कल्पना करें कि यदि आज महार्षि दयानन्द सरस्वती जी हमारे बीच पहुँच जायें तो वह क्या कहते

कल्पना करें कि यदि आज महार्षि दयानन्द सरस्वती जी हमारे बीच पहुँच जायें तो वह क्या कहते


       यदि हम आज कल्पना करें कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी हमारे बीच आ जाते तो वह आर्य जगत की गतिविधियां, कार्य प्रणाली, एवं आर्य जगत से बाहर सनातन धर्म मानने वालो की कार्य प्रणाली देखकर आश्र्चय करते। वह सोचेंगे कि जिस ईश्वरीय वाणी वैदिक धर्म व सामाजिक राजनैतिक सुधार के लिए मैंने जीवन बलिदान किया था। वह तो आज इस धरती पर बहुत ज्यादा पाखण्ड बढ़ गया है। इन पाखण्डो को दूर करने के लिए मैंने आर्य समाज रूपी ज्योति जगाई थी, वह जल तो रही है किन्तु उतनी तेज रोशनी से नहीं। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक पाखण्ड का अन्धकार बहुत बढ़ गया है, आज आर्य समाज की ज्योति उस अन्धकार को दूर करने में क्यों अक्षमक हो रही है, वे सोचते ?


        महर्षि दयानन्द जी सोचते:- मैंने सत्यार्थ प्रकाश में विशेष कर आर्यो को निर्देश दिया कि लोकेषणायाश्य वित्षणायाश्य पुढेषायीत्थायाथ 


       अर्थातः लोक में प्रतिष्ठा व लाभ धन से भोग वा मान्य पुत्रादि के मोह से अलग होके ग्रहस्थी, वानप्रस्थी व सन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहे।


        महर्षि कहते : हे आर्यो, तुम तीनो वर्ग अपने सिधान्तों से कही न कहीं समझौता कर रहे हो, यदि पूर्ण सिधांतों पुरूषार्थ व आदर्शो पर चलते तो आज कृणवन्तो विश्वमार्यम का लक्ष्य पूरा कर लेते।


गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलित मातयनः।


अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत।।


      अर्थातः जब गृहस्थी शिर के स्वेत केश और त्वचा ढीली हो जाये और लड़के का लड़का भी हो गया हो तब वन में जाके बसे।


स्वध्यायेन जपैमेस्वेविधेनेज्यता सुतैः।


महायज्ञेश्य यज्ञेश्च बहर्नीय त्रियते तनुः।।


      अर्थातः ग्रहस्थी को पढ़ने पढ़ाने विचार करने कराने, नाना विद्य होम सम्पूर्ण वेदो को पढ़ने पढ़ाने धर्म से सन्तानोत्पत्ति व पंच महायक्ष करने का आदेश।


      महर्षि कहते हे आर्योः सर्व प्रथम अपने को परिवार को आर्य बनावो, फिर जगत को आर्य बनावो।


न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा, वृद्वा न ते येन वदन्ति धमर्म।


नासौ धर्मो यत्र न सत्य मस्ति न तत सत्यं यच्छलेना म्युपेतन।।


        अर्थातः वह सभा नही जिससे वृद्व न हो, व वृद्व नही जो धर्म की बात नही बोलते वह धर्म नही जिसमें सत्य न हो और न वह सत्य है जो छल से युक्त हो।


       महर्षि कहते हे आर्योः तुम सबको सदैव सत्य को ग्रहण और असत्य को छोड़ने के लिय तत्तपर रहना चाहिए। चाहे संसार बैरी हो जाये, मृत्यु भी सम्मुख हो किन्तु सत्य पथ को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।


ओ3म् इन्द्र वृधन्तो प्तुरः कृण्वन्तो विश्वामायर्म।


अपघ्नन्तो अरावणः।। (ऋ०)


       महर्षि कहते हे आर्योः मैं तुम्हे आशीर्वाद देकर तुम्हारी प्रशन्सा करता हूँ तुमने अब तक वेदो की रक्षा की है। वैदिक धर्म की मसाल जला के रखी है। यज्ञों को जीवित रखा हुआ है। आर्य समाज भवनों का बहुतायत में निर्माण किया है। किन्तु अभी बहुत कुछ पुरूषार्थ करना बाकी हैसारे विश्व को आर्य बनाने का संकल्प पूरा करना है।


संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम।


देवो भाव यथा पूर्वे संजनाना उपासते।(ऋ0)


       महर्षि कहते हे आर्थोः इस मंत्र को तुम भूलते जा रहे हो। क्योंकि आर्य समाज की स्थापना के बाद पचास साल तक तो तुम आर्यो ने त्याग, पुरूर्षाथ व बलिदान की मिसाल कायम की थी और एक संगठन में चलते थे। किन्तु अब महसूस हो रहा है तुम ईकाई आर्य समाज मेनं, व प्रतिनिधि व सार्वदेभिक सभाओं में आपस में लड़ रहे हो। तुम लोगों के झगड़े न्यायालयों में भी पहुंच गये हैं। जबकि न्यायपालिका तुम्हारे आधीन होनी चाहिए थी। अभी भी वक्त रहते एक हो जाओ सब झगड़े समाप्त करो। एक संगठन के झन्डे के नीचे कार्य करो।


यत्र धर्मो हव्यधर्मेण सत्य नृतेन च।


हयन्ते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभा सदः।


        अर्थातः जिस सभा में सभा सदो को देखते 2 आधर्म से धर्म और झूठ से सच मारा जाता होउस सभा के सभा सद मरे हुए के. समान है।


        महर्षि कहते हे आर्योः देखने में आ रहा है आप लोग अर्थात सन्यासियों, उपदेशकों पुरोहितो व पदाधिकारियों में कही न कही गुट बाजी व ईर्ष्या से सत्य का हनन हो रहा है। इसलिए मेरा आदेश है कि तुम सभी आर्य आपसी कहल छोड़ कर सत्य मार्ग पर आ जावो और अपनी अपनी हटधर्मी छोडो। जिससे आर्य समाज की सर्वागीण उन्नति होगी। और सभी वर्ग अपना अपना अहंकार छोड़ कर ईष्या द्वेष समाप्त करोसारा संसार तुम्हारी और देख रहा है।


भारत वर्ष (आर्यवृत) और आर्यो का सौभाग्य


        ईश्वर की कृपा से भारत जैसे ऋषि मुनियों के देश में सारे विश्व के देशों को छोड़कर भारत की पवित्र भूमि में ही ईशकृपा से देव महर्षि दयानन्द का जन्म हुआ हैयह भारत वासियों का परम सौभाग्य हैकि सृष्टि उत्पत्ति के देश में ही जन्म हुआ। हमारे कई जन्मो के पुण्य प्रताप से विश्व की सर्वोच्च धर्मिक, सामाजिक संगठन आर्य समाज से हमें जुड़ने व कार्य करने का सोभाग्य प्राप्त हुआ है। इन दो कारणों से हमारा सोभाग्य है।


आत्म निवेदन


       मान्यवर आर्य श्रेष्ठो, जी हम महर्षि दयानन्द जी के सच्चे अनुयायी हैं तो हमें हर समय आभास करना चाहिए कि पूज्य देव दयानन्द हमारे मार्ग दर्शक सदैव हमारे सम्मुख हैं और हमारे प्रत्येक .कार्यो को देख रहे हैं। लाखों जन्मों के पुण्य प्रताप से वेद मार्ग पर चलने का यह जीवन में प्राप्त हुआ है। महार्षि दयानन्द जी ने हमें सच्चे ईश्वर व उनकी वाणी वेदों का मार्ग बताया है। आज हमारे चारो ओर घोर अन्धविश्वास व नयी नयी धार्मिक व सामाजिक कुरूतियां झाड़ियो की तरह उग रही हैं हमारे सम्मुख विशाल चुनौतियां खड़ी हैं। हमें समस्त भेद, ईष्या, अहंकार, एक शक्ति शाली संगठन में एक स्वर से इन चुनौतियों के निवारण हेतु आन्दोलित होना पड़ेगा। तभी हम महर्षि दयानन्द की जय-आर्य समाज अमर रहे वेद की ज्योति जलती रहे, ओउम का झडा ऊँचा रहेसच्चे मायनों में कहने के अधिकारी होंगे।


 


 


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