महर्षि विरजानन्द जी के जीवनवृत्त की एक झलक

महर्षि विरजानन्द जी के जीवनवृत्त की एक झलक


      ब्राह्मण कुल के धार्मिक परिवार में जन्मे विरजानन्द का उपनयन संस्कार कराया गया था और इस बालक ने गायत्री मंत्र की दीक्षा पाई थी। पांच वर्ष की आयु में चेचक (माता) के रोग में इसकी आँखें चली गई थी। विरजानन्द बाल्यावस्था में घर के अत्याचारों से दुःखी होकर निकल पड़े थे और विद्वानों का संग पाकर व्याकरण और दूसरे शास्त्रों के मर्मज्ञ बन गए थे। विरजानन्द बुद्धिमान् था और उनकी स्मरणशक्ति बड़ी तीव्र और आश्चर्यमय थी। उन्होंने आर्षग्रन्थों की कसौटी को अपने हाथों में रखा।


      विरजानन्द जी रात को 2 बजे उठकर तीन घण्टे समाधि लगाते थे और नियत समय पर पहुँचकर पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते थे। विरजानन्द जी ने बड़ी तपश्चर्यापूर्वक गंगा तीर पर रहकर तीन वर्ष तक गायत्री मंत्र का जप किया था। कण्ठ पर्यन्त जल में खड़ा होकर गायत्री मंत्र का जप करके इस अन्धे नवयुवक ने अपने तपोबल से अगाध विद्या और अलौकिक ब्रह्मतेज प्राप्त किया था। आँखें न होने के कारण विरजानन्द की चित्तवृत्ति अन्तर्मुखी सरलता से हो गई थी। विरजानन्द जी ने वेद की मर्यादाओं का पालन करते हुए कठोर पुरुषार्थ किया और बीस वर्ष की आयु में आचार्यों की तेजस्वी परम्परा में प्रविष्ट कर गये थे।


     जा इसके पश्चात् विरजानन्द जी ने कनखल में योगिराज दण्डी स्वामी सम्पूर्णानन्द जी के चरणों में बैठकर एक वर्ष तक वेदों की शिक्षा प्राप्त करके संन्यास धारण किया था। बालब्रह्मचारी दण्डी स्वामी विरजानन्द की प्रभु-भक्ति, ऋषि- भक्ति और मातृ-भूमि के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। गुरुजी ने विरजानन्द को 'ऋषियांवाला' की पदवी से विभूषित किया था। 


      23 वर्ष की आयु में महर्षि विरजानन्द जी का यश सर्वत्र फैल गयासंसार में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जब किसी के सदाचरण की सुगन्ध संसार में न फैली हो और लोग उससे अपरिचित रहे होंशास्त्रार्थ के युग में हरद्वार, काशी, मथुरा और वृन्दावन के बड़े-बड़े दिग्गज संस्कृत के विद्वान् एक स्वर से कह रहे थे कि मथुरा वाले दण्डी स्वामी विरजानन्द को पराजय करो और दिग्विजय को प्राप्त करोविरजानन्द जी शास्त्रार्थ के पुरोधा थे। काशी, मथुरा और वृन्दावन के प्रसिद्ध विद्वान् उनकी संस्कृत की शुद्ध वक्तृता इसलिए सुनने आते थे कि वह प्रणाली मन्त्र उच्चारण की सीख सकें जो ठीकठीक वैदिक है।


      स्वामी जी पाठशाला में छात्रों को पृथक्पृथक् पढ़ाते थे, क्लास बनाकर नहीं पढ़ाते थे। वे छात्रों से अन्वय बनवाते थे और मन्त्रों को निरुक्तरूपी यौगिक चाबी से खोलकर अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त, निघण्टु और शतपथादि ग्रन्थों का प्रमाण देकर मन्त्र में एक-एक शब्द का अर्थ सिखाते थे और छात्र विद्वान् बनकर घर लौटते थे। सृष्टि में वेदमन्त्रों के अर्थों को समाधिस्थ बुद्धि से दर्शन कराने वाले ही ऋषि कहलाते हैं। ऋषि का दूसरा नाम मन्त्रद्रष्टा है, मन्त्रद्रष्टा होने के कारण ही स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द ऋषि और महर्षि कहलाये। न महर्षि विरजानन्द जी की योग्यता का परिचय इस बात से मिलता है कि दयानन्द जी स्वयं यह वर्णन करते हैं कि शिक्षा समाप्त करके दो वर्ष तक आगरा में शास्त्रों का गम्भीर पर्यालोचन करते रहे। जहाँ भी उन्हें बाधा आती थी, वे गुरुजी से सम्पर्क करके उसका समाधान कर लेते थे। आर्षग्रन्थों के प्रति दयानन्द की गहरी निष्ठा गुरु विरजानन्द की ही देन थी


       ऋषि विरजानन्द जी ने दयानन्द को वेदविद्या सिखाकर अपनी प्रचण्ड शक्ति किरणों द्वारा ऋषि श्रेणी का मनुष्य बनाया और संसार से अविद्या-अन्धकार मिटाने के लिए, वेदों के पुनरुद्धार के लिए और प्रचार के लिए उद्यत कियायही थी वैदिक काल की महिमा और प्राचीन ऋषियों की तेजस्वी परम्परा । पृथ्वी पर पुनः वैदिक समय लाने के लिए और संसार में वेदों की कीर्ति फैलाने के लिए अपना जीवन अर्पित करके महर्षि विरजानन्द जी अमर हो गए। उनका सारा हृदय वेदविद्या से परिपूर्ण था।


 


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