गुरुकुल
गुरुकुल यह शब्द ही अपना परिचय देने के लिए प्रर्याप्त है,गुरु और उसका कुल अर्थात् परिवार (शिष्य आदि) । सृष्टि के आरंभ से ही हमारे पूर्वजों ने जिस सार्वकालिक और सार्वभौमिक वेदविद्या की उपासना, आराधना की है उसमें गुरुकुलीय परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान है, महाभारत के उपरान्त इस परम्परा का ह्रास हुआ जो गुलामी के काल में सर्वथा नष्ट कर दी गई, थोड़ी-बहुत कुछ बची भी रही तो अत्यंत संकुचित होकर कुछ मुठ्ठीभर जन्मना ब्रह्मण कहलाने वाले परिवारों तक । गुलामी के उत्तर काल में ऋषि दयानन्द जी ने इस महान परम्परा से जनमानस को परिचय करवाया और तब १९०२ ऋषिवर के अनुयाई स्वामी श्रद्धानंद जी ने जन्मना जाति-पांती से ऊपर उठकर सभी के लिए एक आदर्श गुरुकुल की परिकल्पना की । जिसे आज सरकार के आधुनिक अगुरुकुलीय नियमों की छत्रछाया में हम गुरुकुल कांगड़ी के रूप में जानते हैं। उनके इस महान पुण्यकारी परिश्रम का अनुकरण करते हुए १९०७ में प्रतिष्ठित शास्त्रज्ञ सन्यासी स्वामी दर्शनानन्द जी ने गुरुकुल महाविद्यालय-ज्वालापुर, हरिद्वार सहित अनेक गुरुकुलों की स्थापना की ।इन दोनों महान सत्त्वाक संन्यासियों का अनुकरण-अनुसरण करते हुए देश विभिन्न भागों में गुलामी के उत्तर काल अर्थात् २०शताब्दी में अनेक आर्य महाशयों ने भूमि,भवन, संसाधन और यथेष्ठ धनादि देकर हजारों गुरुकुल स्थापित किए और करवाए । यह सब आर्य महाशयों के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप वेदादिशास्त्रों के साथ-साथ पुराणों को भी माननेवाले संस्कृतप्रेमी सज्जनों ने भी अनेक पाठशालाओं की स्थापना की । इन गुरुकुलों और विभिन्न पाठशालाओं से दीक्षित युवक ही क्रान्तिकारी भावनाओं से आप्लावित हुए और तब देश स्वतन्त्र हो पाया । स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त नेहरू जी पहले शिक्षा मंत्री के रूप में अब्दुल कलाम आजाद जी को चुना और भारतीय परम्परा की गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था जो अंकुरित होनी प्रारम्भ हुई थी उसकी भ्रूणहत्या के प्रयास प्रारंभ हो गये, जहां-जहां भी सरकारी सहायता, सहयोग और अनुदान पहुंचा वहीं से गौरवशाली स्वाभीमानी "गुरुकुलीय परम्परा" विदा होती चली गई । धीरे-धीरे वह पीढ़ी भी विदा हो गई जिन्होंने अपने प्राणपण से इस महान परम्परा को बनाया और चलाया था ।
सत्तालोलुप सत्ताधीशों ने सर्वदा परोपकार प्रिय,सभी के लिए सुलभ जीवनतत्त्वों को नष्ट करने में ही अपनी बढ़ती देखी है,सो नि: शुल्क ,निस्वार्थभाव से सर्वहितैसी गुरुकुलीय परम्परा को भला वे कैसे टिकने देते ? अनेक कांग्रेसियों ने अपने सत्ताकाल में गुरुकुलों की सम्पत्तियों एवं संसाधनों को हड़पा और हजम किया है । जब कांग्रेस का पराभव और संघ से दीक्षित भाजपा का उदय हुआ तब वोट के लिए बहकाए गए लोगों ने ऐसा सोचा कि संस्कृत, संस्कृति और सत्यधर्म की उन्नति होगी, किन्तु यह नहीं सोच पाए कि जिन लोगों को धर्म सिखाया-पढ़ाया ही नहीं गया,अपितु मात्र देश और धर्म के नारे लगाने मात्र सिखाए गए हों वे क्या खाक देशोन्नति एवं धर्मोन्नति के मूल स्तम्भों को जान पाएंगे ? उन मूल स्तम्भों की रक्षा और उन्नति कर पाएंगे ? कदापि नहीं । अतः आज आश्चर्य नहीं कि जब "भारत माता की जय" , "वन्देमातरम्" , और जय श्रीराम का जयघोष गूंजाने वाले संघ के स्वयंसेवक सत्तामद में मदमस्त मन्त्री होकर भी अपनी ही जड़ों को खोदने और अपनी ही जड़ों में मट्ठा डालने का काम क्षुद्र धन एवं सम्पत्ति की लालसा में कर रहे हैं । यह ठीक है कि - वर्त्तमान में नकली आर्य बनकर कुछ लोग इन गुरुकुलों की प्रबन्ध समितियों आदि में घुसकर इन बलिदान पर तपपूर्वक बनाए गए सनातन धर्म के जीवन्त स्मारकों को भीतर से भी महति हानि पहुंचाने में लगे हुए हैं । किन्तु इसका यह तात्पर्य तो कदापि नहीं है कि आपको जनता ने जिसका "चौकीदार" नियुक्त किया हो आप वहीं सेंधमारी करने लग जाएं । भाजपा सरकारों की अनेक राज्यों के चुनावों में जो शर्मनाक हार हुई है उसमें श्रीमान मदन कौशिक जैसे नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान है । किन्तु कभी-कभी एक ट्वीट पर काम करने वाले उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री तथा केन्द्र सरकार के माननीय प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री जी भी एक ऐतिहासिक सत्य को नहीं देख पा रहे हैं ? या धृतराष्ट्र मोह में पड़कर देखना ही नहीं चाहते हैं ?
सनातन धर्म प्रेमी सभी सज्जनों को इस विषय को समझना होगा और धर्म के लिए धर्म को जीना होगा तथा ऐसे नेताओं,ऐसी सरकारों को सबक सिखाना ही होगा । लड़ाई लम्बी लड़नी होगी, और निर्णायक लड़नी होगी । हम तैयार हैं, सरकार और सरकार के धन पिपासु नेता तय कर लें कि तुम कितने गिरोगे ???