धर्म की तरफ कौन जाता हे

दो तरह के लोग धर्म की तरफ जाते हैं।                                                                             


एक, कामना से ही जाते हैं। 


वे जा ही नहीं पाते...उन्हें लगता है कि वे धर्म की यात्रा पर हैं; वह भ्रांति है उनकी। 


धर्म के नाम पर संसार ही चलता है....मंदिर जाते हैं—धन चाहिए, मुकदमा जीतना है, विवाह करना है, बच्चे नहीं होते हैं, दुकान नहीं चलती, नौकरी नहीं मिलती है।


मंदिर वे जाते हैं...जाते नहीं।


मंदिर भी बाजार है, बाजार का ही हिस्सा है। 


दिखता भर है कि मंदिर है, वह है नहीं मंदिर। 


मंदिर में क्या कुछ मांगने जाना! जिसकी मांग समाप्त हो गयी, वही मंदिर में जाता है।


जिसने जान लिया कि कुछ सार नहीं; मिल जाए संसार तो सार नहीं, न मिले तो सार नहीं; जिसने सब भांति पहचान लिया कि असार ही असार है, वही धर्म की तरफ जाता है। 


तब वह मांगने नहीं जाता, कुछ पाने नहीं जाता।


मांग और पाने का कोई संबंध ही धर्म से नहीं है। 


तब वह सब छोडकर, सब व्यर्थता को पहचानकर, एक नयी यात्रा पर निकलता है जो निर्वासना की है।


यहां न तो परमात्मा पाना है, न मोक्ष पाना है। कुछ पाना नहीं है। यहां तो सिर्फ होने का आनंद लेना है।


होना और पाना, इन दो शब्दों को ठीक से खयाल रखो....


जब होने की यात्रा शुरू होती है, तब धर्म....


जब पाने की यात्रा चलती रहती है, तब संसार। 


तुम सिर्फ होना चाहते हो अपनी परिपूर्णता में। यह कोई चाह नहीं है, यह तुम हो ही। सब चाह छूट जाए, तो यह तुम्हें दिखायी पड़ जाए।



चाह के कारण दिखायी नहीं पड़ता।


चाह घेरे रहती है, चाह का धुआं चारों तरफ घिरा रहता है। 


तुम अपने को नहीं पहचान पाते।


चाह के कारण दौड़ते हो, बैठ नहीं पाते। 


चाह के कारण सपने संजोते हो, शांत नहीं हो पाते। 


चाह के कारण चित्त विचार और विचार करता है, हजार आयोजनाए करता है और उस कारण, वह तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसके साथ मैत्री नहीं बन पाती, उसके साथ संबंध नहीं जुड़ पाता।


चाह लाखों संबंध बनवाती है अपने से बाहर, भीतर से संबंध नहीं जुड्ने देती। 


जब सब चाह छूट जाती है—छूट जाने का मतलब यह नहीं कि तुम छोडकर भाग जाते हो—छूट जाने का मतलब, जब तुम समझ जाते हो, व्यर्थ है। बोध होता है; सुरति जगती है। तब ऐसा नहीं है कि कोई नयी यात्रा शुरू हो जाती है। बस, पुरानी यात्रा बंद हो जाती है। तुम अपने को वहीं पाते हो, जहां तुम जाना चाहते थे।


तुम अपने को परिपूर्ण पाते हो, तुम अपने को ब्रह्मस्वरूप पाते हो। उस क्षण तुम्हारे भीतर अहर्निश एक नाद गंजने लगता है, अहं ब्रह्मास्मि! मैं ही ब्रह्म हूं। बिना कहीं गए मंजिल मिल जाती है। 


धर्म यात्रा ही नहीं है।


क्योंकि यात्रा में तो वासना होगी, कहीं जाना है। 


धर्म तो पहुंचना है, यात्रा नहीं है।


धर्म मार्ग नहीं है, मंजिल है....और तुम वहां इस क्षण भी हो, अभी भी हो।


लेकिन तुम्हारी वासनाएं तुम्हें दौड़ाती हैं।


अवसर नहीं मिलता, समय नहीं मिलता, सुविधा नहीं मिलती कि तुम पहचान लो, भीतर क्या घटित हो रहा है! क्या सदा से ही घटित हुआ हुआ है!



तुम्हारे भीतर अहर्निश परमात्मा विराजमान है। श्वास—श्वास में, हृदय की धड़कन— धड़कन में वही रमा है। पर फुरसत कहां, सुविधा कहां, समय कहां है!


अभी बहुत बड़ी दौड़ है, संसार जीतना है। सिकंदर छाती पर सवार है। वह खींचे लिए जा रहा है। बहुत पाना है। सोचते हो कि जब सब पा लेंगे, तब फिर इस तरफ भी ध्यान देंगे।


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