ईश्वर वाणी

ईश्वर वाणी-
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शिवो भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यस्त्वमङ्गिर:।
मा द्यावापृथिवीऽअभि शोचीर्मान्तरिक्षं मा वनस्पतीन्॥(यजुर्वेद ११-४५)


भावार्थ:- हे मेरे प्रिय पुत्र, तुम सभी जीवों के लिए कल्याणकारी बनो । तुम्हें पृथ्वी और पर्यावरण को दूषित नहीं करना चाहिए । तुम आकाश और वायु को दूषित मत करो। तुम वृक्षों और वनस्पति को नष्ट मत करो। वातावरण की शुद्धि के लिये नित नये नये पेड लगाओ और उत्तम उत्तम पदार्थों से यज्ञ करो ।


O my beloved son, you be good to all living beings. You should not pollute earth and environment. Do not pollute sky and air. You shouldn't destroy the trees and vanaspati. For purification of environment daily implant new trees and perform Yajna. 
(Yajurved 11-45)
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ऋभुर्भराय सं शिशातु सातिं समर्यजिद्वाजो अस्माँ अविष्टु।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥ 
(ऋग्वेद १-१११-५)


वह ज्ञानदीप प्रभु हमें जीवन के संग्राम में विजयी होने के लिए उत्तम साधन प्राप्त कराएं। हमारा संरक्षण करें। वासनाओं से युद्ध में विजयी होने के लिए ज्ञान और शक्ति दे। हमारे  इस संकल्प को परिपूर्ण करने में मित्र, उत्तम गुण वाला विद्वान, पृथ्वी, समुद्र और सूर्य का प्रकाश सहायक हो।  


May God give us the best means to be victorious in the struggle of life.  Protect us.  Give knowledge and strength to win the battle against lusts.  Friend, scholar of best quality, earth, sea and sunlight should be helpful in fulfilling this resolve of ours.  
(Rig Veda 1-111-5)
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अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥
अथर्व० १० । ८ । ३२


भावार्थ :- मनुष्य समीप रहने वाले परमात्मा व अपने आत्मा को नहीं देखता है । उस पास रहने वाले को छोड़ भी नहीं सकता । हे मनुष्य ! ईश्वर के काव्य वेद को देख , वह न पुराना होता है और न मरता है । आत्मा और परमात्मा इतने सूक्ष्म हैं कि बिना विशेष ज्ञान के उनके दर्शन होने असम्भव हैं , किन्तु अदृश्य होने से कोई उनका त्याग भी नहीं कर सकता । उनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए परमगुरु परमात्मा की रचना वेद को पढ़ना - विचारना चाहिए । प्रभु का यह काव्य सदा बना रहता है , कभी विनष्ट नहीं होता,कभी पुराना नहीं होता ।
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याभिः परिज्मा तनयस्य मज्मना द्विमाता तूर्षु तरणिर्विभूषति।
याभिस्त्रिमन्तुरभवद्विचक्षणस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम्॥ 
(ऋग्वेद १-११२-४)


हे सर्वत्र गमन करने वाली वायु, पवन ऊर्जा, जल के स्रोत की  शक्तियां हमारी सुरक्षात्मक शक्तियों को सुशोभित करें।  आप अग्नि और जल की प्रमाण करने वाली हो।  तुम शीघ्रतम से शीघ्र हो। आप उन विद्वान लोगों के लिए अद्भुत मार्गदर्शक हो जो ज्ञान, कर्म और उपासना द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्ति में लगे हैं। 


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