वियोग से विलाप करते देखकर समाधि खुलने पर उसे बिना कफन के नंगी लाश बहाते देख वे रोते हैं तथा अपने समाधि के एकाकी सुख को छोड़कर लोक हित में लग जाते हैं। जहां योगी लोग आत्मा से बाहर के जगत को अपने पथ में बाधा मानते हैं वहां दयानन्द संसार के दुःख को मिटाने कमर कस कर निकलते हैं तथा अनेक कष्टों को सहकर भी जगत हित के व्रत को लेते हैं। इसके लिए उन्होंने न केवल अनेक कष्ट सहे बल्कि प्राणों का बलिदान भी किया किन्तु महर्षि जी अपने व्रत में अडिग रहकर लोक सेवा के कठोर व्रत को प्राणपण से निभाते हैं। यह देव दयानन्द का योगियों में भी निरालापन था।


"निराले दयानन्द - तपस्वियों में"


सभी तपस्वियों को हम नमन करते हैं। परन्तु ऋषि दयानन्द जी में उनसे भी कुछ निरालापन देखते हैं। जहां तक शारीरिक तप की बात है लोगों ने उन्हें शीतकाल में हड्डियों को भी कंपाने वाली ठंड में नदी के रेत पर मात्र लंगोटी लगाए बैठे देखा था। बाप रे बाप, यह आदमी है या कुछ और ? जीवित व्यक्ति है कि प्रतिमा ? लिहफ़ों में पड़े लोग ठंड से डरें और यह नदी के रेत में जो बर्फ से भी ज्यादा ठंडा हो जाता है, कौपीन मात्र लगाए बैठा है ! दयानन्द तेरे शारीरिक तप की बलिहारी। धर्म भाव में भी दयानन्द अद्वितीय हैं निराले हैं। हम उन्हें अनेक कष्ट सहकर भी धर्म के मार्ग पर अडिग देखते हैं। उनका जीवन चरित्र पढ़ें तो ज्ञात होता है कि क्या नहीं सहा धर्म पालन के लिए उस देव ने। तलवार के वार, ईंट-पत्थर, निन्दा, अपमान, मिथ्यारोप, विषपान, प्राणहरण के प्रयास तथा विपुल धन संपदा का लोभ - ये सब भी उन्हें धर्म मार्ग से विचलित न कर सके। कौन करे इतना तप। इदम् धर्माय - इदम् न मम कहकर आत्म बलिदान देने वाले संसार में कितने मिलेंगे ? सचमुच न्यायात पथः प्रविचलन्ति पदम् न धीराः अर्थात हजारों मुश्किलें आने पर भी धैर्यशील जन न्याय के पथ से एक पग भी विचलित नहीं होते। दयानन्द धीरता के मूर्तिमान उदाहरण हैं। शारीरिक तप को देखो या कष्ट सहकर भी धर्म में अडिग रहना, दोनों में दयानन्द उच्च कोटि के महापुरुष हैं। दयानन्द यहां भी निराले हैं।


"निराले दयानन्द - त्यागियों में"


त्याग सबसे कठिन कार्य है। संसार में मृत्यु भी तो इसीलिए दुःखद मानी जाती है कि वह सब कुछ छुड़ा देती है। परंतु कुछ भाग्यशाली इस संसार की वस्तुओं को जीते जी त्याग देते हैं। वे महान हैं - बहुत महान। हम उनके त्याग के प्रति नतमस्तक होते हुए भी जब दयानन्द से उनकी तुलना करते हैं तो देव दयानन्द वहां भी निराले मिलते हैं। कारण, कि सब कुछ त्याग कर जंगल में जाने पर भी शेष त्यागियों ने वहां आश्रम बनाए थे। जीवननिर्वाह के लिए सर पर छत तो चाहिए। आज भी घूमने वालों को गंगा-सागर में कपिल का आश्रम, रेणुका (ददहु) में जमदग्नि का आश्रम तथा कोटद्वार से कुछ दूर मालिनी नदी के तट पर पर्वत की गोद में कण्व का आश्रम सुनने को मिल जाता है। अन्य त्यागियों ने भी अपने आश्रम बनाए थे। वशिष्ठ, विश्वामित्र, सान्दीपनि आदि गुरुओं के आश्रम तथा गुरु विरजानन्द जी की कुटी का तो पता चलता है किन्तु सारे भारत का भ्रमण करने पर भी किसी को दयानन्द की कुटिया नहीं मिलेगी। था न यह त्यागियों में भी निराला ?


अन्य भी इसके जीवन में त्याग के सूत्र बिखरे मिलते हैं। रावल जी के अतुल धन का प्रलोभन, उदयपुर की एक लिंग की गद्दी, काशी के विद्वानों का दशम अवतार मानने का प्रलोभन, दिल्ली के निकट के एक सेठ का धन वैभव का लुभावना प्रस्ताव तथा अतुल संपदा व ऐश्वर्यों से भरे पूरे मठों पर उनके द्वारा मारी गई ठोकरें आज


"निराले दयानन्द - सन्तों में"


सन्त हमारे समाज की अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने भोगोन्मुख जनसमुदाय को अध्यात्म की ओर प्रेरित किया तथा उन्हें ईश्वर भक्ति का महत्व बताया। जाति-पाति छुआछूत के अभिशाप से जनता को बचाने का प्रयास किया। सबसे समभाव का उपदेश दिया। हम उनके ऋणी हैं। किन्तु जैसे फूलों के साथ कांटे भी होते हैं उसी प्रकार एक दोष सन्तों से भी समाज में आया। वह है जितने सन्त उतने पन्थ। इन भेदक रेखाओं से आर्यों की एकता को आघात लगा है तथा वे टुकड़ों में बंटा जीवन जी रहे हैं।


परंतु दयानन्द का यहां भी यह निरालापन रहा है कि सन्तों के उपर्युक्त गुणों से भी अधिक गुणयुक्त तथा समग्र क्रांति का अग्रदूत होते हुए भी इस महापुरुष ने कोई नया मत नहीं चलाया अपितु प्राचीन वैदिक मान्यताओं पर आधारित तथा उसी का प्रचार-प्रसार करने के लिए एक समाज की स्थापना की। वह भी दयानन्द समाज नहीं अपितु आर्यसमाज। वे आर्यसमाज रूपी भवन की नींव के पत्थर बने कंगूरे नहीं।


"निराले दयानन्द - शिष्यों में।"


महर्षि दयानन्द गुरुओं में तो निराले थे ही वे शिष्यों में भी निराले थे। उनके शिष्यत्व का निरालापन सर्वप्रथम हमें उस समय दिखलाई पड़ता है जब वे गुरु विरजानन्द जी की कुटिया पर उनके शिष्य बनने के लिए जाते हैं। गुरु उन्हें शिष्य बनाने के लिए अधिक उत्सुक नहीं हैं। उसके दो कारण थे। प्रथम तो उनके भोजन की समस्या थी। यदि वह भिक्षा करते फिरेंगे तो पढ़ाई के लिए पूरा समय न निकाल सकेंगे। दूसरे, दयानन्द सन्यासी थे। सन्यासी दूसरे का नियंत्रण स्वीकार करने को प्रायः तैयार नहीं होते। किसी भी बात पर वह विरजानन्द जी से कह सकते थे कि मैं क्या आप से कम हूं। आप सन्यासी हैं तो मैं भी हूं। दयानन्द ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आप मेरे विषय में कभी शिकायत न सुनेंगे। गुरु जी ने भी समझ लिया कि है तो सुपात्र। कहा, भोजन का प्रबंध कर लो और आ जाओ पढ़ने। श्रीयुत अमरलाल जोशी, जिनका समस्त आर्य जगत सदैव ऋणी रहेगा, ने भोजन व्यवस्था अपने जिम्मे ली तथा उसे श्रद्धा से निभाया। आ गया शिष्य गुरु चरणो में। गुरु जी ने पूछा क्या पढ़े हो ? महर्षि ने पठित व्याकरण ग्रंथों के नाम गिना दिए। आज्ञा हुई कि अब तक का पढ़ा सब भूल जाओ। बिना किसी प्रकार की ननु-नच किए दयानन्द उसे मान लेते हैं तथा अन्तः पटल पर अंकित पूर्व व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान को ऐसे भुला देते हैं जैसे स्लेट पर लिखे को मिटा दिया जाता है। क्या यह कम बात थी ? फिर पुस्तकों के विषय में पूछते हैं। दयानन्द ने उन पुस्तकों को न जाने कितने श्रम से संचित किया था। हो सकता हो उनमें उनका मन बसता हो। उन्होंने सब कुछ छोड़ कर केवल पुस्तकों को ही तो उपयोगी समझकर संचय किया था। नाम बताने पर गुरु कठोर आदेश देते हैं कि इन सब को यमुना में प्रवाहित कर आओ। दयानन्द जानते थे कि गुरुजी के बाह्य नेत्र नहीं हैं। अतः वे उन्हें अमरलाल जोशी या अन्य किसी के यहां रख कर फेंक आया कह सकते थे। गुरुजी को पता भी न चलता। किन्तु छल कपट तो दयानन्द ने सीखा ही नहीं था। वे अपने अरमानों की भेंट तुरन्त यमुना को अर्पण कर देते हैं। कुछ भरने के लिए पूर्व भरे पात्र को खाली तो करना ही पड़ता है।


(योग्य गुरु की आज्ञा का हर हाल में पालन करते हैं, यही था उनके शिष्यत्व का निरालापन)।


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स्त्रोत - निराले दयानन्द।


लेखक - डॉ सत्यव्रत 'राजेश'।


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