भारत के पितामह महर्षि दयानंद सरस्वती

भारत के पितामह महर्षि दयानंद सरस्वती




        भारत भूमि महानतम विद्वानों की मातृभूमि रही है जिन्होंने समय-समय पर हमारा नेतृत्व व मार्गदर्शन किया है। एक कवि ने भारत भूमि के प्रति अपनी परमात्मा की चिंता व पीड़ा को अपनी पंक्तियों में कुछ इस तरह से व्यक्त किया है, " सरस सुखकर मनोरम सुदृश्यों भरी कैसी पावन धरा थी तुझे सौंप दी। अपनी करतूत से स्वर्ग वातावरण नरक खुद ही बनाये तो मैं क्या करूँ।।"


           कहाँ से आरंभ किया था और कहाँ आ पहुंचे। सकल विश्व में स्तुत्य संस्कृति का कैसा पराभव हुआ?
         अनेक मनीषी, विद्वान, संस्थायें सुधार के लिए आगे आयीं पर नतीजा," मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।" ऐसे कठिन समय में तत्कालीन  सौराष्ट्र के मौरवी राज्य के टंकारा नामक नगर में एक उच्च ब्राह्मण कुल में पंडित कर्षण जी व माता यशोदा बाई के एक बालक का जन्म हुआ। पिता ने अपने पुत्र का नाम मूल शंकर रखा। यह घटना संवत् 1881 तद्नुसार सन् 1824 ईo की है। (हम महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्मदिन फरवरी,18 को हर्षोल्लास से मनाते हैं।) मूल जी की शिक्षा का प्रबंध बाल्यकाल में घर पर ही किया गया। मेधावी बालक ने यजुर्वेद को कंठस्थ कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।


         14 - वर्ष की आयु में शिव रात्रि के अवसर पर उन्होंने चूहों को शिव लिंग को अपवित्र करते जो देखा तो उनके मन में विचार आया कि यह तो उनके द्वारा सुनी गयी शिव महिमा के अनुरूप नहीं है। यह शिव रात्रि उनके लिए बोध रात्रि बन गयी। सच्चे शिव की खोज उनके जीवन का लक्ष्य बना।


        परिवार में घटी उनकी बहन व चाचा जी की मृत्यु ने उनमें वैराग्य को जागृत कर दिया। चिंतित माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया तो उन्होंने चुपके से घर त्याग दिया और सच्चे शिव की खोज में निकल पड़े। 24 वर्ष की आयु में आपने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली, उन्होंने मूल शंकर को 'दयानंद सरस्वती' का नाम दिया। पर मन संतुष्ट न था। कष्टप्रद यात्राओं के उपरान्त जब आप स्वामी विरजानन्द जी के शिष्य बने, उनकी अभिलाषा पूर्ण हुई।


        शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त जब वे गरु दक्षिणा के रूप में कुछ लवंग लेकर गुरु से विदा लेने पहुंचे तो गुरु ने उनसे अद्भुत दक्षिणा माँगी ," वत्स! भारत देश में दीन हीन जन अनेक विधि दुःख पा रहे हैं। उनका उद्धार करो।"शिष्य को तो जैसे उसके कार्य क्षेत्र की दिशा मिल गयी। उन्होंने एक पुस्तक 'वेद', एक आराध्य 'ईश्वर' का संदेश दे भटकी मानवता को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया।


      वैदिक धर्म प्रचार के लिए आपने सम्वत् 1932 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने अपने वेद भाष्यों तथा अनेक आर्ष ग्रंथों के द्वारा मानवता को ज्ञानवान बनाने का प्रयास किया। आपक अमर ग्रन्थ ' सत्यार्थ प्रकाश ' आज भी सत्य की खोज करने बालों का मार्गदर्शन कर रहा है।ईश्वरेच्छा कुछ षड्यंत्रकारियों के कारण उनका जीवन संक्षिप्त रहा, पर उनका दिखाया मार्ग आज भारत का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।


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