जीव फल भोगने में परतन्त्र क्यों



      प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह चाहे जैसा कर्म करे, यह उसकी स्वतन्त्रता है। अपने विवेक, ज्ञान, बल, साधन, इच्छा व स्थिति के अनुसार ही कर्म करता है परन्तु अपनी इच्छानुसार वह फल भी प्राप्त कर ले, यह निश्चित नहीं। इसे ही दर्शनान्दु सार फल भोगने में परतन्त्रता कहते हैं।


       कर्म का कर्त्ता व इसका फल भोक्ता जीव है परन्तु वह फलदाता नहीं। यही न्याय की माँग है। फलदाता स्वयं बन जाता तो पक्षपात व अन्यय सर्वत्र व्याप्त हो जाएगा। हम लोग-समाज में देखते हैं कि हम कर्म किए बिना फल चाहते हैं। फल भी ऐसा चाहते हैं जो सुखदायक हो। यदि हम चाहते-न-चाहते हुए पाप कर्म कर लेते हैं तो भी फल तो पुण्यकर्म का चाहते हैं-


फलं पापस्य नेछन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।


फलं धर्मस्य चेछन्ति धर्मं न कुवन्ति मानवाः।।


       हमारी इच्छानुसार व्यवस्था हो जाए तो अनाचार, अन्याय व अव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान कर रखी है तथा कर्मों का फलदाता वह स्वयं ही है। इससे व्यवस्था ठीक रखन में सहायता मिलती है। यदि हमारी इच्छानुसार ही व्यवस्था हो जाए व हम न्याय व सत्य को तिलाञ्जलि देकर कर्म करेंगे तो समाज में अनाचार, अव्यवस्था व अत्याचार का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। अतः ईश्वर ने जीवों को केवल कर्म करने की स्वतन्त्रता प्रदान की तथा कर्मफल का अधिकार अपने पास ही रखा है। फल भोगने में परतन्त्रता का दूसरा कारण यह है कि जीव सर्वज्ञ नहीं है। दूसरों के कर्मों को जानना तो दूर की बात है, वह अपने सभी कर्मों को भी पूर्णतः नहीं जानता। कर्मों की संया न उनका शुभ-अशुभ होना, पापयुक्त या पुण्ययुक्त होना, किस कर्म का क्या फल है- इन बातों की जानकारी जीव को नहीं होती। मनुष्य योनि में रह रहे जीव को यदि तनिक-सा ऐसा ज्ञान हो भी जाए पर मनुष्येतर योनियों में तो ज्ञान होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। मनुष्येतर योनियों में जीव केवल आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन- इन चार कर्मों से अधिक कर्म करने की क्षमता, ज्ञान व इच्छा नहीं होती। मनुष्य योनि में आया जीव उपरोक्त चार कर्मों के अतिरिक्त धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि से युक्त कर्म करने का सामर्थ्य रखता है परन्तु वह भी एक सीमा तक। अपनी सीमा में रहकर भी अपने सब कर्मों को स्मरण रखना व उनका निर्णय करने की पूर्ण क्षमता जीव में है ही नहीं।


       तीसरा कारण यह है कि जीव को फल प्राप्त करने हेतु शरीर, आयु व भोग पदार्थों की आवश्यकता है। शरीर रहित जीव को यह भी बोध नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। प्राण, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेंन्द्रियाँ, मन व बुद्धि आदि के बिना वह ऐसे रहता है, जैसे अस्पताल में मूर्च्छित अवस्था में एक व्यक्ति पड़ा रहता है। तब उसे अनुभव नहीं होता कि वह है भी अथवा नहीं। वह कौन है, कहाँ है, क्यों है, यह भी ज्ञात नहीं होता। अंग-प्रत्यंग, श्वास-प्रश्वास आदि को प्राप्त करके ही जीव फल भोगने में समर्थ होता है। ये वस्तुएँ उसे पूर्व जन्मों के कृत कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होती हैं।


     इस सबन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का निनलिखित लेख विषय को अधिक स्पष्ट करता है-


प्रश्न– जीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र?


उत्तर– अपने कर्त्तव्य- कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र (=अष्टा. 1/4/54) है जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है।


प्रश्न– स्वतन्त्र किसको कहते हैं?


उत्तर– जिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उसको पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता क्योंकि जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों की मार के भी अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और अधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव की पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी भी प्रेरक परमेश्वर होवे। नरक-स्वर्ग अर्थात् दुःख-सुख की प्राप्ति भी परमेश्वर की होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र-विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है और दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं, वैसे पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसीलिए सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसीलिए कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल और पुण्य के सुख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।


प्रश्न– जो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है।


उत्तर– जीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाए हुए हैं परन्तु वे सब जीव के अधीन है। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं।’’



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