सशस्त्र क्रान्ति के नायक लहूजी साल्वे

सशस्त्र क्रान्ति के नायक लहूजी साल्वे



       स्वतन्त्रता के संघर्ष में जिन वीरों ने अपनी प्राणाहुति दी, उनमें से अनेक ऐसे हैं, जिनके नाम और काम प्रायः अल्पज्ञात ही हैं। ऐसे ही एक वीर थे लहूजी साल्वे। महात्मा ज्योतिबा फुले, लोकमान्य तिलक तथा महान क्रान्तिवीर वासुदेव बलवन्त फड़के ने भी लहूजी के कार्यों से प्रेरणा ली थी। 


       लहूजी का जन्म 14 नवम्बर, 1794 को एक स्वराज्यनिष्ठ परिवार में हुआ था। अतः लहूजी को माँ के दूध के साथ ही स्वराज्य का पाठ भी पढ़ने को मिला। उनके पिता का नाम राघोजी और माता का नाम विठाबाई था। वे पुणे के पास पुरन्दर किले की तलहटी में बसे पेठ गाँव के निवासी थे। 


      यह क्षेत्र शिवाजी और उनके साथियों द्वारा हिन्दू साम्राज्य के लिए किये गये प्रयत्नों का प्रत्यक्ष साक्षी था। लोग रात में चौपालों पर शिवाजी के शौर्य, पराक्रम और विजय की गाथाएँ गाते थे। अतः अपने मित्रों के साथ खेलते हुए लहूजी को पग-पग पर स्वराज्य के लिए मर मिटने की प्रेरणा मिलती थी।


      लहूजी के चेहरे पर जन्म के समय से ही एक अद्भुत लालिमा एवं तेज विद्यमान था। इस कारण नामकरण संस्कार के समय उनका नाम लहूजी रखा गया। राघोजी पेशवा की सेना में काम करते थे। उनके घर में भी अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे। घर में युद्ध सम्बन्धी कथाओं की चर्चा प्रायः होती रहती थी। इसलिए लहूजी के मन में बचपन से ही शस्त्रों के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न हो गया। वे घण्टों उनके सामने बैठे रहते थे।


      उनकी इस रुचि को उनके पिता राघोजी ने और बढ़ाया। वे लहूजी को अपने साथ पहाड़ियों में ले जाकर अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाते थे। सबल शरीर के स्वामी लहूजी को पट्टा चलाने में विशेष महारत प्राप्त थी। इसके साथ ही उन्हें शिकार करने का भी शौक था। पशुओं का पीछा करते हुए कभी-कभी वे दूर तक निकल जाते थे; पर खाली हाथ लौटना उन्हें स्वीकार नहीं था। यह देखकर गाँव के अनुभवी बुजुर्ग लोग कहते थे कि यह बालक आगे चलकर निश्चित ही कुछ बड़ा काम करेगा।


     1817 में पेशवा और अंग्रेजों में युद्ध हुआ। मराठा सेना ने पूरी शक्ति से युद्ध किया; पर भाग्य उनके विपरीत था। पेशवा ने पराजय के बाद पुणे छोड़ दिया। राघोजी युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। फिर भी अंग्रेज सैनिकों ने उनका बहुत उत्पीड़न किया। इससे तड़प-तड़प कर राघोजी की मृत्यु हो गयी। यह सुनकर लहूजी ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का निश्चय कर लिया।


     इस समय तक उनकी आयु 24 वर्ष की हो चुकी थी। उन पर विवाह करने का दबाव पड़ रहा था; पर लहूजी ने अपने लिए कुछ और काम ही निर्धारित कर लिया था। उन्होंने सह्याद्रि की पहाड़ियों में बसे गाँवों के युवकों को एकत्र कर उनकी एक मजबूत सेना बनायी। अस्त्र-शस्त्र एकत्र किये और अंग्रेज छावनियों पर धावा बोलना शुरू कर दिया। 


      उनकी सेना में निर्धन और छोटी कही जाने वाली जातियों के युवक ही अधिक संख्या में थे। 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष का लम्बा दौर प्रारम्भ हुआ, उसमें कानपुर, ग्वालियर और झाँसी के युद्धों में लहूजी के इन वीर सैनिकों ने अप्रतिम शौर्य दिखाया। 


      जीवन भर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्षरत रहे लहूजी साल्वे ने 17 फरवरी, 1881 को अन्तिम साँस ली।


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