दिल्ली के कबूतर
दिल्ली के कबूतर
कबूतर एक बड़ी विशिष्ट प्रजाति होती है।दाना चुगने में इतनी मशगूल रहती है कि पीछे से आकर कब कोई बिल्ली झुंड में से एक कबूतर को उठा ले जाये उन्हें पता ही नही चलता।धीरे धीरे झुंड में कबूतर कम होते जाते हैं पर बाकी कबूतरों को फिर भी कोई खास फर्क नही पड़ता।बिना मेहनत किये यदि दाना पानी मिल रहा हो तो फ़र्क़ बिल्कुल भी नही पड़ता।फिर एक दिन जब बिल्ली बिल्कुल सामने आ जाती है तो कबूतर आंखे बंद कर लेते हैं।उन्हें लगता है आंखे बंद कर लेने से बिल्ली उन्हें खाएगी नही। दरअसल कबूतरों की बड़ी समस्या ये "कबूतर प्रवर्ति "है न कि बिल्ली जो बिल्ली के सामने आने पर भी इनकी आंखे बंद किये रखती है।
ये कबूतर न तो अपने 1000 साल के इतिहास से कुछ सीखते हैं ,न सीरिया, इराक अफगानिस्तान की तबाही से।न इन्हें कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा दिखाई देती है, न केरल और बंगाल के पीड़ित हिंदुओं का कष्ट दिखाई देता है।न पाकिस्तान के हिंदुओं की पीड़ा पर इनके आंसू निकलते हैं,न बांग्लादेश के घुसपैठियों और रोहिंग्यों पर इनका खून खौलता है।न भव्य राम मंदिर के निर्माण की कल्पना इन्हें गौरवान्वित करती है, न धारा 370 के हटने की खुशी ये महसूस करते हैं ।न खुली छूट मिलने पर पराक्रमी सैनिकों द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक इन्हें रोमांचित करती है न बदलते,जागते भारत की तस्वीर इन्हें प्रफ्फुलित करती है।
इन कबूतरों को तो बस फ्री दाना ,फ्री बिजली,फ्री पानी चाहिए, उसके लिए फिर चाहे अपना सर्वस्व दांव पर क्यों न लगाना पड़े। इन कबूतरों को जगाना सबसे बड़ी चुनौती है।जब तक ये कबूतर नही जागेंगे तब तक फ्री बिजली ,फ्री पानी ,फ्री दाने के लालच में जंगली बिल्लियों का शिकार बनते रहेंगे। कबूतरों को दाना डालकर धोखे से जाल में फसाने वाले शिकारी जयचंदों की कमी न पहले थी न अब है।कबूतरों को ज़िंदा रहना है तो उन्हें ये प्रवर्ति छोड़नी ही होगी, क्योंकि बिल्लियां अब झपट्टा मारने को तैयार हैं। बचपन मे कबूतरों की एक दूसरी कहानी भी हम सभी ने पढ़ी थी जिसमे सभी कबूतर एक साथ जाल को लेकर उड़ जाते हैं और शिकारी 'जयचंद 'देखता रह जाता है। 11 तारीख को पता चलेगा,दिल्ली के कबूतर जाल को लेकर उड़ने वाले चतुर और समझदार कबूतर हैं या बिल्ली के सामने होने पर भी आंख मूंद कर मुफ्त का दाना चुगने वाले मुफ्तखोर कबूतर।